Sunday, December 22, 2024
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यूनेस्को की विश्व विरासत: मध्ययुगीन जीवन एवम् ऐश्वर्य का जादू जैसलमेर दुर्ग

रेगिस्तान का अविभूत करने वाला सोनार किला लगता है जैसे प्रत्यक्ष रूप से एरेबियन नाइट्स की कथाओं से निकलकर आया है। किले के अन्दर मध्ययुगीन जीवन एवं ऐश्वर्य का जादू दिखाई देता है जो भव्य महलों ,हवेलियों ,मंदिरों में अनाम शिल्पियों की कारीगरी का जीवन्त उदाहरण है। शाम को जब सूरज अस्त होने को होता है तो आकर्षक सुनहरी मटमेले रंग की किरणों का सौन्दर्य देखते ही बनता है। सूर्योदय की बेला में सम्पूर्ण जैसलमेर एक फूल की तरफ खिल उठता है और सूर्य की कोमल रश्मियों से  दुर्ग की आभा स्वर्णिम हो जाने से इसे सोनार किला कह जाता है।

पाकिस्तान की सीमा से जुड़ा राजस्थान का दूरस्थ रेगिस्तानी  सीमांत क्षेत्र में शौर्य-पराक्रम और वीरता के इतिहास, कला-संस्कृति, दैवीय ऊर्जा और आध्यत्म के साथ मरुस्थलीय जन जीवन के सम्पूर्ण वैशिष्ठ्य के के सुहरे बिंबों का एहसास कराता है सोनार किला।ऐसी ही विशिष्ठताओ कि वजह से यूनेस्को ने वर्ष 2013 ई.सोनार किले को विश्व विरासत में शामिल किया। किले के जीर्णोद्धार के लिए विश्व विरासत निधि के साथ-साथ अमेरिकन एक्सप्रेस जैसे विभिन्न संगठनों द्वारा आर्थिक सहायता भी प्रदान की जा चुकी है।

शहर के मध्य त्रिकूट पर्वत पर 250 फीट की ऊंचाई पर स्थित  सोनार किले का महत्व इस से है कि पीले पत्थरों से बने इस किले का में कहीं भी चूने का प्रयोग नहीं किया गया है। किला 1500 फीट लम्बा एवं 750 फीट चैड़ा है तथा किले में 30-30 फीट ऊँचे 99 बुर्ज बने हैं। देखने मे ये बुर्जे माला कार प्रतीत होती हैं।दोहरी सुरक्षा व्यवस्था के चलते यह किला हमेशा अभेद्य रहा। किले में प्रवेश के लिए अखेपोल, सूरजपोल, गणेशपोल एवं हवापोल चार दरवाजे बने हैं। हवापोल के बाद एक विशाल प्रांगण आता है जिसके चारों तरफ मकान, महल व मंदिर बनाये गये हैं। यह आवासीय किला है।

प्रमाणों से ज्ञात होता है कि किले की नींव विक्रम संवत 1121 में श्रवण शुक्ल द्वादशी अर्थात 1155-56 ई.में जैसल नामक रावल शासक ने रखी थी,जिसका निर्माण 7 वर्ष में पूर्ण हुआ। आगे चल कर तावत जेतसी, भीमसिंह,मनोहरसिंह,अमरसिंह,जसवंतसिंह,अखेसिंह एवं गजसिंह आदि ने किले में पोलें,बुर्जों,प्रासादों, आदि अनेक निर्माण कार्य करवाये। तथ्यों से पता चलता है कि शासक कृष्ण के वंशज रहे और जैसलमेर उनकी 9 वीं राजधानी थी। त्रिकोणीय पहाड़ त्रिकुट पर स्थापित किले और राजधानी का नाम जैसलमेर-जेसलमेरू प्रसिद्ध है।

यहां बने रंग महल, गजनिवास एवं मोती महल स्थापत्य कला के शानदार नमूने हैं। महलों में भित्ती चित्र तथा लकड़ी पर की गई बारिक नक्काशी का कार्य एवं भित्ति चित्र देखने योग्य है। महलों में पत्थर की सुन्दर जालियां, झरोखें एवं वीथिकाएँ सुन्दरता प्रदान करते हैं। किले पर लंबे समय से रावल शासकों के अधीन रहा।इस बीच कई आक्रमण भी हुए और एक बार किला उनके हाथों से निकल गया जिस पर उन्होंने पुनः अधिकार कर लिया।मुगल सम्राट अकबर के समय सन्धि होने से इन्ही के अधिकार में बना रहा। सोनार किला बीसवीं शदी के आरंभ तक  बहुमूल्य हीरे-जवाहरात, स्वर्ण,मेवा,इत्र, आदि बेशकीमती वस्तुओं के व्यापार का बड़ा केंद्र बना रहा।सिंध,अफगानिस्तान,चीन,रूस,ईरान-इराक एवं यूरोपीय देशों से व्यापार के लिए सुरक्षित रेगिस्तानी मार्ग था जहाँ ऊंटों से व्यापार किया जाता था।

महलों के सामने आदिनारायण एवं शक्ति के मंदिर बने हैं। दुर्ग में लक्ष्मीनाथ जी का एक मात्र हिन्दू मंदिर सोने व चाँदी के कपाटों के कारण विशेष महत्व रखता है। आस.पास कारीगरी में अनुपम जैन मंदिर 14 वीं एवं 15 वीं शताब्दी की स्थापत्य व मूर्ति कला का सुन्दर नमूने हैं। मंदिरों के तल गृह में जिन भद्र सूरी ज्ञान भण्डार में दुर्लभ एवं प्राचीन पाण्डुलिपियों का संग्रह किया गया है। यहां 1126 ताड़पत्र एवं 2252 कागज पर लिखी पाण्डुलिपियां पाई जाती हैं। सबसे लम्बी पाण्डुलिपी ताड़पत्र पर लिखी जो 32 इंच लम्बी हैं।

जैन कला एंव स्थापत्य के उच्चतम प्रतीकों का दर्शन करना हो तो चले आइये जैसलमेर दुर्ग पर। सोनार किले में जैन एवं हिन्दु मंदिरों का एक ऐसा भव्य समूह है जो कारीगरी में किसी आश्चर्य से कम नहीं है।  मंदिर समूह में शामिल पाश्र्वनाथ जैन मंदिर में वद्धिरत्नमाला के अनुसार 1257 मूर्तियां बनाई गई हैं। जिस शिल्पकार ने इनकी रचना की उसका नाम धत्रा हैै। मंदिर का मुख्य द्वार पीले पत्थर से निर्मित अलंकृत तोरण द्वार है। तोरण द्वार के खंभो में देवी.देवताओंए वादकोंए वादिकाओं को नृत्य करते हुए ,हाथी,सिंह, घोडे पक्षी उंकेरे गये हैं जो सुन्दर बेलबूटों से सजे हैं। तोरण द्वार के उपरी शिखर के मध्य पाश्र्वनाथ की ध्यानमुद्रा की प्रतिमा बनी है।

दूसरे प्रवेश द्वार पर मुख मण्डप के नीचे तीन तोरण एवं इनमें कारीगरी पूर्ण छत विभिन्न प्रकार की कलात्मक आकृतियों से अलंकृत हैं। इनमें बनी तीर्थंकरों की मूर्तियां सजीव प्रतीत होती है। यह मंदिर गुजरात मंदिर निर्माण शैली के अनुरूप निर्मित हैए जिसमें सभा मण्डपए गर्भगृहए गूढ मण्डपए छः चोकी तथा 51 कुलिकाओं की व्यवस्था है। कुलिकाओं में बनी मूर्तियां अत्यन्त मनोहारी है। सभा मण्डप की गुम्बदनुमा छत को सुन्दर प्रतिमाओं से सजाया गया है। अग्र भाग के खंभे व उनके बीच के कलात्मक तोरण स्थापत्य कलां के सुन्दरतम प्रतीक है। इस मण्डप में 9 तोरण बनाये गये है। मंदिर के सभा मण्डप में 8 सुन्दर कलात्मक तोरण बने हैं। स्तंभों के निचले भाग में हिन्दु देवी.देवताओं की आकृतियां बनी हैं। दूसरी और तीसरी मंजिल पर भगवान चन्द्र प्रभु चैमुख रूप में विराजित है। मंदिर में गणेश प्रतिमाओं को भी विभिन्न मुद्राओं में तराशा गया है। यहां तीसरी मंजिल पर एक कोठरी में धातु की बनी चैबीसी तथा पंच तीर्थी मूर्तियां संग्रहित की गई है।

मंदिर परिसर में शान्तिनाथ एवं कुन्थूनाथ जी के मंदिर जुडवां हैं। इस मंदिर की नक्काशीए मूतिकलां जैन धर्म की अमूल्य धरोहर मानी जाती है। दुमंजिले मंदिर में नीचे बना मंदिर कुन्थूनाथ को तथा ऊपर का मंदिर शान्तिनाथ को समर्पित है। मंदिर में लगे शिलालेख के मुताबित मंदिर का निर्माण 1480 ईस्वीं में जैसलमेर के चैपडा एवं शंखवाल परिवारों द्वारा किया गया था। मंदिर के कुछ हिस्सों में बदलाव व कुछ निर्माण कार्य 1516 ईस्वीं में कराये गये। यह मंदिर शिखरयुक्त है तथा शिखर के भीतरी गुम्बदों में वाद्य यंत्र बजाती हुई व नृत्य करती हुई अप्सराओं को उंकेरा गया है। इनके नीचे गंधर्वों की प्रतिमाएं हैं। मंदिर के सभा मण्डप के चारों ओर खंभों के मध्य सुन्दर तोरण बनाये गये हंै। गुढ़ मण्डप में एक सफेद आकार की तथा दूसरी काले संगमरमर की कायोत्सर्ग मुद्रा में मूर्तियां प्रतिष्ठित हैं इनके दोनों पिछवाडें में 11-11 अन्य तीर्थंकरों की प्रतिमाएं बनी है। इस कारण इसे चैबीसी की संज्ञा की गई है। हिन्दुओं की दो प्रतिमाएं दशवतार एवं लक्ष्मीनारायण भी मंदिर में विराजित है। मंदिर का कोई भी हिस्सा ऐसा नहीं है जहां तक्षणकार ने अपनी हथोड़ी और छेणी से कल्पनाओं को पाषाण में साकार नहीं किया है। मानव प्रतिमाएं श्रंगारित एवं अलंकृत हैं।

मंदिर समूह संभवनाथ जी से लगा हुआ मंदिर शीतलनाथ जी का है। मंदिर का रंग मण्डप तथा गर्भगृह सटे हुए हैं। मंदिर में नौ खण्डा पाश्र्वनाथ जी एक ही प्रस्तर में चैबीस तीर्थंकर की प्रतिमाएं दर्शनीय हैं। चन्द्र प्रभु के मंदिर के समीप ऋषभ का कलात्मक शिखर युक्त मंदिर है। मंदिर की विशेषता यह है कि यहां मुख्य सभी मण्डप के स्तंभों पर हिन्दु देवी.देवताओं का रूपांकन नजर आता है। कहीं राधा-कृष्ण और कहीं अकेले कृष्ण को बंशी वादन करते हुए दिखाया गया है। एक स्थान पर गणेश, शिव.पार्वती एवं सरस्वती की मूर्तियां बनी हैं। इन्द्र व विष्णु प्रतिमाएं भी उतकीर्ण हैं। मंदिर में पद्मावतीए तीर्थंकर, गणेश, अम्बिका, यक्ष एवं शालभंजिका की प्रतिमाएं भी उत्कीर्ण हैं। किले के चैगान में महावीर स्वामी का मंदिर का निर्माण 1493 के समय का बताया जाता है। यह अन्य मंदिरों की तुलना में एक साधारण मंदिर है।

जैन मंदिर समूह के मध्य पंचायतन शैली का लक्ष्मीनाथ मंदिर हिन्दुओं का महत्वपूर्ण मंदिर है। इसका निर्माण राव जैसल द्वारा दुर्ग निर्माण के समय ही किया गया था। मंदिर का सभा मण्डप किले की अन्य इमारतों के समान है। मुस्लिम आक्रांताओं के समय मंदिर का बड़ा भाग ध्वस्त हो गया था। आगे महारावल लक्ष्मण ने 15वी शताब्दी में इसका जीर्णोद्धार कराया। सभा मण्डप के खंभों पर घट पल्लव आकृतियां बनी हैं । मंदिर के दो किनारे दरवाजों पर जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएं भी बनी हैं। गणेश मंदिर की छत में सुन्दर विष्णु की सर्प पर विराजमान मूर्ति है। समूह में टिकमजी जिसे त्रिविकर्मा भी कहते है तथा गौरी मंदिर भी बने हैैं।

किले के नीचे प्राचीर के पास सात मंजिला बदल विलास बुर्ज प्रमुख कलात्मक इमारत है जिसका निर्माण महारावल बेरीशाल द्वारा करवाया गया है। सालिमसिंह द्वारा बनवाई गई कलात्मक झरोखों वाली हवेली भी किले के समीप आकर्षण का प्रमुख केन्द्र है। जैसलमेर में किले के साथ-साथ अनेक शानदार हवेलियां,गड़सीसर तालाब और कई कलात्मक इमारतें दर्शनीय हैं।

(लेखक मान्यताप्राप्त परत्रकार हैं कोटा में रहते हैं और ऐतिहासिक, पर्यटन व साहित्य से जुड़े विषयों पर नियमित लेखन करते हैं)

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