8 मार्च – अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष
निर्भया के साथ हुए तीन साल पहले हुए दर्दनाक और मानवता के लिए शर्मनाक हादसे की प्रतिक्रिया में भारत सरकार ने पहले 3000 करोङ का ’निर्भया फंड’ बनाया और फिर बाल न्याय कानून के तहत् बालिग होने की उम्र घटाकर 16 वर्ष कर दी.
किंतु क्या मृत निर्भया को न्याय मिला ?
क्या इस क्रिया-प्रतिक्रिया को आधार बनाकर, नारी सशक्तिकरण की कोई योजना बनाई जाये, तो वह सशक्त होगी ?
भ्रूण हत्या और नारी हिंसा आदि के कारणों की बाबत् आम धारणा और आंकङों से उजागर हकीकत में भिन्नता सचमुच चौकाने और चेताने वाली है।
बहुत संभव है कि नारी सशक्तिकरण के नीतिकारों को इससे नई नीति तय करने में मदद मिले। बदलते भारतीय परिदृश्य पर व्यापक मनोवैज्ञानिक दृष्टि डालने से भी नारी सशक्तिकरण की जरूरत और महत्व को समझने में मदद मिल सकती है।
निर्भया के साथ जो हुआ, वह दुखद है; काला धब्बा है, किंतु उसकी प्रतिक्रिया में जो हुआ, क्या वह वाकई इस बात की गारंटी है कि आगे से हर निर्भया, अपने नाम के अनुरूप भयरहित जीवन का पर्याय बन सकेगी ? क्रिया की प्रतिक्रिया को आधार बनाकर निर्भया के नाम पर दो निर्णय हुए: पहला, तीन हजार करोङ का निर्भया कोष बना। निर्भया कोष में आये धन के खर्च के लिए गृह मंत्रालय ने केन्द्रीय पीङिता मुआवजा कोष बनाया। सङक, यातायात एवम् राजमार्ग मंत्रालय की ’सार्वजनिक वाहन नारी सुरक्षा परियोजना’ बनाई। महिला एवम् बाल विकास मंत्रालय की दो योजना /परियोजना अस्तित्व में आईं हैं: पहली, महिला सहायता हेतु टेलीफोन हेल्पलाइन सेवा को पूरे देश में सुलभ बनाना तथा दूसरी, ’वन स्टाॅप सेंटर स्कीम’। दूसरा प्रतिक्रियात्म्क निर्णय, निर्भया के दोषियों के नाबालिग दोषी को तीन वर्ष से अधिक बाल सुधार गृह में न रख पाने की प्रतिक्रिया स्वरूप हुआ। अपराधी को बालिग माने जाने की उम्र 18 से घटाकर 16 कर दी गई। प्रतिक्रिया में एक और बयान आया श्रीमती मेनका संजय गांधी का – ’’भ्रूण लिंग जांच की आज़ादी ही नहीं, बल्कि अनिवार्यता होनी चाहिए।’’
भ्रम और सत्य
यहां विचारणीय प्रश्न यह है कि यदि इस क्रिया-प्रतिक्रिया को आधार बनाकर, नारी सशक्तिकरण की योजना बनाई जाये, तो वह कितनी सशक्त होगी ? महिलाओं के साथ अत्याचार, असमानता और यौन हिंसा के कारण क्या सचमुच निरक्षता, दहेज और कानून की कमजोरी ही है ? समाधान पाने के लिए प्रश्न कीजिए कि हम क्या करें ? भारत में साक्षरों की संख्या बढ़ायें, दहेज के दानव का कद घटायें, अवसर बढ़ाने के लिए नारी आरक्षण बढ़ायें, विभेद और नारी हिंसा रोकने के लिए नये कानून बनायें, सजा बढ़ायें या कुछ और करें ? यदि इन कदमों से बेटा-बेटी अनुपात का संतुलन सध सके, बेटी हिंसा घट सके, हमारी बेटियां सशक्त हो सकें, तो हम निश्चित तौर पर ये करें। किंतु आंकङे कुछ और कह रहे हैं और हम कुछ और। आंकङे कह रहे हैं कि यह हमारे स्वप्न का मार्ग हो सकता है, ंिकंतु सत्य इससे भिन्न है। सत्य यह है कि साक्षरता और दहेज का लिंगानुपात से कोई लेना-देना नहीं है। आंकङे देखिए:
साक्षरता और लिंगानुपात: बिहार, भारत का न्यनूतम साक्षर राज्य है। तर्क के आधार पर तो प्रति बेटा, बेटियों की न्यूनतम संख्या वाला राज्य बिहार को होना चाहिए, जबकि देश में न्यूनतम लिंगानुपात वाला राज्य हरियाणा है। हालांकि दिसम्बर, 2015 के आंकङों मंे हरियाणा में बेटा: बेटी लिंगानुपात 1000: 903 बताया गया है, किंतु 2011 की गणना के मुताबिक, हरियाणा में बेटी: बेटा लिंगानुपात 1000: 835 था और बिहार में 1000: 935। बिहार का यह लिंगानुपात, उससे अधिक साक्षर हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, लक्षद्वीप, महाराष्ट्र राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश, पंजाब, रियाणा और दिल्ली से भी ज्यादा है। दिल्ली की बेटा-बेटी.. दोनो वर्गों की साक्षरता, राष्ट्रीय औसत से काफी अधिक है, किंतु लिंगानुपात राष्ट्रीय औसत (919) से काफी कम यानी 871 है।
2001 की तुलना में 2015 में देश के सभी राज्यों का साक्षरता प्रतिशत बढ़ा है, किंतु लिंगानुपात में बेटियों की संख्या वृद्धि दर सिर्फ केरल, मिजोरम, लक्षद्वीप, तमिलनाडु, कर्नाटक, गोवा, अरुणांचल प्रदेश, पंजाब, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल, चंडीगढ़, दिल्ली, अंडमान-निकोबार में ही बढ़ी है। लक्षद्वीप ने सबसे ऊंची छलांग मारी। गौर कीजिए कि ये ये वे राज्य भी नहीं हैं, 2001-2011 के दौरान जिन सभी की अन्य राज्यों की तुलना मंे साक्षरता अधिक तेजी से बढ़ी हो। एक और विरोधाभासी तथ्य यह है कि बिहार में ज्यों-ज्यों साक्षरता प्रतिशत बढ़ रहा है, त्यों-त्यों लिंगानुपात में बालिकाओं की संख्या घट रही है। वर्ष 2001 में दर्ज 942 की तुलना में 2011 में यह आंकङा 935 पाया गया। ये आंकङे शासकीय हैं; सत्य हैं; साबित करते हैं कि साक्षरता और लिंगानुपात, दो अलग-अलग घोङे के सवार हैं।
दहेज और लिंगानुपात: बेटियों की भू्रण हत्या का दूसरा मूल कारण, दहेज बताया जाता है। यदि यह सत्य होता, तो भी बिहार में लिंगानुपात पंजाब-हरियाणा की तुलना में कम होना चाहिए था। आर्थिक आंकङे कहते हैं कि पंजाब-हरियाणा की तुलना मंे, बिहार के अभिभावक दहेज का वजन झेलने में आर्थिक रूप से कम सक्षम है। अब प्रश्न है कि यदि भ्रूण हत्या का कारण अशिक्षा और दहेज नहीं, तो फिर क्या है ? बेटियों की सामाजिक सुरक्षा में आई कमी या नारी को प्रतिद्वन्दी समझ बैठने की नई पुरुष मानसिकता अथवा बेटियों के प्रति हमारे स्नेह में आई कमी ? कारण की जङ, कहीं किसी धर्म, जाति अथवा रूढि़ में तो नहीं ? कहीं ऐसा तो नहीं कि औपचारिक साक्षरता में आगे निकल जाने की होङ में हम संवेदना, संबंध और संस्कार की दौङ में इतना पिछङ गये हैं कि मां-बाप ही नहीं, बेटियों को भी इस धरा पर बोझ मानने लगे हैं ?? सोचें!
खैर, अभियानों से भी बात बन नहीं रही। बेटियों की सुरक्षा और सशक्तिकरण के लिए गुजरात में बेटी बचाओ, कन्या केलवणी, मिशन मंगलम्, नारी अदालत, चिरंजीव योजना जैसे यत्न हुए। स्वयं सुरक्षा के लिए गुजरात मंे ’पडकार’ कार्यक्रम चले। अब तो देश के सभी राज्यों में ऐसे प्रयत्नों की शुरुआत हो चुकी है। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने भी ’बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ संकल्प को प्राथमिकता के तौर पर नीति तंत्र, क्रियान्वयन तंत्र और देशवासियों के सामने रख दिया है। तमन्ना है कि नतीजा निकले, किंतु क्या यह इतना सहज है ?
वैसे नारी सशक्तिकरण के लिहाज से कभी सोचना यह भी चाहिए कि भ्रूण हत्या गलत है, किंतु क्या लिंगानुपात में बालिकाओं की संख्या का एक सीमा तक घटना वाकई नुकसानदेह है ? अनुभव क्या हैं ? भारत के कई इलाकों में बेटी के लिए वर नहीं, बल्कि वर के लिए वधु ढूंढने की परम्परा है। ऐसी स्थिति में बेटी पक्ष पर दहेज का दबाव डालने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। नारी सशक्तिकरण के लिए यह अच्छा है कि बुरा ? सोचिए! शायद लिंगानुपात की इसी उलट-फेर से दहेज के दानव के दांत तोङने मंे मदद मिले। आइये, अब अगले भ्रम से रुबरु हों।
शिक्षा और यौन हिंसा: मेरा मानना है कि संवेदना, संबंध, समभावी और सहभागी संस्कार के बगैर, साक्षरता उस अग्नि के समान है, जो स्वयं की लपट के लिए, दूसरे को भस्म करने में संकोच नहीं करती और दूसरे के भस्म होने के साथ एक दिन स्वयं भी भस्म हो जाती है। संभवतः यही कारण है कि कोरी शिक्षा, नारी सशक्तिकरण के लिए प्रेरित करने में सक्षम नहीं है। यदि वर्तमान शिक्षा सचमुच सक्षम होती, तो यौन हिंसा की शिकार महिलाओं में 35 प्रतिशत के अनुभव, अपने ही सगे संबंधी अथवा साथियों द्वारा यौन अथवा शारीरिक हिंसा के न होते। अमेरिका, आॅस्टेªलिया, कनाडा, इजरायल और दक्षिण अफ्रीका में हुई महिला हत्याओं मंे 40 से 70 प्रतिशत हत्यायें अंतरंग संबंध रखने वाले साथियों द्वारा किए जाने का अंाकङा है। गौर कीजिए कि यह आंकङा किसी एक कम पढे़-लिखे देश का नहीं है।
भारत में साक्षरता निरंतर बढ़ रही है; बावजूद इसके महिला अपराध के आंकङे निरंतर घट नहीं रहे। क्यों ? दिल्ली, देश की राजधानी है। दिल्ली, पढ़े-लिखों का शहर है। यहां के 90.94 प्रतिशत मर्द पढे़-लिखे हैं। दिल्ली में महिला साक्षरता का आंकडा 80.76 प्रतिशत है। दिल्ली में कानून का पहरा, अन्य राज्यों की तुलना में ज्यादा सख्त माना जाता है; फिर भी यहां हर दो दिन में पांच बालिकाओं का बलात्कार होता है; तो क्या कानून को और सख्त कर इस चित्र को बदला जा सकता है ?
कानून मार्ग
गौर कीजिए कि अभिभावकों को बालिका शिक्षा के लिए तत्पर करने के पीछे की मूल शक्ति, कोई कानून नहीं हैं। दोपहर के भोजन, छात्रवृति, मुफ्त शिक्षा, भविष्य के उपलब्ध होते अवसर और अब विवाह योग्य कन्याओं के पढ़ी-लिखी होने की मांग ने चित्र बदला है। हमने बाल विवाह को प्रतिबंधित करने वाला कानून (वर्ष 1929) बनाया। कानून को प्रभावी बनाने के लिए क्रमशः वर्ष 1949, 1978 और 2006 में संशोधन भी किया। कह सकते हैं कि इसका थोङा असर तो है, किंतु भारत के कई हिस्सों और समुदायों में बाल विवाह अभी भी एक चलन की तरह बेझिझक जारी है। यौन शोषण में वृद्धि आंकङों के बाद, सरकार को यौन शोषण (निरोध, निषेध और सुधार) कानून 2013 बनाना पङा। क्या इससे यौन शोषण के आंकङे वाकई घटे ? क्या पुरुषों की यौन संबंधी मानसिक विकृति को हम तनिक भी सुधार सके ? क्या कानून बनाकर मर्दों को संकल्पित कराना संभव है कि यह दुराचारी कृत्य करने योग्य नहीं है ? उलटे इसका नकारात्मक असर यह हुआ है कि निजी कंपनियों ने महिला कामगारों को काम पर रखना कम कर दिया है। शहरों की आबादी में 26 फीसदी की बढोत्तरी दर्ज की गई है। किंतु शहरी कामगार महिलाओं की स्थिति बदतर हुई है। एस. वर्मा समिति की रिपोर्ट के अनुसार, यौन शोषण तथा महिला हिंसा जैसे अपराधों से निपटने के दण्ड विधान को कठोर बनाने के बावजूद भारत में ऐसे अपराधों मे कमी नहीं आई है।
स्पष्ट है कि बात न कानून से बनेगी, न सिर्फ अभियानों से और न महज औपचारिक पढ़ाई से। आरक्षण भी सशक्तिकरण का असल उपाय नहीं है। क्यों ? क्योंकि पढ़ाई के प्रमाण पत्र, पद और प्रतिद्वंदिता की दौङ में आगे निकल जाने के लिए ताकत देना मात्र ही नारी सशक्तिकरण नहीं है। सच पूछें, तो नारी सशक्तिकरण की असल परिभाषा और असल जरूरत कुछ और हैं।
असल सशक्तिकरण
सच यह है कि यदि नारियों को आरक्षण न मिले, बस, समान सुविधा और अवसर ही दिए जायें, तो भी नारियां, पुरुषों से निश्चित ही आगे निकल जायेंगी। इसके कारण हैं, किंतु यह तुलना व्यर्थ है। नारी और पुरुष…दोनो कुदरत की दो भिन्न नियामतंे जरूर हैं, लेकिन न नारी दोयम है और न पुरुष प्रथम। दोनो की भिन्न गुण हैं और भिन्न भूमिका। कुदरत ने नारी को जिन गुणों का अनुपम संसार बनाया है, पुरुष उनकी पूर्ति नहीं कर सकता। अतः बेटी को बेटा बनाने की कवायद आप्राकृतिक है। इस आप्रकृतिक हठ से हटकर, प्रकृति मार्ग पर चलना है। बेटी को बेटी बनाना है। अधिकतम उपभोग और अंतहीन आर्थिक लक्ष्य के अंधे कुएं की ओर जाने के लिए मची वैश्विक भगदङ और विध्वंस के बीच, रचना और सदुपयोग के जिन बीजों को बोने, पालने और पोषने की जरूरत है, नारियां इसमें सबसे उर्वर भूमिका अदा कर सकती है; क्योंकि रचना और पोषण, नारी के मौलिक गुण हैं। समाज, संसद, आर्थिकी और प्रकृति में नारी की सक्रिय उपस्थिति से ही आर्थिक विषमता, सांप्रदायिक असहिष्णुता और प्राकृतिक शोषण के वर्तमान चित्र को उलटा जा सकता है। ’’श्री वाक्च नरीणां, स्मृर्तिमेधा, धृति, क्षमा’’ अर्थात श्री, वाणी, स्मृति, मेधा, धैर्य और क्षमा नारी को प्रकृति प्रदत शक्तियां हैं।
कहना न होगा कि जन्म से इन्ही गुणों का विकास करना ही किसी भी नारी का असल सशक्तिकरण है। मानसिक और नैतिक सबलता ही, असल सबलता है। इन्ही गुणों के विकास से कोई नारी, एक सशक्त, समर्थ, सक्रिय और अपनी सर्वकालिक-सार्वभौमिक भूमिका के लिए सतत् सक्रिय, सशक्त और सक्षम बन पायेगी। अपनी रोशनी से अपने परिवेश को रोशन करने में समर्थ आत्मदीप बन सकी नारी फिर चाहे फैक्टरी में हो, विद्यालय में, संसद मंे, खेल के मैदान में, खेत में, सीमा पर या घर के भीतर..वह अपनी रचना, संवेदना, श्री आदि गुणों के बूते कृति और प्रकृति को पुष्ट ही करेगी। इससे समाज में नारी-पुरुष प्रतिद्वंिदता नहीं, बल्कि सहभाग बढे़गा। इसी से संभव होगा, एक सहभागी..सर्वोदयी समाज।
अरुण तिवारी
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