भीमा कोरेगांव की घटना को कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी लोग दलित और आदिवासियों पर हुए अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष के रूप में दर्शाने का प्रयास कर रहे है। सत्य यह है कि हमारे देश की कुछ विभाजन कारी मानसिकता को बढ़ावा देने वाली ताकतें अपना राजनीतिक भविष्य बनाने के चक्कर में देशवासियों को भड़काने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। इसके लिए चाहे उन्हें कोरेगांव की घटना का सहारा लेना पड़े। चाहे मनुस्मृति और ब्राह्मणवाद का जुमला उछालना पड़े। उनके इस दुष्प्रचार से कुछ दलित और आदिवासी (वनवासी) क्षेत्रों में रहने वाले युवा भ्रमित हो जाते हैं। भ्रमित युवाओं को न सत्य का ज्ञान होता है, न ही उन्हें इसे जानने का अवसर प्राप्त होता हैं।
कोरेगांव युद्ध में बलिदान हुए महार समाज के कुछ सिपाहियों की वीरता में अंग्रेजों ने स्मृति स्तम्भ बनवा दिया था। इस युद्ध में अगर अंग्रेजों की ओर से अंग्रेज सिपाही, महार सिपाही, राजपूत और ब्राह्मण तक लड़े थे। तो मराठा पेशवा की ओर से मराठा, राजपूत, मुस्लिम, गोसाईं, महार, मतंग और मंग जैसी दलित जातियों के लोग भी लड़े थे। अंग्रेजों की सेना में अगर महार अग्रिम टुकड़ी में थे तो मराठा सेना की अग्रिम पंक्ति में मुस्लिम सिपाही सबसे अधिक थे। तो क्या कोई इसे दलित-मुस्लिम युद्ध कहेगा? नहीं। कभी नहीं। फिर यह दुष्प्रचार क्यों कि कोरेगांव की घटना दलित महारों की ब्राह्मण पेशवाओं पर जीत थी।
यह युद्ध तो अंग्रेजों और भारतीयों के मध्य हुआ युद्ध था। ब्रिटिश काल में ऐसे अनेक युद्ध और संघर्ष हुए जिसमें अंग्रेजों ने भारतीयों का बड़े पैमाने पर दमन किया था। हम इस लेख में इतिहास में आदिवासी क्षेत्र में हुए तीन संघर्ष गाथाओं के माध्यम से यह सन्देश देना चाहेंगे कि अंग्रेजों का दमन की घटनाओं को जो लोग भुलाकर भारतीय समाज को सवर्ण और दलित/आदिवासी के रूप में चित्रित करने का प्रयास कर रहे हैं। उनका यह षड़यंत्र असफल हो जाये। क्यूंकि उनकी सोच केवल विघटनकारी है।सत्य इतिहास पर आधारित नहीं है।
1. बिरसा मुंडा का बलिदान
बिरसा मुंडा 19वीं सदी के एक प्रमुख आदिवासी जननायक थे। उनके नेतृत्व में मुंडा आदिवासियों ने 19वीं सदी के आखिरी वर्षों में मुंडाओं के महान आन्दोलन उलगुलान को अंजाम दिया। बिरसा को मुंडा समाज के लोग भगवान के रूप में पूजते हैं। सुगना मुंडा और करमी हातू के पुत्र बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को झारखंड प्रदेश मेंराँची के उलीहातू गाँव में हुआ था। साल्गा गाँव में प्रारम्भिक पढाई के बाद वे चाईबासा इंग्लिश मिडिल स्कूल में पढने आये। इनका मन हमेशा अपने समाज की ब्रिटिश शासकों द्वारा की गयी बुरी दशा पर सोचता रहता था। उन्होंने मुंडा लोगों को अंग्रेजों से मुक्ति पाने के लिये अपना नेतृत्व प्रदान किया। 1894 में मानसून के छोटानागपुर में असफल होने के कारण भयंकर अकाल और महामारी फैली हुई थी। बिरसा ने पूरे मनोयोग से अपने लोगों की सेवा की।
1 अक्टूबर 1894 को नौजवान नेता के रूप में सभी मुंडाओं को एकत्र कर इन्होंने अंग्रेजो से लगान माफी के लिये आन्दोलन किया। 1895 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी। लेकिन बिरसा और उसके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और अपने जीवन काल में ही एक महापुरुष का दर्जा पाया। उन्हें उस इलाके के लोग “धरती बाबा” के नाम से पुकारा और पूजा जाता था। उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी। 1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उसके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था। अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूँटी थाने पर धावा बोला। 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारियाँ हुईं।जनवरी 1900 डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक और संघर्ष हुआ था जिसमें बहुत से औरतें और बच्चे मारे गये थे। उस जगह बिरसा अपनी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे। बाद में बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ़्तारियाँ भी हुईं। अन्त में स्वयं बिरसा भी 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ़्तार कर लिये गये। बिरसा ने अपनी अन्तिम साँसें 9 जून 1900 को राँची कारागार में लीं।
2. टंटया भील का बलिदान
टंटया भील का जन्म 1824-27 के आसपास तत्कालीन मध्य प्रांत के पूर्वी निमाड़ ( खंडवा ) की पढ़ाना तहसील के गांव बडाडा में हुआ था। वह एक जननायक बागी था जिसने संकल्प लिया था कि देश से अंग्रेजी हुकूमत को किसी भी तरह उखाड़ फेकना है। टंटया भील केअदम्य साहस और विदेशी शासन को उखाड़ फेकने के जुनून ने उसे आम जनता और आदिवासियों का प्रिय बना दिया।
टंटया की वीरता और अदम्य साहस से तात्या टोपे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उसेे गुरिल्ला युद्ध में पारंगत बनाया। इसी वजह से वह 12 वर्षों तक पकड़ा नहीं जा सका। टंटया चीते की फूर्ति के साथ अंग्रेजी सैन्य छावनियों में घुसकर उनका खजाना लूट लिया करता था। फूर्ति इतनी कि अंग्रेज मानने लगे कि एक नहीं चार टंटया हैं जो एक ही समय में चार स्थानों पर खजाने लूट लेते हैं। लूटे गये खजाने की अंतिम पाई तक गरीबों और जरूरतमंदों को दे दी जाती थी। इसीलिये टंटया भील की गिरफ्तारी की खबर प्रमुखता से 10 नवंबर , न्यूयॉर्क टाइम्स, 1889 के अंक में प्रकाशित हुयी जिसमें उन्हें भारत के रॉबिन हुड के रूप में वर्णित किया गया था ।
पुलिस ने मुखबिरी के चलते जालसाजी से उसे गिरफ्तार कर लिया। मुखबिर को तो टंटया ने मार डाला।सख्त पुलिस पहरे और भारी लोहे की जंजीरों से बांधकर जबलपुर की जेल में उसपर अमानवीय अत्याचार किये गये।सत्र न्यायालय , जबलपुर, ने 19 अक्टूबर 1889 के दिन फांसी की सजा सुनाई और 4 दिसंबर को फांसी दे दी गयी। अंग्रेंजों ने भयवश फांसी के बाद वीर बलिदानी टंटया के शव को चुपके से रात के अंधेरे में इंदौर के महू कस्बे के जंगलों में खंडवा रेल मार्ग पर पातालपानी रेलवे स्टेशन के पास फेंक दिया। वहीं उसकी समाधि मंदिर है जहां आज भी सभी रेल चालक रूक कर उसे श्रध्दासुमन अर्पित करते हैं।
3. गोविन्द गुरु और मानगढ़ के शहीद
गुजरात से आकर राजपुताना की डूंगरपुर स्टेट के गाँव बड़ेसा (बंसिया ) में बसे बंजारा परिवार में 20 दिसम्बर 1858 को एक बालक पैदा हुवा जिसका नाम गोविंदा रखा गया। अपनी छोटी उम्र में ही गोविंदा इदर ,पालनपुर, सिरोही, प्रतापगढ़, मंदसोर, मालवा और मवाद के दूर तक गाँवो में घूम घूम कर गोविंदा ने आदिवासियों को बेहद निर्धन गरीब हालत को देखा। तो उसके मन में समाज सुधार की भावना जागृत हुई। उसी काल में राजस्थान में प्रवास कर रहे आर्यसमाज के प्रवर्तक एवं वेदों के महाविद्वान स्वामी दयानन्द से उनकी भेंट हुई। स्वामी दयानन्द के आदेशानुसार उन्होंने उनके समीप रहकर उन्होंने यज्ञ-हवन एवं वेदों की शिक्षा प्राप्त की। स्वामी दयानन्द का उद्देश्य उनके माध्यम से बंजारा कुरीतियों, पाखंडों और नशे आदि अन्धविश्वास में फंसा हुआ था। उसे छुड़वाकर उनमें जाग्रति लाना था।
बंजारा समाज में उन्हें अपना गुरु बनाया गया। तब से उनका नाम गोविन्द गिरी हुवा। आपने बंजारा समाज में समाज सुधार का कार्य आरम्भ किया जो अंग्रेजों को नहीं सुहाया। अंग्रेज भारतीयों को पिछड़ा और पीड़ित ही रखना चाहते थे। उन्हें अनेक प्रकार से रोकने की कोशिशे की गई। आदिवासी राजस्थान मेँ डूँगरपुर,बाँसवाड़ा और गुजरात सीमा से लगे पँचायतसमिति गाँव भुकिया (वर्तमान आनन्दपुरी) से 7 किलोमीटर दूर ग्राम पँचायत आमदरा के पास मानगढ़ पहाड़ी पर 17 नवम्बर,1913 (मार्ग शीर्ष शुक्ला पूर्णिमा वि.स. 1970) को गोविन्द गुरू का जन्मदिन बनाने के लिए बंजारा वनवासी समाज एकत्र हुआ।
अंग्रेजों ने इसे राजद्रोह का बहाना बनाकर मानगढ़ के पहाड़ी को घेर लिया। गोविन्द गुरु वहां यज्ञ,हवन एवं धर्मोपदेश करने के लिए आये थे। अंग्रेज कर्नल शैटर्न की अगुवाई में निहत्थे बंजारों पर गोलीबारी कर जनसंहार को अंजाम दिया गया। मानगढ़ पहाड़ी पर विदेशी हुकूमत के इशारे पर गोविन्द गुरु के नेतृत्व में जमा देशभक्त सपूत गुरुभक्तों पर तोपों और बंदूकों की गोलियों से किए गए हमले के बाद मानगढ़ की पहाड़ी के रक्तस्नान के मंजर का वर्णन रोंगटे खड़़े करता है। सरकारी आंकड़ो के अनुसार 1503 आदिवासी शहीद हुए। कुछ अन्य सूत्रों के अनुसार यह संख्या बहुत अधिक थी। गोविन्द गुरु व उनके शिष्यों को गिरफ्तार कर लिया गया। उनको फांसी की सजा सुनाई गई लेकिन संभावित जनविद्रोह को देखते हुए बीस साल की सजा में बदल दिया गया । उच्च न्यायालय में अपिल पर यह अवधि 10 वर्ष की गई। लेकिन बाद मे 1920 में रिहा कर उन पर सुँथरामपुर (संतरामपुर), बांसवाड़ा, डुँगरपुर एवं कुशलगढ़ रियासतों में प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। मानगढ़ की घटना को राजस्थान का जलियांवाला बाग भी कहा जाता है।
अंग्रेजों के अत्याचारों के ये केवल तीन प्रचलित ऐतिहासिक घटनाएँ हैं। ऐसे हज़ारों सुनी और अनसुनी घटनाएं इतिहास के गर्भ में सुरक्षित हैं। अंग्रेजों ने सभी पर अत्याचार किया। जिन पर अत्याचार हुआ वो ब्राह्मण या दलित या आदिवासी नहीं थे अपितु भारतीय थे। वो सभी अपने थे और अंग्रेज पराये अत्याचारी शासक थे। आप इस सत्य इतिहास को कभी बदल नहीं सकते। इन तथ्यों की अनदेखी कर अंग्रेजों को श्रेष्ठ और अपने राजाओं को निकृष्ट बताने वाले इन अवसरवादी राजनीतिज्ञों को आप केवल देश-विरोधी नहीं तो क्या कहेंगे।
(लेखक एतिहासिक व धार्मिक विषयों पर लिखते हैं)