राजस्थान में कांग्रेस की हार के बाद मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने इस्तीफा दे दिया है। राज्यपाल कलराज मिश्र ने उन्हें अगली सरकार बनने तक कार्यवाहक मुख्यमंत्री बने रहने को कहा है। गहलोत के इस्तीफे का कारण यही है कि राजस्थान में राज बदल गया मगर रिवाज नहीं बदला। राज बदलते ही मुख्यमंत्री का इस्तीफा वाजिब था। हालांकि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कह रहे थे कि न तो राजस्थान में राज बदलेगा और न ही रिवाज बदलेगा। उनका मतलब था कि कांग्रेस की सरकार फिर आएगी और हर पांच साल में सत्ता परिवर्तन का जो रिवाज है वह इस बार बदल जाएगा। मगर, ऐसा नहीं हो सका। राजनीति में वैसे भी नेता के मन का होता कहां है, होता तो आखिर वही है जो जनता चाहती है। जनता ने चाहा और राज बदल गया। कांग्रेस चली गई, और गहलोत भी जा रहे हैं। नई सरकार के शपथ लेते ही वे भी भूतपूर्व हो जाएंगे।
राजस्थान के राजनीतिक परिदृश्य को सही मायने में देखा जाए तो विधानसभा चुनाव के नतीजों में कुछ भी नया नहीं हैं। तीन दशक से राजस्थान में हर पांच साल में सरकार को घर बिठाने की परंपरा रही है। एक बार कांग्रेस तो दूसरी बार बीजेपी। बारी-बारी से दोनों पार्टियों को लोग सरकार में लाते रहे हैं। हालांकि, राजस्थान के मुख्यमंत्री के रूप में अपने तीसरे कार्यकाल में गहलोत ने समाज के हर वर्ग के लिए सरकार का खजाने खोल कर कुछ अलग तरह की जादूगरी दिखाने के सारे प्रयास किए, लेकिन उनके मंत्रियों व विधायकों के भ्रष्टाचार का कारण उनका जादू हर स्तर पर लगातार फेल होता ही नजर आया। हालांकि, गहलोत हर संभव कोशिश करते रहे।
सरकारी कर्मचारियों को पुरानी पेंशन योजना का लाभ देकर एक बड़े वर्ग को साधने के लिए सरकार के दांव को परफेक्ट समझना कहीं न कहीं बड़ी गलती रही, क्योंकि सरकारी कर्मचारियों ने ही उनको वोट नहीं दिया। फिर महिला सशक्तिकरण के नाम पर योजनाओं और धन लक्ष्मी जैसी योजनाओं का भी असर ग्राउंड स्तर पर ज्यादा लाभकारी साबित नहीं हो सका, क्योंकि सरकार की योजनाओं को जनता तक पहुंचाने वाले कार्यकर्ता कांग्रेस के पास नहीं थे। सही मायने में देखें, तो जनता को जो सबसे बड़ा लाभार्थी तबका, जिसको लेकर कांग्रेस आश्वस्त थी कि वह उसी को वोट देगा, वही साथ छोड़कर बीजेपी के साथ खड़ा हो गया और कांग्रेस उसे समझ भी नहीं सकी।
राजस्थान में कांग्रेस के 30 विधायक कम पड़ गए हैं। पिछली विधानसभा में 99 थे मगर अब 69 ही जीते हैं। खास बात यह है कि कांग्रेस सरकार के 17 मंत्रियों सहित मुख्यमंत्री के पांच सलाहकार भी चुनाव हार गए हैं। ये सभी 17 मंत्री, गोविन्द राम मेघवाल, भंवर सिंह भाटी, रमेश मीणा, परसादी लाल मीणा, विश्वेन्द्र सिंह, प्रताप सिंह खाचरियावास, ममता भूपेश, शकुंतला रावत, राजेंद्र यादव, बीडी कल्ला, सालेह मोहम्मद, राम लाल जाट, सुखराम विश्नोई उदयलाल आंजना, जाहिदा खान, प्रमोद जैन भाया और भजन लाल जाटव राजस्थान सरकार में काफी महत्वपूर्ण विभाग के मुखिया थे, तथा गहलोत सरकार के ताकतवर नेता थे। मगर प्रदेश की जनता ने उन्हें हरा दिया। इनके अलावा विधानसभा अध्यक्ष सीपी जोशी और पूर्व मंत्री रघु शर्मा भी चुनाव हार गए। यह बेहद चौंकाने वाली बात है कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की जो सरकार अपने विकास व जनसेवा के कार्यों को जबरदस्त अभियान के तहत जनता तक ले गई, उसी सरकार के 17 मंत्री, पांच सलाहकार व दस बड़े नेता चुनाव हार गए।
देखा जाए, तो गहलोत अपने इस बार के पांच साल के कार्यकाल में सबसे पहले तो अपने साथी सचिन पायलट से जूझते रहे, फिर लगभग डेढ़ साल तक कोरोना से जूझे, एक के बाद एक घोषणाओं और योजनाओं के दौर चले। जमता को अपनी योजनाओं से लाभ पहुंचाने की कोशिश करते हुए वे अपनी हर कोशिश करते रहे। इसे इन शब्दों में भी कहा जा सकता है कि गहलोत ने एक तरह से अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया, जिसके लिए उन्होंने सरकारी खजाने के खाली होने की भी परवाह नहीं की। खासकर एक के बाद एक योजनाओं के जरिए महिला सशक्तिकरण और पिछड़े इलाकों के विकास के लिए जमीनी स्तर पर काम भी बहुत बड़े पैमाने पर किया गया। मगर कांग्रेस को समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर उससे चूक कहां हो गई, जो राजस्थान की जनता उसके बजाय बीजेपी को बहुमत देकर उसके साथ खडी हो गई।
कांग्रेस में कांग्रेस को सत्ता से खदेड़ने के कारण तलाशे जा रहे हैं। क्या कांग्रेस की अंदरूनी कलह पार्टी के लिए हुरी हार का कारण बनी, या पार्टी का लचर संगठन हारने के लिए जिम्मेदार रहा, या फिर राज्य की जनता को नए नेतृत्व की चाह थी। क्या बाबा बालकनाथ के नाम पर यूपी की तरह राजस्थान में भी योगी फैक्टर चला या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में जनता का अटूट विश्वास था और या फिर वसुंधरा राजे पर एक बार फिर लोगों ने विश्वास जताया। कांग्रेस समझ ही नहीं पा रही है कि उसको सत्ता से बेदखल क्यों होना पड़ा। इन सारे ही सवालों में सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर क्यों इतना सब करने के बाद भी कांग्रेस की हालत इतनी खराब हुई।
दरअसल, कांग्रेस की अंतर्कलह से प्रदेश की जनता खुद ही परेशानी में थी। लगातार पांच साल तक सचिन पायलट के सीएम बनने के सपने ने कांग्रेस को जिस कलह तक पहुंचाया, और गहलोत के कुर्सी बचाने के द्वंद को इतना ताकतवर बना दिया कि गहलोत जैसा सहज, सरल व सदाशयी नेता भी जनता को पदलोलुप नजर आने लगा। इस चुनाव से पहले गहलोत की छवि ऐसी कभी नहीं रही। फिर, सबसे बड़ा कारण रहा उनके मंत्रियों व विधायकों के भारी भ्रष्टाचार का बीजेपी ने हर स्तर पर कांग्रेस के भ्रष्टाचार को लोगों तक पहुंचाया और यह सुनिश्चित किया कि लोग उस हर बात को समझें कि कांग्रेस के भ्रष्ट विधायक जनता को किस तरह से लूट रहे हैं। उधर, सरकार भी जनता के काम व परेशानियों को जनता को भूल कांग्रेस के अंदरूनी झगड़े को सुलझाने में वक्त जाया करती रही, इसका सीधा फायदा बीजेपी को हुआ।
कांग्रेस की हार का एक जो सबसे बड़ा कारण रहा, वह यह भी कहा जा सकता है कि कांग्रेस के राजस्थान के चुनाव में पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व का कोई उत्साह नहीं दिखा। राहुल गांधी तो बोलते-बोलते अपनी ही पार्टी की सरकार के जाने तक की बात बोल गए थे। हालांकि राहुल के कहने से राजस्थान में वोट नहीं पड़ते, पर वे भी निराशा में प्रचार करने भी ऐन मौके पर ही पहुंचे। कांग्रेस का प्रचार अभियान जनतो में जोर पकड़ ही नहीं सका, क्योंकि उसके सारे बड़े नेता अपनी सीट बचाने में ही उलझे रहे। मगर, चुनाव से कुछ समय पहले लगातार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैलियों ने भी बीजेपी के पक्ष में जबरदस्त हवा बनाई। जबकि कांग्रेस एक कदम पीछे दिखी और पार्टी के बड़े नेताओं की गैर मौजूदगी लोगों को हर स्तर पर परेशान करती रही और लगने लगा कि कांग्रेस हार रही है, जो कि सही साबित हुआ और राजस्थान में कांग्रेस बुरी तरह हार गई। मगर, सवाल यह है कि इस हार से कांग्रेस कोई सबक लेगी?
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)