क्रांति क्रांति क्रांति… समाजिक क्रांति, आर्थिक क्रांति, राजनीतिक क्रांति… कहाँ कहाँ नहीं भटका मैं इस क्रांति के तलाश में! अमेरिकी क्रांति, फ़्रांसिसी क्रांति, रसियन क्रांति… सबको पढ़ा सबको समझा!यहाँ तक कि भारत का स्वतंत्रता संग्राम और दक्षिण अफ्रीका का रंगभेद के खिलाफ आन्दोलन, जिन्हें मैं महान क्रांतियों में गिनता हूँ सबको जाना पर एक दर्द हमेशा मेरे मन को आंदोलित करती रहा कि इन क्रांतियों ने सत्ता को तो बदला मगर क्या ये क्रांतियाँ अपने वास्तविक लक्ष्य को प्राप्त कर सकीं? इन सब क्रांतियों ने सत्ता को हिला दिया, उसे बदल दिया, पर क्या ये क्रांतियाँ अपने अंतिम लक्ष्य तक पहुँच पाई???
अंतिम लक्ष्य: मानव द्वारा मानव के शोषण को ख़त्म करना, मानवीय सम्वेदनाओं को जगाना, मानवों के बीच समानता को लाना! क्या ये लक्ष्य हमें प्राप्त हुआ??? नहीं!!! हमने सत्ता को बदला तो शोषण ने भी अपने स्वरुप को बदला राजतंत्र से तानाशाही, उपनिवेशवाद, फिर आज का लोकतंत्र! क्या ये लोकतंत्र समाज में समानता को स्थापित कर सका? मेरा जबाब है: नहीं! सत्ता तो बदली मगर जो लोग हाशिए पर थे, वो आज भी हाशिए पर अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं, उनके जीवन में आज भी कोई बदलाव नहीं आया है। और मैं हमेशा से उनके लिए लड़ने की चाह के साथ जीता आया हूँ, इन तमाम क्रांतियों को पढ़ने समझने के बाद मेरे समझ में यही आया कि सिर्फ़ उनके लिए लड़ने, उनको न्याय दिलाने की कोशिश करने से कुछ नहीं होगा, हमें उनको अपने हक़ के लिए लड़ना सिखाने की जरूरत है ना कि उनके लिए लड़ने की। आज लोगों को एक राजनीतिक या सामाजिक क्रांति के बजाए एक सांस्कृतिक क्रांति की जरूरत है, जो उन्हें अपने हक़ के लिए लड़ना सिखाए।
अब ये मुझे अपने अकेले के बस कि बात नहीं लगी कि मैं लोगों को उनके हक़ के लिए लड़ना सिखा सकूँ तो मैं अनेक खुद को क्रांतिकारी कहने वाले संगठनों से जुड़ता चला गया मगर कहीं भी मुझे वो बात नजर नहीं आई जो समाज में व्याप्त उन कुरीतियों को बदल सके जो इन शोषणों का कारण बनती हैं, इसलिए मेरा जीवन उन लोगों की खोज में तब्दील हो गया जो इन कुरीतियों को चुनौती दे रहे हों। अपने इसी खोज में भटकते हुए मैं पहुँच गया थियेटर ऑफ़ रेलेवंस की रंगशाला में!
थियेटर ऑफ़ रेलेवंस के संस्थापक श्री मंजुल भारद्वाज, जिनसे मेरी पहली मुलाकात यूथ फ़ॉर स्वराज की कार्यशाला में में हुई थी, जिनसे मैं प्रभावित हुआ था, जिनसे मैंने अपने मन की बात कही थी कि मैं एक लेखक बनना चाहता हूँ! हाँ मैं एक एक लेखक बनना चाहता हूँ! एक ऐसा लेखक जो समाज में व्याप्त कुरीतियों से लड़े, समाज को एक नया मार्ग प्रशस्त करे!
उन्होंने मुझे समझा, मुझे अपनी रंगशाला में बुलाया! मैं वहाँ गया और वहाँ के अनुभव ने मुझे एक नयी दिशा प्रदान किया! वहाँ थी अश्विनी जिसने अपनी सास को मंगलसूत्र को पहनने और पहनाने वाली रूढ़िवादी सोच से रूबरू कराया, क्योंकि ये हमारे समाज में महिलाओं की मानसिक गुलामी का प्रतीक है, वहां थी कोमल जो खुद इस पितृसत्तात्मक समाज से लड़ी, अपनी छोटी बहन को इसके खिलाफ लड़ना सिखाया। उसकी बहन स्कूल से वापस आ रही थी, रास्ते में एक ‘मर्द’ उसके सामने आया और अपनी पैंट की ज़िप खोल कर खड़ा हो गया। वो डर गई, घर आकर उसने अपने अपनी माँ को ये बात बताई तो उनका कहना था कि “तू उसके सामने गई ही क्यों थी?” कितने आसानी से हम ये अवधारणा बना लेते हैं ना कि अगर छेड़छाड़ या बलात्कार की घटना घटी है तो इसमें दोष लड़की का है, वही छोटे कपड़े पहन कर, श्रृंगार कर के मर्दों को इस दुष्कृत्य के लिए आमंत्रण देती है! मगर कोमल ने अपनी बहन का साथ दिया, उसे लड़ना सिखाया, उसने उससे बोला कि अब जब वो मर्द दिखे तो उससे लड़ जाना और उसकी बहन ने ऐसा ही किया। कहने का तात्पर्य ये है कि हम क्रांति की खोज में भटकते युवा, क्या सच में क्रांति के वाहक हैं?? वो कहते हैं ना कि क्रांति की असली लड़ाई अपने घर से ही शुरू होती है, तो क्या हमने वो लड़ाई लड़ी है? शायद नहीं हम इस लड़ाई को अपने घर में शुरू नहीं कर पाए हैं और यही कारण है हमारी असफलता का !
यहां मैं अपनी व्यक्तिगत बात कर रहा हूँ, हो सकता है आपने लड़ी हो मगर मैं कहीं इस लड़ाई में कमजोर पड़ जाता रहा हूँ।
दरअसल हमें बचपन से शिक्षा दी गयी श्रवण कुमार की जो अपना जीवन छोड़ अपने अंधे माता पिता को ढोता रहा, ‘तीर्थ-दर्शन’ के लिए! मोरध्वज की जिसने अपने विश्वास के लिए अपने पुत्र को आरी से चीर दिया। हमें एक जातिवादी गुरु की महानता के बारे में पढ़ाया जाता है जिसने अपने शिष्य का अंगूठा काट लिया। दरसअल होश संभालने के साथ ही हमें रोबोट बना दिया जाता है, हमें लगता है कि हम जो कर रहे हैं वो अपनी मर्जी से कर रहे हैं मगर वास्तविकता में हमें कोई और कंट्रोल कर रहा होता है।
हमें ‘अश्विनी’ ने अपने कश्मीर के अनुभव के बारे में बताया, लेह-लद्दाख़ से भी लगभग ढाई सौ किलोमीटर दूर भारत-पाकिस्तान की सीमा पर एक गाँव है जहां वो गयी थीं। उन्होंने बताया कि शत प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले उस गाँव में उन्हें कभी भी असुरक्षित महसूस नहीं हुआ। वहाँ पर उन्होंने देखा कि हर घर में लोगों ने नीचे गड्ढा खोद कर पत्थरों से एक बंकर (तहखाना) बना रखा है। जब उन्होंने इसका कारण पूछा तो लोगों ने बताया कि युद्ध के दौरान यहाँ उनके सर के ऊपर से बम गुजरता है और कब वो बम किसके सर पर गिर जाए इसका कोई भरोसा नहीं रहता। इससे बचने के लिए उन्होंने ये बंकर (तहखाना) बना रखा है। भारत के भीतरी हिस्से में रहकर जो लोग युद्ध का समर्थन करते हैं, उनसे मैं कहना चाहता हूँ एक बार वहाँ जाएं, उनके जीवन को देखें फिर शायद उन्हें युद्ध की विभीषिका का पता चलेगा। यहां अपने घर पर बैठ कर युद्ध की बात करना बहुत आसान है मगर उस माहौल में जीना उतना ही मुश्किल।
तो मैं जब इस रंगशाला जो कि शांतिवन, पनवेल, मुम्बई में 10-14 जुलाई ,2017 तक आयोजित थी में पहुंचा तो मुझे एक अलग अहसास हुआ। शहर की आपाधापी से दूर शांतिवन, प्रकृति की गोद में चारों ओर से जंगल, पहाड़, नदी से घिरा ये स्थल पहली ही नज़र में मन को मोह लेता है। प्रकृति की सुंदरता से हमें रूबरू कराता है। रात्रि भोजन के लिए हम भोजन गृह की तरफ जा रहे थे, रास्ते में हमें जंगल में चमकते जुगनू नज़र आये और मुझे यकायक ही एक घटना याद आ गयी। लगभग एक महीने पहले की ही बात है, मैं अपने दोस्तों के साथ यमुना एक्सप्रेस वे पर आगरा से दिल्ली लौट रहा था, तो नोयडा से पहले एक ओवर ब्रिज आता है जिसके आसपास कई बहुमंजिला इमारतें हैं, वहाँ की लाइटिंग काफी शानदार हैं, उसे देखकर मेरे दोस्त कहने लगे कि ‘वाह! क्या शानदार लाइटिंग है, कितना मनमोहक दृश्य है!’ मैं इन जुगनुओं को देखने के बाद सोचने लगा कि वास्तव में कौन सा दृश्य मनमोहक है, कंक्रीट की दीवारों में चमकते बल्ब या प्राकृतिक जंगल में चमकते ये जुगनू! जबाब भी मेरे सामने था, इस प्राकृतिक दृश्य का मुकाबला कोई भी मानवीय आविष्कार नहीं कर सकता।
इस रंगशाला में हमने श्री मंजुल भारद्वाज द्वारा लिखित दो नाटकों पर कार्य किया, पहला नाटक था ‘गर्भ’!
‘गर्भ’ एक अजन्मे बच्चे की कहानी; जो दुनियां की बुराईयों से डरा हुआ है और अपनी माँ के गर्भ में ही सुरक्षित महसूस करता है। वो डरता है जन्म लेने से क्योंकि इस धरती पर जन्म लेने के बाद उसकी मौलिकता को छीन लिया जाता है, उसे एक धर्म, जाति, भाषा देकर उसके बाल्यकाल के भोलेपन को ख़त्म कर दिया जाता है। गर्भ में आना, जन्म लेना, ये प्रक्रिया किसी भी व्यक्ति के खुद के हाथ में नहीं होता है, इसमें उसकी खुद की मर्जी नहीं होती मगर जन्म लेने के बाद भी उसे अपनी मर्जी से कब जीने दिया जाता है?
धर्म, भाषा, राष्ट्रीयता में उलझा कर उसकी एक व्यक्तिगत पहचान बना दी जाती है और फिर जीवन भर वो व्यक्ति उस पहचान को न चाहते भी ढोता रहता है। इतना ही नहीं फिर उसे दूसरे धर्म, जाति , भाषा को मानने वाले लोगों से नफरत करना सिखाया जाता है। और फिर इस प्रक्रिया से गुजरने के दौरान इंसान इक हृदयविहीन रोबोट बन कर रह जाता जिसे दूसरों के सुख दुःख से कोई मतलब नहीं होता। उसका जीवन सिर्फ अपने स्वार्थों की पूर्ति करने के प्रयास में खपने लगता है। पर इसमें भी हर मनुष्य कहाँ सफ़ल हो पाता है, जो ताकतवर होता है वो कमजोरों के हक़ को छीन लेता है और जाने कितनी ही जिंदगियां इस हक़ की लड़ाई में ख़त्म हो जाती हैं। समाज में व्याप्त इस होड़ को देखने के बाद गर्भ में बैठा बच्चा सोच रहा है कि क्या मैं इतना ताकतवर हूँ, क्या मेरे हाथ, पैर में इतना दम है कि मैं जन्म लेकर दुनिया की अंधी दौड़ में शामिल हो पाउँगा, उसे जीत पाउँगा? इस से तो बेहतर यही है कि मैं सुरक्षित अपनी माँ के गर्भ में ही बैठा रहूँ।
दरअसल अपने जीवन में भी हम अपने आस पास एक गर्भ बना लेते हैं, जिसके बाहर की दुनियां से हमें कोई मतलब नहीं होता। आज चलती ट्रेन, बस, लोगों भीड़ से भरी सड़क पर चंद गुंडे आकर किसी की हत्या कर देते हैं, किसी महिला के साथ बलात्कार कर देते हैं, पर कोई कुछ नहीं बोलता, लोग चुपचाप आँखें नीची किए बैठे रहते हैं, वो खुद को अपने आसपास बनाए “गर्भ” में सुरक्षित महसूस कर रहे होते हैं। पर क्या सच में वो सुरक्षित होते हैं, एक दिन यही भीड़ उनके सामने आकर खड़ी हो जाती है तब उन्हें अपनी वास्तविकता का अहसास होता है। इसी पर वो गर्भ में बैठा बच्चा बोलता है कि क्या मैं इस गर्भ में सुरक्षित हूँ? क्या भरोसा इन हत्यारों का, कब ये छेनी-हथौड़ा लेकर आएं और मुझे इस गर्भ में ही मार दिया जाए। जाने कितने ही बच्चों को को जन्म लेने से पहले ही मार दिया जाता है। इस नाटक के जरिए श्री मंजुल भारद्वाज ने, जातिवाद, भाषावाद, सम्प्रदायवाद, राष्ट्रवाद, भीड़तंत्र, भ्रूणहत्या जैसी अनेक मानवीय त्रासदियों के नीचे पिस रही मानवता के दर्द को उभारकर हमारे सामने रखा है, और साथ ही साथ जीवन को एक अलग दृष्टिकोण से देखने के लिए प्रेरित किया है।
ये नाटक मनुष्य को दूसरे मनुष्यों और प्रकृति से जोड़ने का काम भी करता है। हर मनुष्य का एक सपना होता, वो प्रेम करना चाहता है, खुशियां बांटना चाहता है, स्वछन्द, उन्मुक्त होकर अपने जीवन को जीना चाहता है; ये नाटक हमें हमारे वास्तविक सपनों से जोड़ता है, जीवन की सुंदरता से हमें रूबरू कराता है।
दूसरा नाटक जिसपर हमने काम किया वो था “अहनद-नाद (Unheard Sounds of Universe)”!
ये नाटक हमें अपने अंदर की उन आवाजों को सुनने के लिए प्रेरित करता है, जिन्हें हम जीवन की आपाधापी में सुन नहीं पाते हैं या सुन कर भी अनसुना कर देते हैं। जन्मस्थान के आधार पर हमें एक बोली, एक भाषा दे दिया जाता है और फिर हमारा जीवन उसी भाषा से संचालित होने लगता है। हमारे जीवन की दशा और दिशा इसी से तय होने लगती है और हम जाने-अनजाने में किसी और के इशारों पर संचालित होने वाली मशीन बन कर रह जाते हैं। हमें लगता है कि हम जो काम कर रहे हैं वो अपनी मर्जी से कर रहे हैं, या उस काम को करना हमारी जरूरत है मगर वास्तविकता में हम किसी और के इशारों पर नाच रहे होते हैं। और फिर जब इसके परिणाम उल्टे निकलते हैं तो उसके लिए हमें भाग्य को दोष देना सिखाया जाता है। इंसान असफल हो जाता है तो कहता है कि अरे वो तो मेरी किस्मत में ही नहीं था तो कहाँ से मिलता। कोई ये नहीं बोलता कि इस काम को शुरू करने से पहले मैंने अपने दिल की आवाज को अनसुना कर दिया था! वो तो चीख चीख कर मुझसे कह रही थी नहीं तुम इस काम के लिए नहीं बने हो। मगर हम अपनी अंतरात्मा की आवाज को दबा कर दुनिया की भेड़चाल में शामिल हो जाते हैं और जब असफलता हाथ लगती है तो किस्मत को दोष देते हैं या अवसाद ग्रसित होकर खुद को दोष देने लगते हैं। साथ ही साथ ये नाटक हमें प्रकृति की उन आवाजों से जोड़ता है जिन्हें हम अनसुना कर देते हैं। दरअसल श्री भारद्वाज ने ये नाटक मराठी रियल्टी शो ” महाराष्ट्र का सुपरस्टार” की विजेता ‘योगिनी चौक’ के लिए लिखा था।
इस रियल्टी शो को जीतने के बाद मानव जीवन के सही उद्देश्य और मायनों की तलाश में भटकते हुए वो शांतिवन में’थिएटर ऑफ़ रेलेवंस’ की कार्यशाला में आ पहुंची। उन्हें उम्मीद थी की इस कार्यशाला में बहुत से लोग होंगे, गहमागहमी होगी, चकाचौंध होगी! मगर उन्होंने देखा कि यहाँ तो बस गिने चुने 8-10 लोग हैं। उन्हें लगा कि बस इतने ही लोग? फिर यहाँ कार्य करते हुए उन्हें यह अहसास हुआ कि वो तो यहां खुद को ढूंढने आई हैं और खुद को ढूंढने वालों को भीड़ से क्या काम। शांतिवन एक जंगल है और यहाँ पर रहते हुए उन्हें प्रकृति से मानव के जुड़ाव को महसूस किया। यहाँ उन्होंने प्रकृति में व्याप्त उन आवाजों को सुना जिन्हें आम जीवन में हम अनसुना कर देते हैं। शांतिवन में रहते हुए मैंने भी उन आवाजों को महसूस किया जो मन-मस्तिष्क में एक कम्पन पैदा करती हैं। चिड़ियों का चहचहाना, घास में रेंगते जीवों की सरसराहट, मस्ती में झूमते वृक्षों की आवाजें, समीप में बह रही नदी की आवाज,रात में जंगल में चमक रहे जुगनुओं की सुंदरता। इन सब के बीच अपने होने का वो अद्भुत अहसास! शांतिवन में जीवन की खूबसूरती छलक छलक कर सामने आती है।
शांतिवन के इन अहसासों में’योगिनी चौक’ को मानव जीवन का वास्तविक अर्थ समझ में आया, और उनके जीवन में बदलाव का एक नया दौर शुरू हुआ। खुद इन बदलावों पर चर्चा करते हुए वो बताती हैं कि अभी उन्हें एक रियल्टी शो में जज की भूमिका निभाने के लिए बुलाया गया था। वहां पर उन्हें वही हमारे समाज की पितृसत्तात्मक सोच का अनुभव हुआ कि महिलाएं तो सिर्फ ग्लैमर के लिए होती हैं, उनका काम बस श्रृंगार करना, कमर मटकाना और भीड़ की ओर हवाई चुम्बन उछालना होता है। जब उनके बोलने की बारी आई तो उन्होंने इस मुद्दे को उठाया। उन्होंने वहां पर बोला कि महिलाओं का काम ग्लैमर उत्पन्न करना या अंगों का प्रदर्शन करना नहीं है। उनका दर्जा इस सब से कहीं ऊपर है और लड़कियां लड़कों से किसी भी रूप में कम नहीं हैं। और फिर जो तालियां बजीं, उसमे उन्हें एक शोर के बजाये जीवन के संगीत का आभास हुआ। उन्होंने उस परिवर्तन को महसूस किया जो ‘अहनद-नाद’ और ‘थियेटर ऑफ़ रेलेवंस’ उनके जीवन में लेकर आया था। यहाँ उन्होंने अपने अंतरात्मा की आवाज़ को सुनना सीखा था और आज उस आवाज को वो पूरे दुनियां के साथ साझा कर रही हैं।
इन नाटकों के जरिये श्री मंजुल भारद्वाज ना सिर्फ़ लोगों को अपने मन की आवाज सुनने के लिए प्रेरित कर रहे हैं बल्कि उन्हें प्रकृति से भी जोड़ रहे हैं।’गर्भ’ नाटक पर जब हम काम कर रहे थे उस दौरान वो हमें समीप में ही बह रही नदी के किनारे लेकर गए। उन्होंने हमें उस माहौल को महसूस करने और अपने विचार रखने को कहा। वैसे तो मैं नदी, पहाड़ आदि प्राकृतिक स्थलों पर कई बार गया था मगर इस बार का अनुभव कुछ अलग था, कुछ ख़ास था। मैंने उस दृश्य को अपनी नजरों से पढ़ा। मैंने देखा कि नीचे नदी में पानी एक साथ एक प्रवाह में बह रही है, और वो सतह पर उभरे विखंडित पत्थरों से संघर्ष करते हुए, उन्हें हराते हुए आगे बढ़ रही है! फिर सामने की ओर देखा, मैंने पाया कि वहां पर पत्थरों ने एकजुट होकर विशालकाय पहाड़ का रूप ले लिया है; और पानी बादलों के रूप में विखंडित होकर उसकी चोटी को ढकने का प्रयास कर रहा है, अर्थात पानी और पत्थर का संघर्ष वहाँ आसमान में भी जारी है। मगर जहां धरती पर पानी अपनी एकता के कारण पत्थरों को चीरकर आगे निकल रहा है वहीं आसमान में वो बादल बनकर विखंडित हो पहाड़ की चोटी पर एक ताज की तरह सज कर उसकी सुंदरता को बढ़ा रहा है । इससे हमें एकता और सार्थकता की ताकत का पता चलता है और ये समझ में आता है कि प्रकृति किस तरह से हमें शिक्षा देने की कोशिश करती है मगर हम उसकी आवाज को अनसुना कर देते हैं। यही वो भाषा है जिसका जिक्र श्री भारद्वाज ने अपने नाटक ‘अनहद-नाद’ में किया है। जिसे हम जीवन की आपाधापी में सुन ही नहीं पाते हैं, या सुनकर अनसुना कर देते हैं। इसी तरह आखरी दिन जब हम ‘अहनद-नाद’ नाटक को प्रस्तुत कर रहे थे तो वहां पर लगभग 20 ताइवानी विद्यार्थी आ गए। हिंदी ना आने के बावजूद भी उन्होंने इस नाटक को पूरा देखा। बाहर बारिश हो रही थी। इस नाटक के ख़त्म होते ही श्री भारद्वाज हम सभी को लेकर दौड़ते हुए बाहर आ गए और इस बारिश में भीगने का अहसास ही कुछ अलग था। एक बरसात बाहर हो रही थी जो हमारे तन को भिगो रही थी तो दूसरी बरसात हमारे अंदर हो रही थी जो हमारे मन को भिगो रही थी; और हमारे अंदर और बाहर का सारा कचरा, सारी गंदगी छन छन कर बाहर निकल रही थी। ऐसे तो जानें कितनी ही बरसातों में हम भीगे होंगे मगर इस बार की बारिश बहुत अलग थी, बहुत ख़ास थी।
प्रकृति से जुड़ने और अपनी आंतरिक अवस्था से जुड़ने के लिए हम रोज सुबह चैतन्य अभ्यास करने जाते थे! पहले दिन हम ये अभ्यास करने एक पुल पर गए, नीचे नदी में पानी अपने सम्पूर्ण प्रवाह में था, और ऊपर स्थिर पुल पर हम चैतन्य अभ्यास कर रहे थे। ये अभ्यास हमारे आंतरिक मन को झकझोर रहा था, जीवन को एक सार्थकता प्रदान कर रहा था। दरअसल मानव जीवन भी इसी तरह से काम करता है, हमारे नीचे धरती घूमती रहती है, समय अपनी ही प्रवाह में गुजरता जाता है और ये हम पर निर्भर करता है मानव शरीर रूपी इस पुल में रहते हुए हम अपने जीवन को यूँ ही गंवाते हैं या किसी सार्थक काम में लगाते हैं। इसी तरह एक सुबह हम लगभग पांच किलोमीटर की सैर पर गए। दरसअल मुझे इसकी आवश्यकता थी और इस बात को अश्विनी ने श्री भारद्वाज तक पहुंचा दिया। इस यात्रा के दौरान साथियों ने अपने एक पुराने अनुभव को साझा किया कि बरसात के मौसम में इन पगडंडियों पर 15-15 फिट ऊँची जंगली घास उग आती हैं, रास्ते का कुछ अता-पता नहीं चलता,सांप, अजगर और अनेकों ज़हरीले प्राणियों का खतरा, उफनती नदी और इस जंगल को उन्होंने आपसी सहयोग से, एक दूसरे की मदद करते हुए पार किया था। अ
पने जीवन में हम दर्द से कितना डरते हैं जबकि हमारे जीवन की शुरुआत ही दर्द के साथ होती है। वो दर्द ही है जो मानव को मानव बनाता है और उन्हें आपस में जोड़ता है। आखरी दिन के चैतन्य अभ्यास के बाद श्री भारद्वाज ने हमें आँखे बंद कर के लेटने और जीवन के उन स्वरूपों के बारे में सोचने को कहा जिन्हें हमने पिछले पांच दिनों में जीया था। और हमारे सामने कितनी ही छवियां घूम गईं, बारिश में भीगते बालक की छवि,सांस्कृतिक क्रान्ति लाने को उत्सुक एक कलाकार की छवि, मानवीय संवेदनाओं को समझते हुए एक प्रकृति प्रेमी की छवि, कभी साथियों से सीखते हुए एक विद्यार्थी की छवि तो तो कभी साथियों को समझाते हुए एक शिक्षक की छवि। यही तो है ‘अहनद-नाद’ नाटक का सार, हमने यहाँ ना सिर्फ़ ‘अहनद-नाद’ को पढ़ा, उसे समझा, उसपर अभिनय किया बल्कि उसे प्रत्यक्ष रूप में जिया।
‘थियेटर ऑफ़ रेलेवंस’ की कार्यशाला की सबसे महत्वपूर्ण और ख़ास बात यही है यहाँ सिर्फ़ नाटकों के स्क्रिप्ट को पढ़ना और उसमे अभिनय करना ही नहीं सिखाया जाता है बल्कि साथ ही साथ यहाँ कलाकारों के जीवन को, व्यक्तिगत अनुभवों को भी सुना और पढ़ा जाता है, और उसे प्रकृति के साथ जोड़ा जाता है। यहाँ पर कलाकार सिर्फ़ नाटक की पंक्तियों को नहीं पढ़ता है बल्कि एक दूसरे के जीवन को भी पढ़ता है। यहां हमने एक दूसरों को अपने जीवन की व्यक्तिगत अनुभवों को सुना, उसपर खुलकर चर्चा की , जिससे जीवन के अनेक आयाम खुलकर सामने आए। यहाँ सबको अपनी बात खुलकर सामने रखने का पर्याप्त मौका दिया जाता है। यहाँ पर जिंदगी में शान्ति और सामंजस्य की तलाश में अमित आए थे, उन्होंने अपने जीवन के अनुभवों के बारे में बताया, वो सिटी बैंक में काम करते थे, उनके पास पैसा था, घर था, उन्होंने प्रेम विवाह किया था पर माँ और पत्नी के बीच अनबन के कारण ये विवाह लगभग 10 साल बाद टूट गया, उन्होंने माँ और पत्नी की इस लड़ाई में आखिर में माँ का साथ दिया और पत्नी से अलग हो गए। श्री भारद्वाज ने उन्हें जीवन में भावनाओं के सामंजस्य के बारे में बताया। उन्होंने उन्हें समझाया की किस तरह वो आपसी चर्चा और कोशिशों से इस विवाह विच्छेद को बचा सकते थे।
चर्चा के दौरान उन्होंने एक बार अमित से सामने की दीवार गिराने को कहा, अमित ने पूरा जोर लगाया मगर असफ़ल रहा। फिर उन्होंने अमित से कहा कि तुम मुझे ऐसा करने को कहो, अमित ने ऐसा ही किया। उन्होंने तुरंत फोन निकाल कर बोला कि अभी बुल्डोजर मंगवाता हूँ, दीवार गिर जायेगी। दरअसल हम अपने जीवन में भी यही करते हैं, जो काम सूझबूझ से, आपसी सामंजस्य से हो सकता है, उसमे निरर्थक ही ताकत लगाते हैं और खुद को चोटिल कर लेते हैं। ‘अनहद-नाद’ नाटक पर चर्चा के दौरान कॉर्पोरेट जगत से जुड़े रहने वाले अमित ने कहा कि’जीवन में हमें पैसों की आवश्यकता भी तो पड़ती है उसके बगैर हम जी कैसे सकते हैं।’ जाहिर है कि होश संभालने के साथ ही हमें ये सिखाया जाता है कि पढ़ो लिखो, आगे चल के तुम्हें बड़ा आदमी बनना है, ढेर सारा पैसा कमाना है, और हम अपने जीवन को इस अंधी दौड़ में झोंक देते हैं। इस विषय पर चर्चा के दौरान हमारे सामने एक नया आयाम खुला कि आखिर मानव जीवन को जीने और अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए कितने पैसों की आवश्यकता होती है, और क्या पैसा कमाना ही सब कुछ है? दरसअल पैसा कमाने की इस होड़ में आज मानवीय संवेदनाएं कहीं पीछे छूट गई हैं। अश्विनी का कहना था हम कला के जरिए मानव कमा रहे हैं। ऐसे दोस्त बना रहे हैं जो वक़्त पड़ने पर हमारा साथ देते हैं। और ऐसा नहीं है कि कला से घर नहीं चलता! श्री भारद्वाज ने अपने अनुभव से हमें बताया कि उनका घर कला से चल रहा है और उनके जीवन की वास्तविक जरूरतें भी पूरी हो रही हैं। यहाँ मेरी मुलाकात संदीप से हुई जो वामपंथी संगठनों से जुड़े हैं, और ‘अहनद-नाद’ नाटक की प्रस्तुति देखने के बाद यहां आए थे, महसूस होता था कि उन्हें भी एक सार्थक क्रांति की तलाश है।
जिस क्रांति की तलाश में मैं भटक रहा था, उसे मैंने यहाँ घटित होते हुए देखा। ‘अश्विनी’ ने ‘थियेटर ऑफ़ रेलेवंस’ के द्वारा किए गए नाटकों के दौरान आए अनुभवों और बदलावों को साझा करते हुए बताया कि उन्होंने नाटक ‘छेड़छाड़ क्यों’ का प्रदर्शन एक कॉलेज कैंपस में किया, और इसके द्वारा उन लोगों ने उस कॉलेज में तीस विद्यार्थियों के एक दल को खड़ा किया, जो उस कॉलेज में छेड़छाड़ के खिलाफ लड़ रहे हैं। उन्होंने बताया कि एक बार उस कॉलेज की बस में एक लड़का एक लड़की के साथ छेड़छाड़ करने लगा। सामान्यतः ऐसी घटनाओं में बदनामी के डर से लड़कियाँ चुप हो जाती हैं या अपना रास्ता बदल लेती हैं, मगर उस लड़की ने हिम्मत नहीं हारी और उस से लड़ गई। वो उसे घसीटते हुए प्रिंसिपल के कमरे तक ले गई और लड़के को सजा मिली। बाहर आकर उसने उस लड़की को देख लेने की धमकी दे दी। वो लड़की काफ़ी डर गई थी और उसने रोते हुए ‘अश्विनी’ को फोन कर के सारी बात बताई। उसने तत्काल ही उन 30 लड़कों की टीम से उसका संपर्क कराया और उन लड़कों ने उस लड़की को पूरी सुरक्षा और सहायता प्रदान किया। ऐसे ही मुम्बई के एक स्लम में लड़कियों को घर से बाहर नहीं निकलने दिया जाता था।
छेड़छाड़, बलात्कार जैसी घटनाओं के डर से उनके माता पिता उन्हें अपने ही घर में कैद करके रखते थे। ‘थियेटर ऑफ़ रेलेवंस’ की टीम वहां भी अपने नाटक का प्रदर्शन करने गई और उन लड़कियों के अंदर के आत्मविश्वास को जगाया। आज वो लड़कियां बाहर निकल रही हैं, पढ़ाई कर पा रही हैं तो इसका पूरा श्रेय ‘थियेटर ऑफ़ रेलेवंस’ के कलाकारों को जाता है। इसी प्रकार अपने एक अनुभव के बारे में कोमल बताती है कि उसके कॉलेज का टॉयलेट काफ़ी गन्दा रहता था, चारों ओर गन्दगी और सेनेटरी पैड्स बिखरे रहते थे, नलों में पानी नहीं आता था। जब उसने इसकी शिकायत प्रिंसिपल से की तो उनका कहना था कि तुम यहां पढ़ने आती हो या टॉयलेट जाने? साधारणतः ऐसे जबाब सुनने के बाद लड़कियां चुप बैठ जाती हैं, मगर उसने इसे एक चुनौती के रूप में लिया और अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर एक आंदोलन खड़ा कर दिया कि हाँ हम तो यहाँ टॉयलेट जाने ही आती हैं, इसे साफ़ करो। आज वहाँ पूरी साफ़ सफाई है, टाइल्स लगे हैं, नलों में पानी आता है। यही तो वह क्रांति है जिसे मैं इतने दिनों से खोज रहा था, यही तो वो लोग हैं जो वास्तविकता में सामाजिक कुरीतियों को चुनौती दे रहे है, समाज में बिना कोई हंगामा किये, बिना कोई दिखावा किए परिवर्तन ला रहे हैं। पांच दिन के इस कार्यशाला के बाद अब मुझे लग रहा है कि हाँ अब मैं अपनी वास्तविक स्थान पर पहुंच गया हूँ। पांच दिनों की इस रंगशाला के बाद मेरे व्यक्तिगत जीवन में बहुत बदलाव आया है, अब प्रकृति को, जीवन को एक नए दृष्टिकोण से देख पा रहा हूँ और मानवीय संवेदनाओं को भी ज्यादा अच्छी तरह से समझ पा रहा हूँ। मैंने रंगकर्म के क्षेत्र में कभी पूरी तरह से हाथ नहीं आजमाया था, और अश्विनी, कोमल, तुषार का गर्भ नाटक में अभिनय देख कर डर सा गया था, और सोच रहा था कि क्या मैं कभी ऐसा अभिनय कर पाउँगा? पर इन साथियों ने मेरे आत्मविश्वास को जगाया और और आज मैं एक नए उत्साह का अनुभव कर रहा हूँ।