“धर्मे चार्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ।
यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत् क्वचित् ।।“
बहुत थोड़े महाकाव्य ही विश्व को उस तरह से आकर्षित और प्रभावित कर पाए हैं जो रामायण और महाभारत ने किया है। यही कारण है कि रामायण को लौकिक साहित्य के पहले ग्रंथ और महाभारत को पाँचवे वेद की संज्ञा दी गयी। पिछले हज़ारों वर्षों में भारत और भारत के बाहर दोनो ग्रंथों का अलग अलग तरीक़े से कथन और चित्रण हुआ है। विशेषतः पिछले 200 वर्षों में तो अनगिनत अनुवाद किए गए हैं। संभवतः ऐसा कोई देश नहीं है जहां इन दोनो कथाओं में से किसी एक का कोई रूप ना मिले। सुदूर पूर्वे इंडोनेशिया में तो महाभारत 10वीं शताब्दी में ही पहुँच गयी थी।
इंडोनेशिया जैसे छोटे क्षेत्र में भी महाभारत के के दो संस्करण हैं – एक जावानीस और एक कावी संस्करण। आवश्यक रूप से भारत, निश्चित रूप से, महाभारत का केंद्र बिंदु है। ये महाकाव्य आज भी समाज के लिए एक मार्ग दिखाने प्रकाश बना हुआ है – क्योंकि इस की महत्ता विद्वान और आमजनों के लिए समान हैं। विशेष बात ये है कि आधुनिकता और धर्मनिरपेक्षता के आक्रमणों के बाद भी, आधुनिक पीढ़ियां महाभारत पर मोहित रहीं हैं।
लेकिन फिर भी एक लड़ाई तो जारी है। परंपरावादी इसे एक पवित्र ग्रंथ और हमारी सभ्यता के निरंतर प्रवाह के रूप में देखते हैं। आधुनिक धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी समान रूप से रुचि तो रखते हैं लेकिन एक छिपे हुए कारण के लिए। वे अपनी विचारधारा के साथ इसके रूप में बदलाव लाने के लिए और अपभ्रंशित करने के लिए महाभारत पर और इसके प्रतिपादित मूल्यों पर लगातार आक्रमण करते रहते हैं।
तथाकथित बुद्धिजीवी इस महाकाव्य को उनके इतिहास के आख्यान में अनुकूल बनाने का प्रयत्न करते रहते हैं। इस प्रक्रिया में, वे हमारी सभ्यता की प्राचीनता को निष्प्रदीप्त कर देते हैं। साथ वे इस महाकाव्य द्वारा प्रवाहित दार्शनिक और सभ्यता की प्रतिभा और ज्ञान को भी रोकने में लगे हुए हैं हैं। किंतु, फिर भी आमजन आधुनिक इतिहास की तुलना में आज भी महाभारत से बहुत कुछ सीख रहें हैं।
यह एक क्रूर विडंबना ही है जो इतिहास को इस तरह की स्थिति का सामना करने के लिए विवश करती है। आधुनिक शिक्षाविद इस कठोर वास्तविकता का न तो समर्थन कर सकते हैं और न ही खंडन कर सकते हैं।
हालांकि, उन्होंने निश्चित रूप से महाकाव्य से समाज तक इस महाकाव्य के सभ्यतागत प्रवाह को बाधित किया है। महाभारत की भव्य विशाल नदी एक छोटी सी धारा में सिमट गई है। कुछ मायनों में, यह सरस्वती नदी के समान है जो महाभारत काल के बाद धीरे–धीरे लुप्त हो गयी है।
हालांकि, सरस्वती नदी लोगों के मनोमस्तिष्क से कभी गायब नहीं हुई। वह हमेशा एक अदृश्य नदी के रूप में हमारे अवचेतन में गहरे रूप से अंतर्निहित रही है, हमेशा सभ्यता का मार्गदर्शन करती है। यही कारण है कि , उपग्रह चित्रों ने प्राचीन काल में उसके प्रवाह को स्पष्ट रूप से स्थापित किया है।
भौगोलिक क्षेत्र ने उस नदी की तीरवर्ती प्रतिभा को नीचे गहराई में बनाए रखा है। वह बस प्रतीक्षा कर रही थी कि हम उसे आधुनिक तकनीक के माध्यम से खोज सकें। उसी परिपेक्ष्य और शैली में, हमें महाभारत को फिर से परिभाषित करने और इसे मुख्यधारा में वापस लाने की आवश्यकता है। उसे अपने पारंपरिक परिप्रेक्ष्य की पूर्णता के लिए महिमामण्डित किया जाना चाहिए लेकिन आधुनिक माध्यमों से।
हमारा नागरिक कर्तव्य
हमें समय के साथ धीरे–धीरे दो चीजें प्राप्त करनी हैं। सबसे पहले, महाभारत को घरेलू वार्तालाप में लाना होगा जिसमें हम लोग अपनी दैनिक चर्चाओं में महाभारत से जुड़ी बारे भी करें। दूसरा, महाकाव्य को कई स्तरों पर औपचारिक शिक्षा प्रणाली में एकीकृत करना होगा। हालाँकि, इस से पहले हमें ये सराहना और विवेचन कर लेना होगा कि महाभारत क्यों पढ़ने और समझने के लिये इतनी महत्वपूर्ण है।
संपूर्ण महाभारत में लगभग 1 लाख श्लोक हैं। यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है कि क्या यह एक संक्षिप्त संस्करण है या संपूर्ण? 17 वीं शताब्दी में भी ऐसा प्रश्न कभी नहीं उठा होगा।
महाभारत पारंपरिक पाठशालाओं में भारतीय शिक्षा प्रणाली का अभिन्न अंग रही थी। 1800-1825 के बीच हुए विस्तृत अध्ययन और सर्वेक्षणों में स्वयं अंग्रेजों ने इसे दर्ज किया है। हालाँकि, आज इस प्रश्न का उत्तर देने की आवश्यकता है।
यह निर्विवादित सत्य है कि ब्रिटिश नीति और शिक्षा ने पारंपरिक शिक्षा को कमजोर किया और इस से एक शून्य पैदा हुआ। स्वतंत्रता के बाद की हमारी शिक्षा प्रणाली, हालांकि औपनिवेशिक युग की तुलना में एक और बड़ी त्रासदी रही है। हमें अब पूरे विश्वास के साथ इस संकट का सामना करना चाहिए। यह हमारा अपना कुरुक्षेत्र है।
महाभारत की कहानियां शानदार और विलक्षण हैं। एक ओर, वे अपनी कल्पना के सुंदर चित्रण के कारण हमें आकर्षित करती हैं। दूसरी ओर, बुराई पर अच्छाई की विजय के कारण नैतिक मूल्यों का महत्व भी बताती हैं।
किंतु, इसके साथ ही महाभारत के साथ जुड़े हुए कुछ दूसरे पहलू और एक गहरी अंतर्दृष्टि भी हैं, जो हमारी सभ्यता के मूल से संबंधित हैं। ये कहानियाँ आज की पीढ़ी को हमारी सभ्यता को आकार देने वाली विचार प्रक्रियाओं को समझने का अफ़सर प्रदान करती हैं। उस सभ्यता के फिर से अन्वेषण और महिमामंडन की कुंजी इस महाकाव्य की कहानियों के भीतर ही छिपी हुई है।
हमारे राष्ट्र की वास्तविक प्रतिभा और चरित्र के लिए इस सब ज्ञान और महत्ता का सामान्य जन तक पहुँचना आवश्यक है। इसमें एक ऐसा विशेष बल है, जो राष्ट्र के लिए हितकर है। एक राष्ट्र के तौर पर जो कुछ भी हम प्राप्त करना चाहते हैं, वह अधिक से अधिक प्रभावशीलता के साथ किया जा सकता है अगर इस बल को हम प्रभावी रूप से सही दिशा में केंद्रित कर पाएँ। किंतु ये दोधारी तलवार है।
सभ्यता निरंतरता (सातत्य) आधुनिकीकरण के प्रति हमारी उत्कंठा के लिए अत्यंत आवश्यक है। हमें जो बदलाव चाहिए वह सभ्यता के स्थापत्य और बल के अनुरूप होना चाहिए। महाभारत की खूबी यह है कि जटिल विचार, आकर्षक ऐतिहासिक कहानियों के रूपकों में बंद है।
ये कहानियाँ पहले एक धारणा स्तर पर एक गहरी छाप बनाती हैं। धारणा मीमांसा के लिए प्रेरित करती है और अंतर्ज्ञान विकसित करती है। इसके बाद बुद्धि इसके चारों ओर संरचनाओं का निर्माण करती है। इसकी तुलना में, आधुनिकता दर्शन के लिए पहले कदम के रूप में जटिल बौद्धिक संरचनाओं को आगे बढ़ाने का कार्य करती है। इसी सरलता के कारण ,महाभारत कहानियों के माध्यम से वही वस्तु समझा पाती है, अधिक प्रभाव के साथ किंतु बोझ बने बग़ैर।
इस निबंध में, हम महाभारत के 3 पहलुओं पर चर्चा करेंगे जो हमारे लिए इस महाकाव्य का विस्तार से अध्ययन करने के लिए विवश कर रहे हैं
• दर्शन और जीवन का परिप्रेक्ष्य
• दूसरे भारतीय सभ्यता के ग्रंथों के अध्ययन में महाभारत का एक कुंजी या गाइड के रूप में महत्व
• महाभारत में समाहित हमारी सभ्यता के आचार– विचार
तत्त्वज्ञान और दर्शन
सभ्यताएँ कितने ही मायनों में एक दूसरे से भिन्न होती हैं। लेकिन सबसे आधारभूत कारण जो उन्हें अलग करता है वह है जीवन के उद्देश्य। भारतवर्ष में सभी समुदायों के बीच, हर समय, कुछ न कुछ अंतर और समानता बनी हुई रही है, जिसने इन सभी समुदायों और सम्प्रदायों को जोड़े रखा है। यहाँ मतभेद तो रहे हैं किंतु मनभेद नहीं।
जब से महर्षि मनु ने पुरुषार्थ चतुष्टय का प्रतिपादन किया तब भारतमंडल में जीवन का उद्देश्य सदैव पुरुषार्थ रहा है। संस्कृत में एक श्लोक है “यथा हि एकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत्। एवं पुरूषकारेण विना दैवं न सिध्यति॥“ पुरुषार्थ हीजीवन का पथ, मार्ग और गंतव्य है। महाभारत पुरुषार्थ की गहनता, गहराई और बहुविधता की पड़ताल करता है। विशेष रूप से, महाभारत इन प्रश्नों पर ध्यान केंद्रित करता है–
मोक्ष धर्म का निर्वाह कैसे करता है?
धर्म, अर्थ और काम को कैसे बनाए रखता है?
जीवन में अर्थ और काम का सही स्थान क्या है?
अर्थ और काम के संबंध में महाभारत में धर्म की महत्ता स्वीकृत और स्पष्ट है। परंतु केवल, प्रशंसा के लिए बहुत बार सही उपाय में रत्न प्रदर्शित नहीं किए जाते हैं। इसके लिए निरंतर अध्ययन की आवश्यकता है। इसके अलावा, मोक्ष के साथ धर्म के सम्बंध को महाभारत में बिल्कुल भी मान्यता नहीं दी गई है।
औपनिवेशिक समय और उसके बाद से ही मोक्ष को एक असंभव परिकल्पना माना गया है। इसका धर्म के साथ संबंध प्रगाढ़ नहीं बताया गया है। यह विशेष रूप से आधुनिकता द्वारा बनाए गए भ्रम के कारण है।
हालाँकि, इसका धर्म और इसलिए अर्थ और काम के साथ एक बहुत ही सशक्त और प्रगाढ़ सम्बंध है। महाभारत की कहानियाँ इन पुरुषार्थों को भव्यता और गहनता से प्रस्तुत करती हैं।
जहां तक धर्म का सवाल है, महाभारत हर श्लोक में इसका कारण बताता है। धर्म वह है जो सद्भाव में सब कुछ एक साथ रखता है। महाभारत जीवन के सभी क्षेत्रों में धर्म के सभी पहलुओं की खोज करता है – जो मायावी या समझ से परे है, या फिर गूढ़ है।
यह धर्म को नियमों या आचार संहिता के रूप में प्रस्तुत नहीं करता है। इसके बजाय, यह धर्म को सिद्धांतों के रूप में प्रस्तुत करता है जो कि तप के माध्यम से अनुभव करना चाहिए। इन सिद्धांतों को केवल सीखा और अनुभव किया जा सकता है और केवल एक सीमा तक लेखन ही में लगाया जा सकता है।
तपस्या ही साधक के ज्ञानचक्षु खोलती है और ज्ञान का अनुभव कराती है।” तनोति धर्मं विधुनोति कल्मषं हिनस्ति दुखं विदधाति संमदम् । चिनोति सत्त्वं विनिहन्ति तामसं तपोऽथवा किं न करोति देहिनाम् ॥” और इसके अलावा, हम सभी को धर्म के इन नियमों और सिद्धांतों के बारे में अच्छी समझ के माध्यम से अपने स्वयं के सही निर्णय लेने होंगे।इसका कोई दूसरा मार्ग नहीं है
परिणामस्वरूप, महाभारत नैतिक मुद्दों और जीवन की जटिलताओं का पता लगाने के लिए एक रूपरेखा प्रदान करता है। यह नैतिक मुद्दों की एक भव्य योजना प्रस्तुत करता है, जिनका मनुष्य को जीवन में सामना करना पड़ सकता है, लेकिन कहानियों के एक आकर्षक रंगावली के माध्यम से। इसकी प्रत्येक कहानी में, एक नैतिक संकट है।
महाभारत में वर्णित प्रत्येक संकट के उत्पन्न होने के कारण के लिए एक सूक्ष्म संकेत है। व्यक्ति क्या करता है, इसका स्पष्ट उल्लेख होने के बाद, ये कहानियाँ हमें यह सोचने के लिए विवश करती है कि क्या वह कार्यवाही नैतिक थी। क्या उस व्यक्तिविशेष ने धर्म के अनुसार कार्य नहीं किया है? ’ यह सोचने के लिए प्रेरित करता है कि वह व्यक्ति धर्म के अनुसार कार्य करने में असफल क्यों हुआ?
महाभारत उत्कृष्ट उदाहरण है हमें यह समझाने के लिए कि धर्म के मार्ग पर चलकर किस तरह वैचारिक टकराव का हल निकाला जा सकता है। इसके अलावा, यह व्यक्ति को स्वयं के द्वारा कार्यों की नैतिकता तय करने के लिए बहुत प्रेरित करता है। यह दार्शनिक रूपरेखा आज भी उतनी ही प्रासंगिक है।
भारतीय सभ्यता के ग्रंथों का अक्ष
भारतीय परम्परा को प्रिय लगभग सभी वस्तुएँ महाभारत में समायी हुईं है। इनके प्रवाह की दिशा का निष्कर्ष निकालना आसान नहीं है। यह महाभारत से लेकर अन्य ग्रंथों की ओर या इसके विपरीत हो सकता है। परंतु यह कहने के लिए पर्याप्त है कि महाभारत के माध्यम से, हमारे पास हमारी परंपरा के मूल तक पहुंचने का एक तरीका सरल तरीक़ा उपलब्ध है। हमें और हमारी आने वाली पीढ़ियों को इसका लाभ अवश्य उठाना चाहिए।
महाराज भरत, दुष्यंत के पुत्र, चंद्रवंश के सबसे प्रसिद्ध राजा रहें हैं। हमारे राष्ट्र को एक विशेष कारण से ही उनके नाम से जाना जाने लगा। यह उनके उनके राज में ही ऋग्वेद के औपचारिक संकलन की शुरुआत हुई। ऋग्वेद में भरत का बहुत सम्मान है। उनके अलावा, महाभारत में राजाओं के एक पूरे समूह का और उनकी गाथा का ऋग्वेद में संदर्भ मिलता है।
हिरण्येन परीवृतान् कृष्णान् शुक्लदतो मृगान भष्णारे भरतोऽददाच्छतं बद्वानि सप्त च॥ भरतस्यैष दौष्यन्तेरग्नि: साची गुणे चित:। यस्मिन् सहस्रं ब्राह्मण बद्वशो गा विभेजिरे॥ (8. 4)
पुरु–भरत राजा भरत, श्रिंजय, वद्र्श्यव, दिवोदास, पीजवाना, प्रतर्दन, सुदासा, सोमक और सहदेव को ऋग्वेद में संदर्भित किया गया है। इन राजाओं में से कई पांचाल वंश से हैं, जो द्रौपदी का भी कुल था।
उन्होंने ऋग्वेद की औपचारिकता में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उल्लेखित ऋषियों का समूह भी सूचीबद्ध नहीं किया जा सकता है; यह इतना बड़ा है। और साथ ही में महाभारत में वर्णित कई घटनाओं की ऋग्वेद में एक समानता है।
इनमे से कुछ सामान्य संदर्भ हैं और अन्य पूरक कहानियां हैं। महाभारत के आदि पर्व में समावरण कथा काफी प्रसिद्ध है। यह ऋग्वेद के दशरघ्न शुद्ध से संबंधित है। ऋग्वेद में उल्लिखित राजा प्रतर्दन महाभारत में समान रूप से प्रतिष्ठित हैं। उनकी दिव्य वीरता ने एक बारहमासी युद्ध को आतुर, राजा वीताहव्य को एक ऋषि में बदल दिया।
इनही वीताहव्य की वंशावली में नैमिषारण्य के ऋषि शौनक पैदा हुए हैं। यह शौनक ऋषि ही हैं जिनके यज्ञ में उग्रश्रवा सुती महाभारत सुनाते हैं। यह कहने के लिए पर्याप्त है कि महाभारत से ऋग्वेद के दर्शन का मार्ग सुलभ तरीक़े से उपलब्ध है। इस मार्ग का पोषण होना चाहिए, यह आधुनिक मानसिकता के लिए एकदम सही है।
महाभारत भागवत के भव्य ब्रह्मांड में प्रवेश करने के लिए प्रवेश द्वार भी है। भागवत की कृष्ण कथा भाग काफी प्रसिद्ध है। हालाँकि, भागवत इससे बहुत अधिक है। दार्शनिक, रूपक प्रतिभा से भरा, और ऐतिहासिक ज्ञान भागवत में इतना भरा हुआ है कि मन और मस्तिष्क दोनो उन्मुक्त हो जाएँ ।
अच्छी बात ये है कि महाभारत के साथ कई कहानियां आम हैं। महाभारत एक संदर्भ प्रदान करता है जिसमें से भागवत में प्रवेश किया जा सकता है। महाभारत एक ऐसे छलांग मारने वाले तखते जैसा है जो भागवत की आकाशीय ऊंचाइयों पर उड़ान भरने के लिए अच्छी शुरुआत है। भागवत एक ही बार में जीवन में हर चीज का मनोरम और दूर का दृश्य प्रदान करता है।
महाभारत भागवत का संदर्भ देता है और इसे जमीन के अनुभवों से जोड़ता है। कहा जाता है कि ऋषि व्यास ने महाभारत की रचना के बाद अशांति का अनुभव किया। ऋषि नारद ने व्यास से आग्रह किया कि वे स्वयं को उस पीड़ा से मुक्त करने के लिए भागवत की रचना करें। यह एक ही समय मे वास्तविक और रूपक दोनों है।
महाभारत से भागवत की ओर जाना भी हमारे लिए एक शुरुआत ही है। इसी तरह एक दूसरी दिशा में, महाभारत 18 महा पुराणों में प्रवेश करने की कुंजी भी है। परंपरा उन्हें व्यास द्वारा रचित के रूप में रखती है। पुराणों में भी महाभारत के साथ मिलती कई कहानियां हैं लेकिन एक अलग आख्यान के साथ।
पुराणों का उद्देश्य दर्शन है और इसलिए एक ही कहानी के आख्यानों में अंतर सामान्य वस्तु है। उनके पास ऐतिहासिक कथाएँ हैं लेकिन हमें उनका सावधानी से विवेचन करना चाहिए। मौलिक रूप से वे रूपक हैं। सारांश में, महा पुराणों में एक साथ दार्शनिक चिंतन का एक समूह है जो महाभारत और भागवत के साथ पूरक है।
महाभारत में प्राचीन भारत के समृद्ध सभ्यता संबंधी विचार
महाभारत के पुरुषार्थ परिप्रेक्ष्य के दो आयाम हैं – एक व्यक्ति के लिए और दूसरा समाज के लिए। व्यक्ति के लिए, यह मोक्ष के उद्देश्य से एक आध्यात्मिक विकास प्रस्तुत करता है। लेकिन, हमने आध्यात्मिक विकास को कभी सामाजिक, राजनीतिक और भौतिक विकास से अलग नहीं किया है।
दूसरे आयाम में, यह सामूहिक स्तर पर जीवन के संगठन के बारे में है जो व्यक्ति की पुरुषार्थ यात्रा को बढ़ावा देता है। इसके परिणामस्वरूप राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विचार आते हैं। महाभारत धर्म पर आधारित इस विचार वास्तुकला को प्रस्तुत करता है।
पुरुषार्थ सिर्फ हमारे ग्रंथों में ही नहीं रहा है बल्कि इसने हमारी सभ्यता को सक्रिय और विशिष्ट रूप से आकार दिया है। अपनी कहानियों में, अपने भारी संख्या में हुए संवादों में, महाभारत समाज, राजनीति, अर्थशास्त्र और इस तरह के दायरे में जो भी कुछ सही है, उसकी पड़ताल करता है।
शांति पर्व इस विशाल विचार की गवाही देता है। भीष्म बहुत ही सुंदर शब्दों में युधिष्ठिर को प्राचीन ज्ञान प्रदान करते हैं। जैसे भीष्ममनुष्य की सबसे सहज वृत्ति ‘तृष्णा’ की चर्चा करते हैं –
या दुर्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः । यो९सौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम् ।। (अनुशासन पर्व, अध्याय ७, श्लोक २१)
वन पर्व और अनुशासन पर्व में ऋषियोंऔर युधिष्ठिर के बीच समान बातचीत है। युधिष्ठिर को विदुर की सलाह, जिसे विदुर नीति के नाम से जाना जाता है, उद्योग पर्व का अभिन्न अंग है– क्रोधो हर्षश्च दर्पश्च ह्रीः स्तम्भो मान्यमानिता। यमर्थान् नापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते ॥ भावार्थ : जो व्यक्ति क्रोध, अहंकार, दुष्कर्म, अति–उत्साह, स्वार्थ, उद्दंडता इत्यादि दुर्गुणों की और आकर्षित नहीं होते, वे ही सच्चे ज्ञानी हैं ।
वन पर्व में, मार्कंडेय युधिष्ठिर को विविध और विचारोत्तेजक कहानियां सुनाते हैं। ऋषि शांडिली की कहानी एक ऐसी है जहां गरुड़ को सिखाया जाता है कि पराक्रमी को दूसरों की सहमति के बिना दूसरों के जीवन को प्रभावित करने के बारे में सोचने का कोई एकतरफा अधिकार नहीं है।
भारतवर्ष ने बाकी दुनिया की तुलना में कुछ सहस्राब्दियों पहले कुछ विषयों पर चिंतन करना शुरू कर लिया था। साथ ही हमने विभिन्न समाधानों की पेशकश करने वाले विभिन्न सामाजिक–राजनीतिक प्रणालियाँ भी बनायी। यह एक ऐसा ख़ज़ाना है जो आज की दुनिया के लिए अन्वेषण और पुनर्जीवन के लिए हमारी प्रतीक्षा कर रहा है।
इसके अलावा, कहानियां मानव स्वभाव और मनोविज्ञान में एक गहरी अंतर्दृष्टि देती हैं। यह असंख्य स्थितियों, पात्रों, संघर्षों, निहितार्थों और संकल्पों के माध्यम से एक समृद्ध विचारधारा को उत्पन्न होने में सहायता प्रदान करती हैं । यह एक ओर कर्म सिद्धांत और दूसरी ओर मानवीय व्यवहार का एक ग्रंथ है।
महाभारत की कहानियों से मानव मनोविज्ञान के एक सिद्धांत को निकालना और धरा पर सत्यापन अध्ययन करना संभव है। यह आवर्त सारणी की रचना करने के लिए मेंडेलीव पर प्रभाव डालने वाली संस्कृत वर्णमाला के संगठन के अनुरूप है।
महाभारत वह गुप्त तिजोरी हो सकती है जहाँ से कई आधुनिक सभ्यता के उपकरण बने हैं। जिस प्रकार देवों द्वारा वृत्रासुर का वध करने के लिए वज्रायुध बनाने के लिए ऋषि दधीचि की रीढ़ का उपयोग किया गया था।
शांति पर्व का राजधर्म पर्व एक राजा के उत्तरदायित्व का एक ग्रंथ है। यह अपने आप में पूर्ण राजनीतिक विचार है। शांति पर्व के अपधर्म पर्व में ऐसे सिद्धांत शामिल हैं जिनके आधार पर व्यक्ति तनावग्रस्त परिस्थितियों में सामान्य संहिता को अपवाद बना सकता है। आधुनिक न्यायपालिका और कार्यपालिका को इन सब से बहुत कुछ सीखना है।
धर्म की खोज कई स्तरों पर की जाती है – एक व्यक्ति के स्तर पर, एक परिवार के भीतर, रहनेवाले स्थान में, एक राज्य के स्तर पर और ब्रह्मांड के स्तर पर। महाभारत इनमें से प्रत्येक में केंद्रित क्षेत्रों और एक से दूसरे में जाने के तरीकों और साधनों के संचालन के सिद्धांत प्रदान करता है।
यह धर्म के आधार पर उन क्षेत्रों में से प्रत्येक में न्याय के नियमों को एक मनुष्य फिर से कैसे बना सकता है, इसकी जानकारी प्रदान करता है। हर नियम का एक अपवाद होता है और आवश्यकता होने पर मनुष्य उन अपवादों को बनाने में सक्षम होना चाहिए। धर्म इसके लिए एक ढांचा प्रदान करता है। महाभारत कई मायनों में उन अपवादों को ना बना पाने वाली उस भव्य असफलता का परिणाम है जो अपवाद पितामह भीष्म भी नहीं बना पाए।
सारांश में, भारतमंडल में आधुनिक उदारवाद का एक निश्चित विकल्प है। यह हमारे प्राचीन ग्रंथों में वर्णित है और इसने हमें सैकड़ों वर्षों से आकार दिया है। हमें नए तरीकों से उन्हें इस आधुनिक दुनिया में वापस लाने की जरूरत है। जिस प्रकार भगीरथ ने गंगा को देवलोक से लाकर उनके पूर्वजों की राख पर प्रवाहित करके उन्हें सद्गति प्रदान की। हमें स्वयं को सद्गति प्रदान करने की आवश्यकता है।
अन्त में, महाभारत मानवता के लिए एक चेतावनी है। यह स्पष्ट रूप से कहता है कि कि सबसे अच्छा मनुष्य भी भी अंध–दृष्टि प्राप्त कर सकता है और धर्म के पथ से विचलित हो सकता है। जब सभा में एक महिला को अपमानित किया गया, तो उस राजदरबार के सब वरिष्ठ ज्ञानी लोग, केवल सोच रहे थे कि क्या उन्हें हस्तक्षेप करने का अधिकार है किंतु किसी ने भी हस्तक्षेप करने का निर्णय नहीं लिया।
केवल भगवान कृष्ण और विदुर ने अपने कार्य और कर्म की पूर्ण स्पष्टता को बनाए रखा। वैचारिक ज्ञान नहीं किंतु क्रिया/कर्म के लिए तैयार ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है जो केवल धर्म का पालन करता है। यह महाभारत की भव्य चेतावनी है। समाज को सही समय पर हर पीढ़ी में इस भावना को विकसित करना चाहिए। ऐसे दृष्टिकोणों के लिए, हमें महाभारत की ओर मुड़ना चाहिए।
इस श्रृंखला के अगले भाग में, हम अपने इतिहास के दृष्टिकोण से महाभारत के महत्व को देखेंगे।
(यह लेख शिव कुमार द्वारा लिखित पहले आंग्ल भाषा में प्रस्तुत किया गया )
साभार- https://www.indictoday.com/ से