माननीय डॉ. अम्बेदकरजी से गत २७ फरवरी को मेरी जब उनकी कोठी पर बातचीत हुई तो उन्होंने यह भी कहा कि सांख्यदर्शन में ईश्वरवाद का खण्डन किया गया है। यही बात अन्य भी अनेक लेखकों ने लिखी है किन्तु वस्तुतः यह अशुद्ध है। सांख्य दर्शन में ईश्वर के सृष्टि के उपादान कारणत्व का निम्न सूत्रों द्वारा खण्डन किया गया है उसका यह अर्थ समझ लेना कि यह ईश्वरवाद मात्र का खण्डन है, अशुद्ध है। उदाहरणार्थ निम्न सूत्रों को देखिए-
तद्योगेऽपि न नित्य मुक्त:।। सांख्य ५/७
अर्थात् यदि ईश्वर को इस सृष्टि का उपादान कारण माना जाएगा तो ईश्वर नित्य मुक्त नहीं समझा जाएगा, क्योंकि उपादान कारण मानने से उसमें रागादि की प्रवृत्ति माननी पड़ेगी जो नित्य मुक्त में नहीं हो सकती।
प्रधान शक्ति योगाच्चेत् संगापत्ति:।। सांख्य ५/८
अर्थात् यदि ईश्वर और प्रकृति की शक्ति का योग मान लिया जाए तो संग की प्राप्ति से अन्योन्याश्रय होगा। ईश्वर को किसी आश्रय की आवश्यकता नहीं।
सत्तामात्राच्चेत् सर्वैश्वर्यम्।। सांख्य ५/९
अर्थात् यदि ईश्वर को इस जगत् का उपादान कारण माना जाए तो ईश्वर में गुण (सर्वज्ञादि) हैं वे इस जगत् में भी होने चाहिये परन्तु ऐसा देखने में नहीं आता। इसलिये ईश्वर इस सृष्टि का उपादान कारण नहीं, निमित्त कारण मात्र है।
प्रमाणाभावान्न तत्सिद्धि:।। सांख्य ५/१०
प्रत्यक्ष प्रमाण के न होने से ईश्वर को जगत् का उपादान कारण नहीं किया जा सकता।
सम्बन्धाभावान्नानुमानम्।। सांख्य ५/११
अर्थात् अनुमान प्रमाण द्वारा भी सिद्ध नहीं किया जा सकता कि ईश्वर जगत् का उपादान कारण है क्योंकि बिना प्रयोजन के कोई कार्य नहीं होता और ईश्वर में प्रयोजन का अभाव है। ऐसी अवस्था में ईश्वर को जगत् का उपादान कारण नहीं माना जा सकता।
श्रुतिरपि प्रधानकार्यत्वस्य।। सांख्य ५/१२
अर्थात् श्रुति भी प्रधान व प्रकृति से सृष्टि का होना मानती है।
अजामेकां लोहित शुक्ल कृष्णां बह्वी: प्रजा: सृजमानां स्वरूपा:।
अजोह्येको जुषमाणोऽनु शेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्य:।।
इत्यादि वचनों में प्रकृति को ही जगत् का उपादान कारण बताया गया है न कि परमेश्वर को।
सांख्यशास्त्र में ईश्वर की सत्ता के प्रतिपादक सूत्र
उपर्युक्त सूत्रों के आधार पर किसी को यह भ्रम न हो जाए कि सांख्यदर्शन में ईश्वर के अस्तित्व का खण्डन किया गया है निम्नलिखित सूत्रों का निर्देश करना हमें प्रसङ्ग वश आवश्यक प्रतीत होता है।
अकार्यत्वेऽपितद् योग: पारवश्यात्।। सांख्य ३/५५
प्रश्न यह है कि प्रकृति को सृष्टि का उपादान कारण क्यों माना गया है? इसका उत्तर इस सूत्र में दिया गया है। प्रकृति को सृष्टि का उपादान कारण इसलिये माना गया है क्योंकि वह परवश है और जो परवश होता है उसे ही काम करना पड़ता है इसलिए प्रकृति को ही सृष्टि करने का योग है।
स हि सर्ववित् सर्व कर्ता।। सांख्य ३/५६
अर्थात् (स:) वह परमेश्वर (हि) निश्चय से (सर्ववित्) सर्वज्ञ है (सर्व कर्ता) सबका कर्ता है। प्रकृति तो इस सृष्टि का उपादान कारण है और जो परमात्मा सर्वज्ञ है वह सबका नैमित्तिक कारण है।
ईदृशेश्वर सिद्धि: सिद्धा।। सांख्य ३/५७
अर्थात् इसप्रकार के ईश्वर की सिद्धि सिद्ध है। इस प्रकार के सर्वज्ञ ईश्वर की सिद्धि स्पष्ट है जो इस सृष्टि का नैमित्तिक कारण है, वह सृष्टि का उपादान कारण नहीं।
ईश्वर का स्वरूप
सांख्य दर्शन के निम्न सूत्रों में ईश्वर के स्वरूप का स्पष्ट प्रतिपादन है-
व्यावृत्तोभय रूप:।। सांख्य १/१६०
अर्थात् ईश्वर प्रकृति और पुरुष (आत्मा) से भिन्न है।
साक्षात् सम्बन्धात् साक्षित्वम्।। सांख्य १/१६१
अर्थात् प्रकृति और जीवात्मा के साथ सम्बन्ध होने से और उनका अधिपति होने से ईश्वर उनका साक्षी है- वह उनके कार्य का निरीक्षक है जैसे कि वेद में भी कहा है-
“द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति।।” ऋ० १/१६४/२
अर्थात् दो पक्षी (परमात्मा और जीवात्मारूपी) अनादि होने से समान प्रकृतिरूप वृक्ष पर मानो बैठे हैं। वे दोनों परस्पर मित्र हैं। उनमें से एक (जीवात्मा) वृक्ष के फल को खा रहा है और दूसरा (परमात्मा) उसे देख रहा है। साक्षी है।
नित्यमुक्तत्वम्।। सांख्य १/१६२
वह ईश्वर नित्य मुक्त है। इस विषय में योगदर्शन में कहा है- “क्लेश कर्म विपाकाशयैर परामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:।।”
औदासीन्यं चेति।। सांख्य १/१६३
वह परमात्मा उदासीन वृत्तिवाला है, अर्थात् पक्षपातरहित है। वह न्यायकर्ता है और किसी का पक्ष नहीं लेता।
उपरागात् कर्तृत्वं चित्सान्निध्यात् चित्सान्निध्यात्।। सांख्य १/१६४
अर्थात् प्रकृति और जीवात्मा के साथ सम्बन्ध होने से उस परमात्मा की कर्तृत्व शक्ति का प्रसार दिखलाई देता है, अर्थात् वह ईश्वर इस सृष्टि का कर्ता, पालक, पोषक और संहारक है।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि सांख्यदर्शन के कर्ता कपिल मुनि अनीश्वरवादी न थे। उनके नाम से अनीश्वरवाद का समर्थन करना उनके साथ घोर अन्याय करना है। सांख्यदर्शन के यथार्थ तत्त्व को जो विशेषरूप से जानना चाहते हैं उन्हें स्वामी हरिप्रसादजी कृत ‘सांख्यसूत्र वैदिक वृत्ति’ और श्री गोपालजी बी.ए. कृत ‘सांख्य सुधा’ (प्राच्य साहित्य मण्डल १५ हनुमान् रोड नई देहली द्वारा प्रकाशित) इत्यादि पुस्तकों का अनुशीलन करना चाहिए। विस्तार भय से हम इस प्रसंगागत विषय को यहीं समाप्त करते हैं।
प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ