Thursday, December 26, 2024
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काल गणना का प्रामाणिक केंद्र है उज्जैन

उज्जैन की भौगोलिक स्थिति भी विशिष्ट है। खगोलशास्त्रियों की मान्यता है कि यह नगरी पृथ्वी और आकाश की सापेक्षता में ठीक मध्य में स्थित है। कालगणना के शास्त्र के लिए इसकी यह स्थिति सदा उपयोगी रही है। इसलिए इसे पूर्व से ‘ग्रीनविच’ के रूप में भी जाना जाता है। प्राचीन भारत की ‘ग्रीनविच’ यह नगरी देश के मानचित्र में 23.9 अंश उत्तर अक्षांश एवं 74.75 अंश पूर्व रेखांश पर समुद्र सतह से लगभग 1658 फ़ीट ऊँचाई पर बसी है। अपनी इस भौगोलिक स्थिति के कारण इसे कालगणना का केन्द्र-बिंदु कहा जाता है और यही कारण है कि प्राचीनकाल से यह नगरी ज्योतिष का प्रमुख केन्द्र रही है। जिसके प्रमाण में राजा जयसिंह द्वारा स्थापित वेधशाला आज भी इस नगरी को कालगणना के क्षेत्र में अग्रणी सिद्ध करती है।

कालगणना प्रवर्त्तियो की केंद्र उज्जयिनी का कैनवास विशाल रहा है। वर्तमान उज्जैन 23°11′ अंश पर स्थित है। इस कारण सही पंचांग निर्माण की दृष्टि से पद्मश्री डॅा. विष्णुश्रीधर वाकणकर ने महाकाल वन में स्थित डोंगला में सूर्य के उत्तर दिशा का अन्तिम समपाद बिन्दु खोज लिया था। ग्राम डोंगला में आचार्य वराहमिहिर न्यास उज्जैन के मार्गदर्शन में डॅा. रमण सोलंकी एवं श्री घनश्याम रतनानी के खगोलीय अध्ययन पर आधारित भारत की छठीं वेधशाला निर्मित हो चुकी है। जिसमें शंकु यन्त्र, भास्कर यंत्र, भित्ति यंत्र स्थापित हैं। म.प्र. शासन के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा यहाँ भारत का सतह पर लगने वाला सबसे बड़ा टेलीस्कोप लगाया गया है ताकि पूर्णरूपेण भारतीय आधार पर काल गणना की जा सके। ग्राम डोंगला उज्जैन से उत्तर दिशा में 32 किमी पर आगर मार्ग पर अवस्थित है।

कालगणना की पद्धति में भारत और यूनान देशों में समानताएँ पायी जाती रही हैं। कालगणना का केंद्र होने के साथ-साथ ईश्वर आराधना का तीर्थस्थल होने से इसका महत्व और भी बढ़ गया। स्कंदपुराण के अनुसार – ‘कालचक्र प्रवर्तकों महाकाल: प्रतायन:’। इस प्रकार महाकालेश्वर को कालगणना का प्रवर्तक भी माना गया है। भारत के मध्य में स्थित होने के कारण उज्जैन को नाभिप्रदेश अथवा मणिपुर चक्र भी माना गया है।

आज्ञाचक्रं स्मृता काशी या बाला श्रुतिमूर्धनि।
स्वधिष्ठानं स्मृता कांची मणिपुरम् अवंतिका।।

भौगोलिक गणना के अनुसार प्राचीन आचार्यों ने उज्जैन को शून्य रेखांश पर माना जाता है। कर्क रेखा भी यहीं से गुजरती है। देशांतर रेखा और कर्क रेखा यहीं एक -दूसरे को काटती है। जहाँ यह काटती है संभवत: वहीं महाकालेश्वर मंदिर स्थित है। इन्हीं सब कारणों से उज्जैन कालगणना पंचागनिर्माण और साधना सिद्धि के लिए महत्वपूर्ण माना गया है। यहीं के मध्यमोदय पर सम्पूर्ण भारत के पंचांग का निर्माण होता है। ज्योतिष के सूर्य सिद्धान्त ग्रन्थ में भूमध्य रेखा के बारे में वर्णन आया है –

राक्षसालयदेवौक: शैलयोर्मध्यसूत्रगा।
रोहितकमवन्ती च यथा सन्निहित सर:।

रोहतक,अवन्ति और कुरुक्षेत्र ऐसे स्थल हैं जो इस रेखा में आते हैं। देशान्तर मध्यरेखा श्रीलंका से सुमेरु तक जाते हुए उज्जयिनी सहित अनेक नगरों को स्पर्श करती जाती है। प्राचीन सूर्य सिद्धान्त, ब्रह्मस्फुट सिद्धांत, आर्यभट्ट, भास्कराचार्य आधुनिक चित्र दृश्य पक्ष के जनक श्री केतकर और रैवतपक्ष के बालगंगाधर तिलक ने भी क्रमश: अपने चित्रा एवं दैवत पक्षों में उज्जयिनी के मध्यमोदय को ही स्वीकारा था। गणित और ज्योतिष के विद्वान वराहमिहिर का जन्म उज्जैन जिले के कायथा ग्राम में लगभग शक संवत ४२७ में हुआ था। प्राचीन भारत के वे एकमात्र ऐसे विद्वान थे। जिन्होंने ज्योतिष की समस्त विधाओं पर लेखन कर ग्रन्थों की रचना की थी। उनके ग्रन्थ में पंचसिद्धान्तिका,बृहत्संहिता,बृहज्जनक विवाह पटल,यात्रा एवं लघुजातक आदि प्रसिद्ध हैं। कालगणना और ज्योतिष की परम्पराएँ एक -दूसरे से सम्बद्ध रही हैं। इस नगरी के केंद्र बिंदु से कालगणना का अध्ययन जिस पूर्णता के साथ किया जाना संभव है वह अन्यत्र कहीं से सम्भव नहीं है क्योंकि लिंगपुराण के अनुसार सृष्टि का प्रारम्भ यहीं से ही हुआ है।

प्राचीन भारतीय गणित के विद्वान आचार्य भास्कराचार्य ने लिखा हैं –

यल्लकोज्जयिनी पुरोपरी कुरुक्षेत्रादि देशानस्पृशत्।
सूत्रं सुमेरुगतं बुधेर्निरगता सामध्यरेखा भव:।

प्राचीन भारत की समय गणना का केन्द्र बिन्दु होने के कारण ही काल के आराध्य महाकाल हैं ,जो भारत के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक है। प्राचीन भारतीय मान्यता के अनुसार जब उत्तर ध्रुव की स्थिति पर 21 मार्च से प्राय: छह मास का दिन होने लगता है। प्रथम तीन माह के पूरे होते ही सूर्य दक्षिण क्षितिज से बहुत दूर हो जाता है। यह वह समय होता है जब सूर्य उज्जैन के ठीक ऊपर होता है। उज्जैन का अक्षांश व सूर्य की परम क्रांति दोनों ही 24 अक्षांश पर मानी गयी है। सूर्य के ठीक सामने होने की यह स्थिति संसार के किसी और नगर की नहीं है।

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वराहपुराण में उज्जैन को शरीर का नाभि देश और महाकालेश्वर को अधिष्ठाता कहा गया है। महाकाल की यह कालजयी नगरी विश्व की नाभिस्थली है। जिस प्रकार माँ की कोख में नाभि से जुड़ा बच्चा जीवन के तत्वों का पोषण करता है,उसी प्रकार काल ,ज्योतिष ,धर्म और अध्यात्म के मूल्यों का पोषण भी इसी नाभिस्थली होता रहा है। मंगल ग्रह की उत्पत्ति का स्थान भी उज्जयिनी को ही माना जाता है। यहाँ पर ऐतिहासिक नवग्रह मन्दिर और वेधशाला की स्थापना से कालगणना का मध्य बिन्दु होने के प्रमाण मिलते हैं।

साभार-http://www.simhasthujjain.in/से

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