लखनऊ के आंचल में मुहब्बत के फूल खिलाने और गलियों में फ़रिश्तों का पता ढूंढते योगेश प्रवीन नहीं रहे , यह ख़बर सुनते ही दिल धक्क से रह गया। योगेश प्रवीन हमारे निजी दुःख-सुख के साथी थे। अग्रज थे। सही मायने में हमारे शुभचिंतक। सर्वदा प्रोत्साहित करने वाले। एक पैसे का अहंकार नहीं था उन में। सर्वथा विनम्र। साफ़ बात करने वाले। कोई लप्पो-झप्पो नहीं। सर्वदा सक्रिय रहने वाले। उन का जब मन होता हमारे घर आ जाते थे। बीते महीने ही उन से भेंट हुई थी। बिलकुल फिट थे वह। लखनऊ से बाहर , नोएडा में हूं। इस लेख के मार्फत ही उन्हें मेरी विनम्र श्रद्धांजलि ! योगेश प्रवीन आप सर्वदा याद आएंगे।
लखनऊ के हुस्न का हाल जानना हो तो योगेश प्रवीन से मिलिए। जैसे रामकथा बहुतों ने लिखी है, वैसे ही लखनऊ और अवध का इतिहास भी बहुतों ने लिखा है। पर अगर रामकथा के लिए लोग तुलसीदास को जानते हैं तो लखनऊ की कथा के लिए हम योगेश प्रवीन को जानते हैं। अब यही योगेश प्रवीन अब की अट्ठाइस अक्टूबर को पचहत्तर वर्ष के हो रहे हैं तो उन की कथा भी बांचने का मन हो रहा है। कभी नवाब वाज़िद अली शाह ने कुल्लियाते अख्तर में लिखा था :
लखनऊ हम पर फ़िदा है हम फ़िदा-ए-लखनऊ
आसमां की क्या हकीकत जो छुड़ाए लखनऊ।
तो योगेश प्रवीन भी इस लखनऊ पर इस कदर फ़िदा और जांनिसार हैं कि लोग-बाग अब उन्हें लखनऊ का चलता फिरता इनसाइक्लोपीडिया कहते हैं। आप को लखनऊ के गली-कूचों के बारे में जानना हो या लखनऊ की शायरी या लखनऊ के नवाबों या बेगमातों का हाल जानना हो, ऐतिहासिक इमारतों, लडा़इयों या कि कुछ और भी जानना हो योगेश प्रवीन आप को तुरंत बताएंगे। और पूरी विनम्रता से बताएंगे। पूरी तफ़सील से और पूरी मासूमियत से। ऐसी विलक्षण जानकारी और ऐसी सादगी योगेश प्रवीन को प्रकृति ने दी है जो उन्हें बहुत बड़ा बनाती है। लखनऊ और अवध की धरोहरों को बताते और लिखते हुए वह अब खुद भी एक धरोहर बन चले हैं। उन का उठना-बैठना, चलना-फिरना जैसे सब कुछ लखनऊ ही के लिए होता है। लखनऊ उन को जीता है और वह लखनऊ को। लखनऊ और अवध पर लिखी उन की दर्जनों किताबें अब दुनिया भर में लखनऊ को जानने का सबब बन चुकी हैं। इस के लिए जाने कितने सम्मान भी उन्हें मिल चुके हैं।
लखनऊवा नफ़ासत उन के मिजाज और लेखन दोनों ही में छलकती मिलती है। उन्हें मिले दर्जनों प्रतिष्ठित सम्मान भी उन्हें अहंकार के तराजू पर नहीं बिठा पाए। वह उसी मासूमियत और उसी सादगी से सब से मिलते हैं। उन से मिलिए तो लखनऊ जैसे उन में बोलता हुआ मिलता है। गोया वह कह रहे हों कि मैं लखनऊ हूं ! लखनऊ पर शोध करते-करते उन का काम इतना बडा़ हो गया कि लोग अब उन पर भी शोध करने लगे हैं। लखनऊ विश्वविद्यालय की हेमांशु सेन का योगेश प्रवीन पर शोध यहां कबिले ज़िक्र है। लखनऊ को ले कर योगेश प्रवीन के शोध तो महत्वपूर्ण हैं ही, लखनऊ के मद्देनज़र उन्हों ने कविता, नाटक आदि भी खूब लिखे हैं। लखनऊ से यह उन की मुहब्बत ही है कि वह लिखते हैं :
लखनऊ है तो महज़, गुंबदो मीनार नहीं
सिर्फ़ एक शहर नहीं, कूच और बाज़ार नहीं
इस के आंचल में मुहब्बत के फूल खिलते हैं
इस की गलियों में फ़रिश्तों के पते मिलते हैं
जैसे इटली के रोम शहर के बारे में कहा जाता है कि रोम का निर्माण एक दिन में नहीं हुआ वैसे ही लखनऊ का निर्माण भी कोई एक-दो दिन में नहीं हुआ। किसी भी शहर का नहीं होता। तमाम लोगों की तरह योगेश प्रवीन भी मानते हैं कि राजा राम के छोटे भाई लक्ष्मण ने इस नगर को बसाया। इस नगर को लक्ष्मणपुरी से लक्ष्मणावती और लखनावती होते हुए लखनऊ बनने में काफी समय लगा। प्रागैतिहासिक काल के बाद यह क्षेत्र मौर्य,शुंग, कुषाण, गुप्त वंशों और फिर कन्नौज नरेश हर्ष के बाद गुर्जर प्रतिहारों, गहरवालों, भारशिवों तथा रजपसियों के अधीन रहा है। वह मानते हैं कि इन सभी युगों की सामग्री जनपद में अनेक स्थानों से प्राप्त हुई है। लक्ष्मण टीले, गोमती नगर के पास रामआसरे पुरवा, मोहनलालगंज के निकट हुलासखेडा़ एवं कल्ली पश्चिम से प्राप्त अवशेषों ने लखनऊ के इतिहास को ईसा पूर्व लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व तक पीछे बढा़ दिया है। ग्यारहवीं से तेरहवीं शताब्दी के बीच यहां मुसलमानों का आगमन हुआ। इस प्रकार यहां के पूर्व निवासी भर, पासी, कायस्थ तथा ब्राह्मणों के साथ मुसलमानों की भी आबादी हो गई।
योगेश प्रवीन ने न सिर्फ़ लखनऊ के बसने का सिलसिलेवार इतिहास लिखा है बल्कि लखनऊ के सांस्कृतिक और पुरातात्विक महत्व का भी खूब बखान किया है। कई-कई किताबों में। दास्ताने अवध, ताजेदार अवध, गुलिस्ताने अवध, लखनऊ मान्युमेंट्स, लक्ष्मणपुर की आत्मकथा, हिस्ट्री आफ़ लखनऊ कैंट, पत्थर के स्वप्न,अंक विलास आदि किताबों में उन्हों ने अलग-अलग विषय बना कर अवध के बारे में विस्तार से जानकारी दी है। जब कि लखनऊनामा, दास्ताने लखनऊ, लखनऊ के मोहल्ले और उन की शान जैसी किताबों में लखनऊ शहर के बारे में विस्तार से बताया है। एक से एक बारीक जानकारियां। जैसे कि आज की पाश कालोनी महानगर या चांदगंज किसी समय मवेशीखाने थे। आज का मेडिकल कालेज कभी मच्छी भवन किला था। कि फ़्रांसीसियों ने कभी यहां घोड़ों और नील का व्यापार भी किया था। कुकरैल नाले के नामकरण से संबंधित जनश्रुति में वफ़ादार कुतिया को दंडित करने और कुतिया के कुएं में कूदने से उत्पन्न सोते का वर्णन करते हुए दास्ताने लखनऊ में योगेश प्रवीन लिखते हैं, ‘ जिस कुएं में कुतिया ने छलांग लगाई उस कुएं से ही एक स्रोत ऐसा फूट निकला जो दक्षिण की तरफ एक छोटी सी नदी की सूरत में बह चला। इस नदी को कुक्कर+ आलय का नाम दिया गया जो मुख सुख के कारण कुक्करालय हो गया फिर प्रयत्न लाघव में कुकरैल कहा जाने लगा।’
वह कैसे तो गुलिस्ताने अवध में बारादरी की आत्मकथा के बहाने लखनऊ का इतिहास लिखते हैं, ‘ फिर इस मिट्टी से एक तूफ़ान उठा जिस ने नई नवेली विदेशी सत्ता की एक बार जड़ें हिला दीं। इस तूफ़ान का नाम गदर था। बेगम हज़रतमहल ने जी-जान से सन सत्तावन की इस आग को भड़काया था। मैं ने हंस के शमाएं वतन के परवानों को इस आग में जलते देखा है। राजा जिया लाल सिंह को फांसी पर चढ़ते देखा है और मौलवी अहमदुल्ला उर्फ़ नक्कारा शाह की जांबाज़ी के नमूने देखे हैं, मगर मुद्दतों से मराज और मोहताज़ हिंदुस्तानी एक अरसे के लिए गोरों की गिरफ़्त में आ गए।
‘कैसरबाग लूट लिया गया। करोड़ों की संपदा कौड़ी के मोल बिक रही थी। जिन के पांवों की मेंहदी देखने को दुनिया तरसती थी, वह बेगमात अवध नंगे सिर बिन चादर के महल से निकल रही थीं। जो नवाबज़ादे घोड़ी पर चढ़ कर हवाखोरी करते थे वे फ़िटन हांकने लगे थे।’
लक्ष्मणपुर की आत्मकथा में अवध शैली की उत्त्पत्ति के बारे में वह लिखते हैं, ‘ लखनऊ के स्वाभाविक आचरण के अनुरुप यहां राजपूत तथा मुगल वास्तु-कला शैली के मिले-जुले स्थापत्य वाले भवन बड़ी संख्या में मिलते हैं। भवन निर्माण कला के उसी इंडोसिरेनिक स्टाइल में कुछ कमनीय प्रयोगों द्वारा अवध वास्तुकला का उदय हुआ था।’ वह लिखते हैं कि, ‘लखौरी ईंटों और चूने की इमारतें जो इंडोसिरेनिक अदा में मुसकरा रही हैं, यहां की सिग्नेचर बिल्डिंग बनी हुई हैं।’ वह आगे बताते हैं, ‘ इन मध्यकालीन इमारतों में गुप्तकालीन हिंदू सभ्यता के नगीने जड़े मिलेंगे। दिल्ली में गुलाम वंश की स्थापना काल से मुगलों की दिल्ली उजड़ने तक शेखों का लखनऊ रहा। इन छ: सदियों में सरज़मींने अवध में आफ़तों की वो आंधियां आईं कि हज़ारों बरस पहले वाली सभ्यता पर झाड़ू फिर गई। नतीज़ा यह हुआ कि वो चकनाचूर हिंदू सभ्यता या तो तत्कालीन मुस्लिम इमारतों में तकसीम हो गई या फिर लक्ष्मण टीला, किला मौहम्मदी नगर और दादूपुर की टेकरी में समाधिस्थ हो कर रह गई और यही कारण है कि लखनऊ तथा उस के आस-पास मंदिरों में खंडित मूर्तियों के ढेर लगे हैं।’
यह और ऐसी बेशुमार जानकारियां योगेश प्रवीन की किताबों में समाई मिलती हैं। तो बहारे अवध में लखनऊ के उत्तर-मध्य काल की तहज़ीब, रीति-रिवाज़, जीवन शैली, हिंदू और मुस्लिम-संस्कृति के इतिहास और उस के प्रभाव के बारे में उन्हों ने बड़ी तफ़सील से लिखा है। लखनऊ की शायरी जहान की ज़ुबान पर भी उन की एक बेहतरीन किताब है। लखनऊ से जुड़े तमाम शायरों मीर, हसरत मोहानी से लगायत मजाज, नूर, वाली आसी, मुनव्वर राना और तमाम शायराओं तक की तफ़सील से चर्चा है। और उन की शायरी की खुशबू भी। योगेश प्रवीन की ताजदारे अवध के बारे में अमृतलाल नागर ने लिखा था कि यह सत्यासत्य की दुर्गम पहाड़ियों के बीच कठिन शोध का परिणाम है। ज़िक्र ज़रुरी है कि अमृतलाल नागर की रचनाभूमि भी घूम-फिर कर लखनऊ ही रही है। गुलिस्ताने अवध की चर्चा करते हुए शिवानी ने लिखा है, ‘ गुलिस्ताने अवध में वहां के नवाबों की चाल-चलन, उन की सनक, उन का विलास-प्रिय स्वभाव, सुंदरी बेगमें, कुटिल राजनीति की असिधार में चमकती वारांगनाएं, अनिवार्य ख्वाजासरा, नवीन धनी इन सब के विषय में योगेश ने परिश्रम से लिखा है।’ डूबता अवध के बारे में नैय्यर मसूद ने लिखा है कि किताब का नाम तो डूबता अवध है लेकिन हकीकत यह है कि इस किताब में हम को पुराना अवध फिर एक बार उभरता दिखाई देता है।
यह अनायास नहीं है कि जब कोई फ़िल्मकार फ़िल्म बनाने लखनऊ आता है तो वह पहले योगेश प्रवीन को ढूंढता है फिर शूटिंग शुरु करता है। वह चाहे शतरंज के खिलाड़ी बनाने आए सत्यजीत रे हों या जुनून बनाने आए श्याम बेनेगल हों या फिर उमराव जान बनाने वाले मुजफ़्फ़र अली या और तमाम फ़िल्मकार। योगेश प्रवीन की सलाह के बिना किसी का काम चलता नहीं। ज़िक्र ज़रुरी है कि आशा भोसले, अनूप जलोटा, उदित नारायण, अग्निहोत्री बंधु समेत तमाम गायकों ने योगेश प्रवीन के लिखे भजन, गीत और गज़ल गाए हैं।
वैसे तो पेशे से शिक्षक रहे योगेश प्रवीन ने कहानी, उपन्यास, नाटक, कविता आदि तमाम विधाओं में बहुत कुछ लिखा है। पर जैसे पूरी गज़ल में कोई एक शेर गज़ल का हासिल शेर होता है और कि वही जाना जाता है। ठीक वैसे ही योगेश प्रवीन का कुल हासिल लखनऊ ही है। वह लिखने-बोलने और बताने के लिए लखनऊ ही के लिए जैसे पैदा हुए हैं। लखनऊ, लखनऊ और बस लखनऊ ही उन की पहचान है। उन से मैं ने एक बार पूछा कि आखिर अवध और लखनऊ के बारे में लिखने के लिए उन्हें सूझा कैसे? कि वह इसी के हो कर रह गए? तो वह जैसे फिर से लखनऊ में डूब से गए। कहने लगे कि छोटी सी छोटी चीज़ को भी बड़े औकात का दर्जा देना लखनऊ का मिजाज है, इस लिए। यहां लखौरियों से महल बन जाता है। कच्चे सूत का कमाल है, चिकन ! है किसी शहर में यह लियाकत? वह कहने लगे जादू सरसो पे पढ़े जाते हैं, तरबूज पर नहीं। आप दुनिया के किसी शहर में चले जाइए, कुछ दिन रह जाइए या ज़िंदगी बिता दीजिए पर वहां के हो नहीं पाएंगे। पर लखनऊ में आ कर कुछ समय ही रह लीजिए आप यहां के हो कर रह जाएंगे। आप लखनाऊवा हो जाएंगे।
वह बताने लगे कि एक बार अपनी जवानी के दिनों में वह एक रिश्तेदारी में हैदराबाद गए। वहां एक प्रदर्शनी देखने गए। प्रदर्शनी में लखनऊ की बहुत गंदी तसवीर दिखाई गई थी। एक पिंजरे में बटेर, पतंग, मुजरा, हिजडा़, मुर्गा, झाड़-फ़ानूश आदि यहां की विलासिता। लखनऊ के सामाजिक इतिहास का कोई ज़िक्र नहीं, सिर्फ़ अपमान। तो मुझे बहुत तकलीफ़ हुई। फिर जब मुझे पढ़ने-लिखने का होश हुआ और मैं ने समाज में आंख खोली तो मैं ने देखा कि अवध कल्चर और लखनऊ का नाम लेते ही लोगों के सामने एक पतनशील संस्कृति, एक ज़नाने कल्चर और नाच-गाने का स्कूल, जहां रास-विलास का बडा़ प्रभाव है, यही तसवीर बन कर सामने आ जाता है। वह बताते हैं कि मुझे बहुत दुख हुआ और लगा कि हमारे समाज को राजघराने का इतिहास ही नहीं, आम आवाम का इतिहास भी जानना चाहिए। जो कि कहीं कायदे से नहीं लिखा गया। अब देखिए कि १८५७ की जंगे-आज़ादी में लखनऊ की जो भूमिका रही है वो किसी की नहीं है।
ईस्ट इंडिया कंपनी के ४ दुर्दांत सेना नायकों में से सिर्फ़ एक कालिन कैंपबेल ही यहां से सही सलामत लौट पाया था। लखनऊ का कातिल हेनरी लारेंस, कानपुर का ज़ालिम जनरल नील, दिल्ली का धूर्त नृशंस मेजर हडसन तीनों लखनऊ में यहां के क्रांतिकारियों द्वारा मार गिराए गए। और लखनऊ का मूसाबाग, सिकंदरबाग, आलमबाग, दिलकुशा, कैसरबाग, रेज़ीडेंसी के भवन हमारे पूर्वजों की वीरता के गवाह हैं। हिंदी की पहली कहानी रानी केतकी की कहानी यहीं लखनऊ के लाल बारादरी भवन के दरबार हाल में सैय्यद इंशा अल्ला खां इंशा द्वारा लिखी गई। उर्दू का विश्वविख्यात उपन्यास उमराव जान अदा यहां मौलवीगंज में सैय्यद इशा अल्ला खां इंशा द्वारा लिखा गया। हिदुस्तान का पहला ओपेरा इंदर-सभा यहां गोलागंज में मिर्ज़ा अमानत द्वारा लिखा गया। मामूली से मामूली को बडा़ से बडा़ रुतबा देना लखनऊ का मिजाज है। दूर-दूर के लोगों तक को अपना बना लेने का हुनर लखनऊ के पास है। उर्दू शायरी का लखनऊ स्कूल आज भी दुनिया में लाजवाब है। जाहिर है कि यह सारी बातें योगेश प्रवीन के पहले भी थीं पर लोग कहते नहीं थे। लखनऊ की छवि सिर्फ़ एक ऐय्याश संस्कृति से जोड़ कर देखी जाती थी। पर दुनिया के नक्शे में लखनऊ को एक नायाब संस्कृति और तहज़ीब से जोड़ कर देखने का कायल बनाया योगेश प्रवीन, उन के शोध और उन के लिखे लखनऊ के इतिहास ने। योगेश प्रवीन के लखनऊ से इश्क की इंतिहा यही भर नहीं है। योगेश प्रवीन की मानें तो लखनऊ बेस्ट कंपोज़िशन सिटी आफ़ द वर्ड है। लखनऊ का दुनिया में कोई जोड़ नहीं है। बेजोड़ है लखनऊ।
लगता है कि जैसे योगेश प्रवीन को ईश्वर और प्रकृति ने लखनऊ का इतिहास लिखने ही के लिए दुनिया में भेजा था। नहीं योगेश प्रवीन तो लखनऊ के मेडिकल कालेज में मेडिकल की पढ़ाई के लिए एडमीशन ले चुके थे। सी.पी.एम.टी. के मार्फ़त। उन्हें बनना तो डाक्टर था। पर बीच पढ़ाई में वह बीमार पड़ गए। मेडिकल कालेज से पढ़ाई कर बनने वाला डाक्टर अब डाक्टरों के चक्कर लगाने लगा। एक बार तो उन्हें मृत समझ कर ज़मीन पर लिटा भी दिया गया। वह बताते हैं कि खैर किसी तरह उठा तो फिर कलम उठा कर ही अपने को संभाला किसी तरह। पढ़ाई छूट गई। टाइम पास करने के लिए वह अपने एक रिश्तेदार की कोचिंग में केमिस्ट्री पढ़ाने लगे, सीपी.एम.टी. की तैयारी करने वाले लड़कों को पढ़ाने लगे। मुफ़्त में। कि तभी विद्यांत कालेज में किसी ने कहा कि वहां मुफ़्त में पढ़ाते हो, यहां आ कर पढा़ओ, पैसा भी मिलेगा। तो वहां पढ़ाने लगा। इंटर तक पढा़ था। फिर धीरे-धीरे हिंदी में एम. ए. किया, लेक्चरर हो गया। फिर संस्कृत में भी एम.ए,. किया। लखनऊ से इश्क था ही लखनऊ पर लिखने लगा। ज़िक्र ज़रुरी है कि योगेश प्रवीन चिर कुंवारे हैं। बीमारी के चक्कर में विवाह नहीं किया। फिर लखनऊ से इश्क कर लिया। अपने कुंवारेपन और लिखने-पढ़ने के शौक पर वह ज़ौक का एक शेर सुनाते हैं, ‘रहता सुखन से नाम कयामत तलक है ज़ौक/ औलाद से तो बस यही दो पुश्त, चार पुश्त!’
योगेश प्रवीन पर अपनी मां श्रीमती रमा श्रीवास्तव का सब से ज़्यादा प्रभाव दिखता है। रमा जी भी साहित्यकार थीं। उस दौर में भी उन की दो किताबें छपी थीं। संचित सुमन नाम से कविता संग्रह और मधु सीकर नाम से कहानी संग्रह। वह बातचीत में अकसर अपनी मां का ज़िक्र करते मिलते हैं। उन की जुबान पर मां और लखनऊ जितना होते हैं कोई और नहीं। जैसे लखनऊ के किस्से खत्म नहीं होते वैसे ही योगेश प्रवीन के किस्से भी खत्म होने वाले नहीं हैं। बहुतेरी बातें, बहुतेरे फ़साने हैं लखनऊ और उस से योगेश प्रवीन की आशिकी के। ईस्ट इंडिया कंपनी के दौर में जाने आलम वाजिद अली शाह ने कलकत्ते में अपनी नज़रबंदी के दौरान कहा था कि, ‘ कलकत्ता मुल्क का बादशाह हो सकता है लेकिन रुह का बादशाह लखनऊ ही रहेगा क्यों कि इंसानी तहज़ीब का सब से आला मरकज़ वही है।’ आला मरकज़ मतलब महान केंद्र।
…तो योगेश प्रवीन भी शायद लखनऊ में उसी रुह का आला मरकज़ ढूंढते फिरते रहते हैं। तभी तो वह लखनऊ की गलियों में फ़रिश्तों का पता ढूंढते फिरते हैं किसी फ़कीर के मानिंद। और लखनऊ के आंचल में खिलता हुआ फूल पा जाते हैं। यह आसान नहीं है। वाज़िद अली शाह के ही एक मिसरे में जो कहें कि दरो दीवार पे हसरत से नज़र करते हैं। लखनऊ के प्रति उन की दीवानगी को देखते हुए उन्हें लखनऊ का मीरा कहने को जी चाहता है। हालां कि अब लखनऊ काफी बदल गया है। यह लक्ष्मणपुरी, नवाबों की नगरी से आगे अब आई. टी. हब बनने की ओर अग्रसर है। तो भी उन्हीं के शेर में जो कहूं कि, ‘तब देख के छिपते थे, अब छिप के देखते हैं/ वो दौरे लड़कपन था, ये रंगे जवानी है।’ अब जो भी हो जाए पर लखनऊ से मीरा की तरह आशिकी फ़रमाने वाला योगेश प्रवीन तो बस एक ही रहेगा। कोई और नहीं। उन को इस कौस्तुभ जयंती पर बहुत-बहुत सलाम ! बहुत-बहुत सैल्यूट ! ईश्वर करे कि वह शतायु हों और लखनऊ के आंचल में खिलते फूलों को और विस्तार दें और इसी मासूमियत से यहां की गलियों में फ़रिश्तों का पता ढूंढते हुए ही लखनऊ पर जांनिसार रहें, अपनी पूरी मासूमियत और रवानी के साथ।
(लेखक का अपना http://sarokarnama.blogspot.com/ है और समसामयिक विषयों पर नियमित रूप से लिखते हैं)
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