Friday, November 29, 2024
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मंदिरों पर सरकारी शिकंजा क्यों?

पारंपरिक भारत में किसी हिन्दू राजा ने मंदिरों पर अपना अधिकार, या नियंत्रण नहीं जताया था, न कभी टैक्स वसूला था। भारतीय परंपरा में राजा को धर्म या धार्मिक कार्यों में हस्तक्षेप करने का कभी, कोई उदाहरण नहीं मिलता। वे तो सहायता व दान देते थे, न कि लेते थे जो स्वतंत्र भारत की राजसत्ता कर रही है। यह जबर्गस्ती मुगल काल के अवशेष हैं जब मंदिरों को तरह-तरह के राजकीय अत्याचार या नियंत्रण को झेलना पड़ता था।फिर अंग्रेज शासकों ने 1817 ई. में उसी तरह के कुछ नियंत्रण बनाए। उस का लाभ क्रिश्चियन मिशनरियों ने उठाया, जिन की धर्मांतरण योजनाओं को मंदिरों को कमजोर करने से कुछ मदद मिली। हालाँकि बाद में, 1863 ई. तक यहाँ अंग्रेज शासकों ने कई मंदिर हिन्दू न्यासियों को वापस भी सौंप दिए। क्योंकि उसे कुछ कारणों से इंग्लैंड में पसंद नहीं किया गया।

केवल हिन्दू मंदिरों पर सरकारी कब्जाः हिन्दू आज भी जजिया भर रहे हैं – 1

लेकिन फिर 1925 ई. में अंग्रेज शासकों ने भारत में धार्मिक संस्थानों पर नियंत्रण करने का कानून बनाया। लेकिन क्रिश्चियनों और मुसलमानों द्वारा तीव्र विरोध के कारण 1927 ई. में वह कानून संशोधित किया गया, और उन्हें उस कानून से छूट दे दी गई। इस प्रकार, केवल हिन्दू मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण रखने का कानून रहा। प्रायः दक्षिण भारत में, क्योंकि विशाल, समृद्ध, संपन्न मंदिर वहीं थे। उत्तर भारत तो पिछले इस्लामी शासकों की बदौलत लगभग मंदिर-विहीन हो चुका था। यह भी ध्यातव्य है कि ‘फूट डालो, राज करो’ की नीति का उपाय करते हुए जहाँ 1925 ई. में हिन्दुओं को मंदिरों के संचालन से वंचित किया गया, सिखों को विशेष शक्ति-संपन्न बनाया गया। उसी साल अंग्रेजों ने सिख गुरुद्वारा एक्ट बनाकर गुरुद्वारों का संचालन एक विशेष समूह को सौंप दिया। यह बहुत बड़ा निर्णय साबित हुआ, जिस से सिखों के एक पंथ को विशिष्ट, एकाधिकारी शक्ति प्राप्त हो गई। उस से पहले गुरुद्वारे तरह-तरह के पंथों द्वारा चलते थे।

फिर, 1935 ई. में एक और कानून बनाकर अंग्रेज सरकार ने किसी भी मंदिर को चुन कर अपने नियंत्रण में लेने का प्रावधान किया। इस तरह, अंग्रेजों ने अपने-अपने धर्म-संस्थान संचालन के लिए क्रिश्चियनों-मुसलमानों, हिन्दुओं, और सिखों के लिए तीन तरह के कानून बना दिए। ताकि अपने हितों के लिए वे सहज ही अलग-अलग महसूस करें। दुर्भाग्यवश, स्वतंत्र भारत की देशी सरकार ने भी शुरू में ही (1951 ई.) हिन्दू धार्मिक संस्थानों को अपने नियंत्रण में रख सकने का कानून बनाया। उद्देश्य यह बताया गया ताकि उस की ‘सुचारू व्यवस्था’ की जा सके। यह किसी ने नहीं पूछा कि वही व्यवस्था मस्जिद या चर्च की होनी क्यों अनावश्यक है?यह व्यवस्था कैसी रही है, यह इसी से समझा जा सकता है कि 1986-2005 ई. के बीच बीस वर्षों में तमिलनाडु में मंदिरों की हजारों एकड़ जमीन ‘चली’ गई। अन्य हजारों एकड़ पर भी अवैध अतिक्रमण हो चुका है! यह सरकारी कब्जे की सुचाऱू व्यवस्था का एक नमूना है।

दूसरा नमूना यह कि अनेक मंदिरों से अनेकानेक बहुमूल्य मूर्तियाँ चोरी होती रही हैं, जो अनमोल होने के साथ-साथ देश की सांस्कृतिक विरासत भी है। किन्तु आज तक किसी को उस का जिम्मेदार नहीं ठहराया गया। किसी भी गैर-सरकारी नियंत्रण में ऐसा होना असंभव है कि इतनी बड़ी चोरियों पर किसी की जिम्मेदारी न बने। न किसी को दंड मिले! तीसरे, कई प्रतिष्ठित मंदिरों की पारंपरिक पुरोहित व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई है। सरकारी अमलों ने उस की परवाह नहीं की, या उस में हस्तक्षेप कर जाने-अनजाने बिगाड़ा। कई मामलों की तरह कांग्रेस के ‘स्यूडो सेक्यूलरिज्म’ और भाजपा के ‘रीयल सेक्यूलरिज्म’ में इस बिन्दु पर भी कोई अंतर नहीं है। राजस्थान में भाजपा राज में मंदिरों की कुछ संपत्ति पर भी कब्जा किया गया था। हरियाणा में भी समाचार हैं कि हिसार जिले के दो महत्वपूर्ण मंदिरों को कब्जे में लेने पर सत्ताधारी सोच रहे हैं।

आश्चर्य की बात यह भी है कि पिछले साल सुप्रीम कोर्ट में एटॉर्नी जेनरल वेणुगोपाल ने भी कहा था कि मंदिरों के संचालन में राज्य का कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। उन्होंने संकेत किया कि एक पंथ-निरपेक्ष राज्य प्रणाली में सरकार द्वारा मंदिरों पर नियंत्रण रखना उपयुक्त नहीं है। यह सब कहे जाने के बाद से साल भर से भी ज्यादा बीत चुका। मगर चूँकि मामला हिन्दू धर्म-समाज का है, इसीलिए इस पर हर प्रकार के सत्ताधारियों की उदासीनता एक सी है। कोर्ट में पिटीशन या कार्यपालिका को निवेदन, सब ठंढे बस्ते में पड़े रहते हैं।

प्रश्न हैः भारतीय राज्यसत्ता हिन्दुओं को अपने मंदिरों, धार्मिक संस्थाओं के संचालन करने के अधिकार से जब चाहे क्यों वंचित करती है? जबकि मुस्लिमों, ईसाइयों की संस्थाओं पर कभी हाथ नहीं डालती। यह हिन्दू-विरोधी धार्मिक भेद-भाव नहीं तो और क्या है? केरल से लेकर तिरूपति, काशी, बोधगया और जम्मू तक, संपूर्ण भारत के अधिकांश प्रसिद्ध हिन्दू मंदिरों पर राजकीय कब्जा कर लिया गया है। इन में हिन्दू जनता द्वारा चढ़ाए गए सालाना अरबों रूपयों का मनमाना उपयोग किया जाता है।

जिस प्रकार, चर्च, मस्जिद और दरगाह अपनी आय का अपने-अपने धार्मिक विश्वास और समुदाय को आगे बढ़ाने के लिए उपयोग करते हैं – वह अधिकार हिन्दुओं से छिना हुआ है! कई मंदिरों की आय दूसरे धर्म-समुदायों के क्रियाकलापों को बढ़ावा देने के लिए उपयोग की जाती है। आंध्र प्रदेश और कर्नाटक से हिन्दू मंदिरों की आय से मुसलमानों की हज सबसिडी देने की बात कई बार जाहिर हुई है।

यह किस प्रकार का सेक्यूलरिज्म है? यह तो स्थाई रूप से हिन्दू-विरोधी धार्मिक भेद-भाव है, जो सहज न्याय के अलावा भारतीय संविधान के भी विरुद्ध है। सामान्य मानवीय समानता के विरुद्ध तो है ही। यह अन्याय राजसत्ता के बल से हिन्दू जनता पर थोपा गया है। इस पर कोई राजनीतिक दल आवाज नहीं उठाता।

कुछ लोग तर्क करते हैं कि हिन्दू मंदिरों, धार्मिक न्यासों पर राजकीय नियंत्रण संविधान-सम्मत है। संविधान की धारा 31.ए के अंतर्गत धार्मिक संस्थाओं, न्यासों की संपत्ति का अधिग्रहण हो सकता है। काशी विश्वनाथ मंदिर के श्री आदिविश्वेश्वर बनाम उत्तर प्रदेश सरकार (1997) के निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, “किसी मंदिर के प्रबंध का अधिकार किसी रिलीजन का अभिन्न अंग नहीं है।” अतः यदि हमारे देश में राज्य ने अनेकानेक मंदिरों का अधिग्रहण कर उस का संचालन अपने हाथ में ले लिया, तो यह ठीक ही है।

वस्तुतः आपत्ति की बात यह है कि संविधान की धारा 31(ए) का प्रयोग केवल हिन्दू मंदिरों, न्यासों पर हुआ है। किसी चर्च, मस्जिद या दरगाह की संपत्तियाँ कितने भी घोटाले, विवाद, हिंसा या गड़बड़ी की शिकार हों, उन पर राज्याधिकारी हाथ नहीं डालते। जबकि संविधान की धारा 26 से लेकर 31 तक, कहीं किसी रिलीजन का नाम लेकर छूट या विशेषाधिकार नहीं दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों में भी ‘किसी धार्मिक संस्था’ या ‘ए रिलीजन’ की बात की गई है। मगर व्यवहारतः केवल हिन्दू मंदिरों, न्यासों पर राज्य की वक्र-दृष्टि उठती रही है। चाहे बहाना सही-गलत कुछ हो।

इस प्रकार, स्वतंत्र भारत में केवल हिन्दू समुदाय है जिसे अपने धार्मिक-शैक्षिक-सांस्कृतिक संस्थान चलाने का वह अधिकार नहीं, जो अन्य को है। यह अन्याय हिन्दू समुदाय को अपने धर्म और धार्मिक संस्थाओं का, अपने धन से अपने धार्मिक कार्यों, विश्वासों का प्रचार-प्रसार करने से वंचित करता है। उलटे, हिन्दुओं द्वारा श्रद्धापूर्वक चढ़ाए गए धन का हिन्दू धर्म के शत्रु मतवादों को मदद करने में दुरुपयोग करता है। यह हमारी राज्यसत्ता द्वारा और न्यायपालिका के सहयोग से होता रहा है – इस अन्याय को कौन खत्म करेगा? (जारी)

साभार https://www.nayaindia.com/ से

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