नैपल्स दक्षिणी इटली का सबसे बड़ा शहर है। इस बेहद खूबसूरत शहर का पुराना इतिहास है। इसके पीछे मशहूर ज्वालामुखी अवशेष माउंट वेसुवियस है। तकरीबन 2000 साल पहले जब वेसुवियस ज्वालामुखी में विस्फोट हुआ था, तो इससे दो रोमन कस्बे पोंपेई और हरकुलेनियम नष्ट हो गए थे। यूरोप में यह एकमात्र ज्वालामुखी अवशेष है। लेकिन नैपल्स के लोग वेसुवियस विस्फोट के बजाय जहरीले कचरे को लेकर चिंतित हैं, क्योंकि इससे वहां की जमीन में जहर फैल रहा है। प्रोटेक्शन ऑफ नेचर पर 10वीं अंतरराष्ट्रीय मीडिया फोरम में शामिल होने के लिए नवंबर के शुरू में मैं नैपल्स में थी। इसे रोम के एक एनजीओ ग्रीनएकॉर्ड ने आयोजित किया था। कार्यक्रम का विषय था- ‘अपशिष्ट के बगैर भविष्य।’
वरिष्ठ पत्रकार चित्रलेखा चटर्जी कहती हैं कि बढ़ते कचरे की समस्या वैश्विक है। हर कोई अपशिष्ट पदार्थों को कम करने, पुनर्चक्रित करने और
दोबारा प्रयोग करने के बारे में बात कर रहा है। लेकिन अगर अपशिष्ट जहरीला हो जाए तो क्या होगा? या फिर कूड़े के ढेर को जलाने से जहर का उत्सर्जन हो तो क्या किया जा सकता है? सम्मेलन के दौरान ‘इकोमाफिया’ की गतिविधियां एक गंभीर प्रश्न के रूप में सामने आईं। अपशिष्ट के कारोबार के अपराधीकरण का वर्णन करने के िलए इटली के एक पर्यावरणीय संगठन लेगामबीनटे ने 1994 में इस शब्द को गढ़ा था। इकोमाफिया उस समय खबरों में आए जब इटली की सीनेट ने नैपल्स के नजदीक कैंसर के कई मामलों की जांच की। दरअसल, कैंसर के ये मामले एक स्थानीय माफिया द्वारा अपशिष्ट पदार्थों के जमावड़े के कारण उत्पन्न हुए।
दो दशक पहले चिकित्सकों ने ध्यान दिया था कि नैपल्स के आसपास कैंसर के मामलों में इजाफा हुआ है। तब से लेकर अब तक महिलाओं और पुरुषों दोनों में ट्यूमर के मामलों में बढ़ोतरी हुई है। सवाल यह है कि ये चीजें शासन के सामने कैसे आईं? इटली के एक प्रमुख पर्यावरणविद और संसद में पर्यावरण आयोग के अध्यक्ष एरमेटे रीलाक्की कहते हैं, ‘1990 के मध्य में जब हमने कचरे के अवैध ढेर की वजह से जमीन के जहरीले होने के बारे में चर्चा करने पर जोर दिया, तो लोग और पत्रकार हमें कुछ इस तरह देखते थे जैसे हम लोग किसी दूसरे ग्रह के प्राणी हों। केवल दो टेलीविजन चैनल वाले नैपल्स के पास नाटो सैनिक अड्डे के नजदीक जमीन की हालत देखने के लिए हमारे साथ चलने के लिए तैयार हुए।
नवयुग सस्था के डॉ शशांक शर्मा बताते हैं कि बिजली से चलनेवाली चीजें जब बहुत पुरानी या खराब हो जाती हैं और उन्हें बेकार समझकर फेंक दिया जाता है तो उन्हें ई-वेस्ट कहा जाता है। घर और ऑफिस में डेटा प्रोसेसिंग, टेलिकम्युनिकेशन, कूलिंग या एंटरटेनमेंट के लिए इस्तेमाल किए जानेवाले आइटम इस कैटिगरी में आते हैं, जैसे कि कंप्यूटर, एसी, फ्रिज, सीडी, मोबाइल, सीडी, टीवी, अवन आदि। ई-वेस्ट से निकलनेवाले जहरीले तत्व और गैसें मिट्टी व पानी में मिलकर उन्हें बंजर और जहरीला बना देते हैं। फसलों और पानी के जरिए ये तत्व हमारे शरीर में पहुंचकर बीमारियों को जन्म देते हैं। सेंटर फॉर साइंस एंड इन्वाइरनमेंट(सीएसई) ने कुछ साल पहले जब सर्किट बोर्ड जलानेवाले इलाके के आसपास शोध कराया तो पूरे इलाके में बड़ी तादाद में जहरीले तत्व मिले थे, जिनसे वहां काम करनेवाले लोगों को कैंसर होने की आशंका जताई गई, जबकि आसपास के लोग भी फसलों के जरिए इससे प्रभावित हो रहे थे।
भारत में यह समस्या 1990 के दशक से उभरने लगी थी। उसी दशक को सुचना प्रौद्योगिकी की क्रांति का दशक भी मन जाता है . पर्यावरण विशेषज्ञ डॉक्टर ए. के. श्रीवास्तव कहते हैं, ” ई – कचरे का उत्पादन इसी रफ़्तार से होता रहा तो 2012 तक भारत 8 लाख टन ई – कचरा हर वर्ष उत्पादित करेगा .” राजेंद्र कृषि विश्वविद्यालय, पूसा के पूर्व निदेशक डॉ श्रीवास्तव कहते हैं कि ” ई – कचरे कि वजह से पूरी खाद्य श्रंखला बिगड़ रही है .” ई – कचरे के आधे – अधूरे तरीके से निस्तारण से मिट्टी में खतरनाक रासायनिक तत्त्व मिल जाते हैं जिनका असर पेड़ – पौधों और मानव जाति पर पड़ रहा है . पौधों में प्रकाश संशलेषण कि प्रक्रिया नहीं हो पाती है जिसका सीधा असर वायुमंडल में ऑक्सीजन के प्रतिशत पर पड़ रहा है . इतना ही नहीं, कुछ खतरनाक रासायनिक तत्त्व जैसे पारा, क्रोमियम , कैडमियम , सीसा, सिलिकॉन, निकेल, जिंक, मैंगनीज़, कॉपर, भूजल पर भी असर डालते हैं. जिन इलाकों में अवैध रूप से रीसाइक्लिंग का काम होता है उन इलाकों का पानी पीने लायक नहीं रह जाता।
असल समस्या ई-वेस्ट की रीसाइकलिंग और उसे सही तरीके से नष्ट (डिस्पोज) करने की है। घरों और यहां तक कि बड़ी कंपनियों से निकलनेवाला ई-वेस्ट ज्यादातर कबाड़ी उठाते हैं। वे इसे या तो किसी लैंडफिल में डाल देते हैं या फिर कीमती मेटल निकालने के लिए इसे जला देते हैं, जोकि और भी नुकसानदेह है। कायदे में इसके लिए अलग से पूरा सिस्टम तैयार होना चाहिए, क्योंकि भारत में न सिर्फ अपने मुल्क का ई-वेस्ट जमा हो रहा है, विकसित देश भी अपना कचरा यहीं जमा कर रहे हैं। सीएसई में इन्वाइरनमेंट प्रोग्राम के कोऑर्डिनेटर कुशल पाल यादव के मुताबिक, विकसित देश इंडिया को डंपिंग ग्राउंड की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं क्योंकि उनके यहां रीसाइकलिंग काफी महंगी है। हमारे यहां ई-वेस्ट की रीसाइकलिंग और डिस्पोजल, दोनों ही सही तरीके से नहीं हो रहे। इसे लेकर जारी की गईं गाइडलाइंस कहीं भी फॉलो नहीं हो रहीं।
याद रहे कि करीब 20 करोड़ लोग सीधे तौर पर प्रदूषित पर्यावरण में जीने को मजबूर हैं. भारी धातुओं से दूषित मिट्टी, हवा में घुलने वाले रासायनिक कचरे या फिर नदी के पानी में इलेक्ट्रॉनिक कबाड़ का बहाना. खतरे की घंटी बजाने वाले ये कुछ खतरनाक उदाहरण हैं जिन्हें ग्रीन क्रॉस फाउंडेशन की रिपोर्ट में बताया गया है। पश्चिम अफ्रीका के दूसरे सबसे बड़े इलेक्ट्रॉनिक कबाड़खाने में इस्तेमाल किए गए डिश एंटिना और टूटे टेलीविजन सेटों का अंबार लगा है. यह दुनिया की सबसे प्रदूषित जगहों में से एक है. कीमती तांबे को निकालने के लिए तारों को जलाया जाता है जिससे जहरीला धुआं उठता है. खास कर सीसे से सेहत को भारी खतरा रहता है। इंडोनेशिया की सीतारूम नदी में एल्यूमीनियम और लोहे की मात्रा पीने के पानी के मानदंड से 1,000 गुना ज्यादा है. इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं क्योंकि करीब 2,000 फैक्ट्रियां इस नदी के पानी का इस्तेमाल करती हैं और साथ ही कारखाने से निकलने वाला कचरा नदी के पानी में बहाया जाता है. इंडोनेशिया के लाखों लोग इस नदी पर निर्भर हैं। रूस के रासायनिक उद्योगों में सबसे महत्वपूर्ण केंद्रों में से एक जेयशिंस्क है. 1930 और 1980 के बीच यहां 3,00,000 टन रासायनिक कचरे का निपटारा किया गया. रासायनिक कचरे की वजह से यहां भू-जल के साथ साथ हवा भी प्रदूषित है. जेयशिंस्क में महिलाओं की औसत उम्र 47 साल है जबकि पुरुष 42 साल की उम्र में बूढ़े हो जाते हैं।
इसी तरह काबिले गौर है कि चेर्नोबिल के परमाणु हादसे को इतिहास की सबसे घातक परमाणु दुर्घटना माना जाता है. 25 अप्रैल 1986 को चेर्नोबिल परमाणु रिएक्टर में धमाका हुआ. आज भी चेर्नोबिल के 30 किलोमीटर के दायरे में कोई नहीं रहता है. परमाणु संयंत्र के पास की जमीन अब भी दूषित है. यहां अनाज पैदा करना जोखिम भरा काम है. चेर्नोबिल के नजदीक रहने वाले कई लोग कैंसर के शिकार हैं। बांग्लादेश के हजारीबाग में सबसे ज्यादा चमड़े के कारखाने हैं. इनमें से ज्यादातर कारखाने पुराने तरीके से काम करते हैं और रोजाना करीब 22,000 लीटर जहरीला कचरा बड़ीगंगा नदी में बहाते हैं. ये ढाका के सबसे महत्वपूर्ण पानी के स्रोतों में से एक है. कैंसरकारी पदार्थ के कारण कई लोग त्वचा की बीमारियों से पीड़ित हैं। जांबिया के दूसरे सबसे बड़े शहर काबवे में बच्चों के खून में भारी मात्रा में सीसा मिला है. यहां सदियों से सीसे की खानें हैं जिनसे भारी धातु धूल के कणों के रूप में निकलते हैं और जमीन में मिल जाते हैं।
कालीमंतन इंडोनेशिया के बोर्नियो द्वीप का हिस्सा है. यह सोने की खदानों के लिए मशहूर है. सोने की खदानें को खोजने को लिए यहां पारे का इस्तेमाल किया जाता है. इस कारण हर साल 1,000 टन जहरीले पदार्थ पर्यावरण और भू-जल में मिल जाते हैं। अर्जेंटीना की नदी मतांसा रियाचुएलो में करीब 15,000 कारखाने अपना कचरा बहाते हैं. विशेष रूप से रासायनिक उत्पादक नदी में एक तिहाई प्रदूषण के लिए जिम्मेदार माने जाते हैं. नदी के पानी में भारी मात्रा में निकेल, जस्ता, सीसा, तांबा और अन्य भारी धातु मिले हुए हैं. इस इलाके में पेट की कई तरह की बीमारियां आम हैं। यह नाईजीरिया के सबसे घनी आबादी वाले इलाकों में से एक है. नाईजीरिया की कुल आबादी का 8 फीसदी हिस्सा यहां रहता है. जहरीले तेल और हाइड्रोकार्बन की वजह से यहां की मिट्टी और भू-जल बेहद प्रदूषित हैं. तेल दुर्घटना या फिर चोरी के कारण औसतन हर साल यहां करीब 2,40,000 बैरल तेल पहुंचता है.
बहरहाल वेस्ट मैनेजमेंट बेशक एक बड़ी चुनौती है.
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लेखक दिग्विजय कालेज, राजनांदगांव में प्रोफ़ेसर हैं।