मध्यप्रदेश के पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव द्वारा महिलाओं को अपने शराबी पति की कपड़ों को पीट कर धोने की ‘मोगरी’ से पिटाई करने की नसीहत देना एवं एक सार्वजनिक सामूहिक विवाह समारोह अपनी ओर से वहां मौजूद सात सौ नई दुल्हनों को ‘मोगरी’ भेंट किया जाना न केवल कानून व्यवस्था की अवहेलना है बल्कि हिंसा को प्रोत्साहन देना भी है। जबकि महिलाओं के उत्पीड़न या उनके खिलाफ हिंसा से निपटने के लिए घरेलू हिंसा विरोधी कई कानून हैं। इस तरह एक जिम्मेदार जनप्रतिनिधि एवं मंत्री के द्वारा कानून को हाथ में लेने की सलाह देना शर्मनाक है। जबकि ऐसे लोगों की जिम्मेदारी होती है कि वे लोगों को गैरकानूनी आचरण करने या किसी भी स्थिति में कानून अपने हाथ में लेने से रोकें और ऐसा करने वालों को कठघरे में खड़ा करें। इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि सरकार का हिस्सा होने के बावजूद कानून-व्यवस्था के सुचारु रूप से काम करने में सहयोग देने की बजाय वे लोगों को कानून हाथ में लेने की सलाह दे रहे हैं!
हिंसा तो हर दृष्टि से निन्दनीय है, भले ही वह पुरुष करें या स्त्री। हिंसा का जबाव हिंसा, नफरत का जबाव नफरत एवं द्वेष का जबाव द्वेष से देने से समस्याएं सुलझने की बजाय उलझती ही जाती है। भारत एक अहिंसाप्रधान देश है। अहिंसा मानवीय जीवन की कुंजी है, अतः इसका सामयिक और इहलौकिक ही नहीं, अपितु सार्वकालिक एवं सार्वदेशिक महत्व है। किसी भी विषम परिस्थिति में हिंसा की क्रियान्विति तो दूर, उसका चिन्तन भी भारतीय संविधान एवं संस्कृति दोनों के ही खिलाफ है। समाज के किसी भी हिस्से में कहीं कुछ भी जीवन मूल्यों के विरुद्ध होता है तो हमें यह सोचकर निरपेक्ष नहीं रहना चाहिए कि हमें क्या? गलत देखकर चुप रह जाना भी अपराध है। कभी अति उत्साह में की जाने वाली गलतियां भी अपराध का सबब बन जाती है। इसलिये बुराइयों से पलायन नहीं, उनका परिष्कार जरूरी है। ऐसा कहकर हम अपने दायित्व और कत्र्तव्य को विराम न दें कि सत्ता एवं शासन में तो आजकल यूं ही चलता है। चिनगारी को छोटी समझकर दावानल की संभावना को नकार देने वाला जीवन कभी सुरक्षा नहीं पा सकता। अगर कोई पुरुष शराब पीकर अवांछित आचरण करता है तो क्या उसका हल यह है कि सरकार किसी को उसकी पिटाई की खुली छूट दे दे? हैरान करती है इस तरह की बातें। उन ‘मोगरियों’ पर लिखा संदेश तो और भी विडम्बनापूर्ण है कि ‘शराबियों के सुटारा (पीटने) हेतु भेंट, पुलिस नहीं बोलेगी!’ इससे तो सामाजिक एवं पारिवारिक संवेदनशीलता का स्रोत ही सुख जायेगा। इस तरह की संवेदनशीलता के अभाव में हमारेे बीच करुणा क्रूरता में बदलती जायेगी। हमें सोच बदलनी है, संवेदनाओं को नहीं। पुरुष शराब पीकर महिलाओं पर अत्याचार न करें, इस सोच को विकसित करना है।
क्या इस तरह की हरकत सरकार में एक जिम्मेदार मंत्री के पद को संभालने वाले किसी व्यक्ति के लिए शोभनीय हैं? क्या कानून-व्यवस्था पर इसके असर का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है? फिर अगर उनकी सलाह पर महिलाएं अमल करना शुरू करती हैं तो उसका सामाजिक प्रभाव किस रूप में सामने आएगा? अगर कोई व्यक्ति शराब पीकर हंगामा करता है, अपनी पत्नी, घर के सदस्य या किसी बाहरी व्यक्ति के भी खिलाफ हिंसा या अमर्यादित आचरण करता है तो उससे मौजूदा कानूनी प्रावधानों के तहत नहीं, बल्कि मंत्रीजी के फार्मूले से निपटा जा सकता है? लेकिन प्रश्न यह है कि इससे समाज हिंसा एवं अराजकता की ओर ही बढ़ेगा। घर की ही नहीं बल्कि समाज की भी शांति भंग होगी। हर घर में हर दिन मोगरी संग्राम देखने को मिलेगा, पुरुष बात-बात पर पिटता हुआ नजर आयेगा। कैसे-कैसे मंत्री और कैसी-कैसी सोच? स्वयं को स्थापित कर औरों को बौनापन देने वाले इस प्रदूषित सोच को किसी भी कोण से जायज नहीं माना जा सकता।
मंत्रीजी ने एक हिंसक विचार से क्रांति लाने का सुगम रास्ता चुना। लेकिन इस तरह के विचार कितने बड़े सामाजिक विघटन एवं बिखराव का कारण बन सकते हैं? शेक्सपियर ने कहा था कि दुनिया में कोई चीज अच्छी या बुरी नहीं होती। अच्छा या बुरा सिर्फ विचार होता है।’ हम कैसे हैं? इसकी पहचान हमारे विचार हैं, क्योंकि विचारों की बुनियाद पर ही खड़ी होती है हमारे कर्तृत्व की ईमारत और यही अच्छे या बुरे चरित्र की व्याख्या है। मंत्रीजी भूल गये है कि हिंसा किसी भी शक्ल में हो, वह अपराध ही है। पुरुषों की अन्यायपूर्ण या यातनापूर्ण स्थितियों को नियंत्रित करने के लिये कानून पर अमल सुनिश्चित कराने के बजाय अगर उससे हिंसक तरीके से निपटने की सलाह दी जाती है तो उसका समर्थन किस आधार पर किया जा सकता है? इस तरह की सलाह पर अमल करने से पैदा होने वाले तनाव के हालात के अलावा भेंट में मिली ‘मोगरी’ की पिटाई से अगर कोई जख्मी हो जाए या उसकी मौत जैसा हादसा हो जाए तो वैसी स्थिति में गोपाल भार्गव आरोपी को पुलिस की कार्रवाई से किस तरह से मुक्ति दिलायेंगे? मंत्रीजी ऐसा कोई सुझाव देते या फार्मूला प्रस्तुत करते जिससे कोई पुरुष शराब नहीं पिए या पीकर पत्नी को यातना न दे, तो यह एक सूझबूझवाला कार्य होता। अक्सर राजनीति वाले लोग वाह-वाही लूटने एवं समाज का मसीहा बनने की तथाकथित दौड़ में शामिल होने के लिये ऐसे ही अतिश्योक्तिपूर्ण कार्य कर जाते हैं जो समाज का विकास करने की बजाय विनाश का कारण बनते हैं।
अक्सर ऐसा देखा जाता है कि महिलाओं पर ज्यादा अत्याचार होते हैं, जबकि कई मामलों में पुरूष भी घरेलू हिंसा कि शिकार होते हैं और महिलाएं पुरुषों पर अत्याचार करती हैं। ‘पत्नी सताए तो हमें बताएं’ जैसे विज्ञापनों को एक समय अतिरंजना के तौर पर देखा जाता था, लेकिन पिछले कुछ समय के आंकड़ों ने इस धारणा को बदल दिया है कि सिर्फ महिलाएं ही घरेलू हिंसा का शिकार बनती हैं। अब सिक्के का दूसरा पहलू सामने आया है, जिसमें पुरुषों को भी घर या समाज में किसी-न-किसी प्रकार की शारीरिक, मानसिक या आर्थिक हिंसा का सामना करना पड़ रहा है। पुरुषों को इस बात को लेकर मलाल है कि उनकी इन शिकायतों का न तो कहीं निपटारा हो रहा है और न ही समाज उनकी इन शिकायतों को स्वीकार कर रहा है। घरेलू हिंसा के शिकार होने वाले पुरुषों के लिए काम करने वाली संस्था ‘सेव इंडियन फैमिली फाउंडेशन’ के प्रतिनिधि प्रकाश जुगनाके इसकी गंभीरता को कुछ ऐसे बताते हैं कि तस्वीर का सबसे भयावह पहलू यह है कि पुरुषों के खिलाफ होने वाली हिंसा की बात न तो कोई मानता है और न ही पुलिस इसकी शिकायत दर्ज करती है। इस सबसे परेशान होकर कई बार पुरुष बेबसी में आत्महत्या जैसा कदम उठाने को भी मजबूर हो जाते हैं। जुगनाके ने कहा कि महिलाओं के पास कानून का कवच है, जिसका खुलकर दुरुपयोग हो रहा है। इस बात को अब स्वीकार भी किया जा रहा है, लेकिन स्थिति यथावत है।
सुप्रीम कोर्ट ने भी पिछले दिनों एक मामले की सुनवाई के दौरान घरेलू हिंसा के शिकार पुरुषों की स्थिति को समझते हुए कहा कि महिलाएं दहेज विरोधी कानून का दुरुपयोग कर रही हैं और सरकार को इस कानून पर एक बार फिर नजर डालने की जरूरत है। न्यायमूर्ति दलवीर भंडारी और न्यायमूर्ति के. एस. राधाकृष्णन की खंडपीठ ने धारा 498 ए, के दुरुपयोग की बढ़ती शिकायतों के मद्देनजर कहा था कि कई ऐसी शिकायतें देखने को मिली हैं, जो वास्तविक नहीं होतीं और किसी खास उद्देश्य को लेकर दायर की जाती हैं। पुरुष इस समस्या से निपटने के लिए किसका सहारा लें? सेव फैमिली फाउंडेशन और माइ नेशन फाउंडेशन ने एक ऑनलाइन सर्वेक्षण किया था। इस सर्वेक्षण में शामिल लगभग एक लाख पुरुषों में से 98 फीसदी पुरुष किसी-न-किसी तौर पर घरेलू हिंसा का शिकार बन चुके थे। इसमें आर्थिक, शारीरिक, मानसिक और यौन संबंधों के दौरान की जाने वाली हिंसा के मामले शामिल थे।
पुरुषों के लिये कोई कानून नहीं है जबकि महिलाओं के उत्पीड़न या उनके खिलाफ हिंसा से निपटने के लिए घरेलू हिंसा विरोधी कानून से लेकर कई कानून हैं। मगर इनका सहारा लेने के लिए महिलाओं को जागरूक बनाने और उनके सशक्तीकरण के लिए उचित सलाह देना मंत्री महोदय को जरूरी नहीं लगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि पुरुषों का शराब पीकर बेलगाम हो जाना आज आम महिलाओं के सहज जीवन के सामने एक बड़ी समस्या के रूप में सामने है। इस पर काबू पाने के लिए सरकार के स्तर पर कदम उठाए जाने चाहिए। प्रेषकः
(ललित गर्ग)
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