Saturday, December 21, 2024
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इंसान हो शाकाहारी बनो, जानवरों की तरह मांसाहारी नहीं

मांसाहारियों का एक सदाबहार तर्क मैं अक्सर सुनती हूँ – पेड़पौधों में भी तो जीवन होता है, तो उन्हें क्यों खाते हो?
आइए, आज इस तर्क की समीक्षा की जाए…
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पेड़-पौधे की डालियां तो आधी तूफान अधिक वर्षा के कारण भी टूट जाती हैं, यदि कोई शाकाहारी उन्हे काट भी देता है तो वह वापस डालियां निकाल कर बड़ा होने लगता है, उसे कोई फर्क नही पड़ता उसके एक हिस्से के टूट जाने से क्योंकि उनका उद्देश ही यही है,पर क्या कोई जीव जिसका कुतर्की मांस भक्षी गर्दन से काट देते हैं वापस खड़ा हो जाता है? उसका सिर वापस उग जाता है वह क्या बोलने लगता है?
तो मैं मांसाहारियों से पूछना चाहती हूँ कि क्या एक शाकाहारी पेड़ उखाड़ कर खा जाता है? पौधे को तोड़ कर निगल लेता है? पर एक जीव का जब जीवन छीना जाता है उसके भी दर्द होता है वह चीखता है, चिल्लाता है, उसके आंसू बहते हैं,जीने के लिए रहम की भीख मांगता है, मनुष्यो की तरह उसके भी खून का रंग लाल होता है,उस जीव के भी संवेदना होती है, उसे बंधन से आजाद करो फिर वह भी बता सकता है कि वह जीवन जीने के लिए क्या क्या कर सकते हैं!
एक कुतर्की मांसभक्षी बायोलॉजी के बेसिक नियमों से भी अनिभिज्ञ होता है अथवा उसे पता होता कि शाकाहारी तो “फल-फूल-सब्जी-अन्न” जैसी चीजें खाते हैं, जो पेड़-पौधों का हिस्सा होते हैं, स्वयं पेड़पौधे नहीं।
अरे कुतर्की मिथ्या भाषी जिस तेल और मसालों से उस निरापराधी जीव के मांस और खून जिसका रंग हमारी तरह लाल होता है छौंक लगाकर खाते हों वह मसाला और तेल शाकाहार है उसे खाना बंद करो फिर देखते हैं कितने दिन तक तुम कितना मांस भक्षी हो , हमारे शाकाहारी तेल और मसालों में इतने अच्छे हैं कि भूसा और टट्टी को भी छौंक दो तो उसमे भी स्वाद आ जायेगा।
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फल-फूल तो वृक्ष उत्पन्न ही इसलिए करता है, ताकि दूसरे जीव/कीट पतंगे/पक्षी फल-फूल की तरफ आकर्षित हों, उनका सेवन करें। अब चूंकि बीज स्वयं ऐसे रसायनों से कोटेड होता है, जिन्हें पशु-पक्षी पचा नहीं पाते, इसलिए बीज उनकी डाइजेस्टिव ट्रैक्ट से सुरक्षित निकल कर भूमि का हिस्सा बन कर पेड़-पौधों की उत्पत्ति करता है। जिसे ये हिंसा बताते हैं, वास्तव में यह प्रकृति द्वारा वनस्पति को प्रदत्त प्रजनन विधि है।
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इसके अलावा शाकाहारी पौधों के उन हिस्सों को भी ग्रहण करता है, जिन्हें पौधे फोटोसिंथेसिस की मदद से भोजन के रूप में स्टोर रखते हैं। इस प्रक्रिया में भी किसी पेड़-पौधे की जान नहीं चली जाती है और न ही पेड़-पौधों को दर्द होता है, यह भी विज्ञान प्रमाणित है कि पेड़-पौधों में दर्द महसूस कराने वाले न्यूरो-रिसेप्टर्स नहीं होते। उसके अलावा, हमारे द्वारा ग्रहण किये गए हिस्से को पेड़ वापस उगाने की भी क्षमता रखता हैं।
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इस पूरी प्रक्रिया में दूसरे का भोजन हड़पने की “थोड़ी-बहुत अनैतिकता” आप इसमें ढूंढ सकते हैं, जिसकी मुक्ति कृतज्ञ भाव से भोजन ग्रहण करके पौधों को धन्यवाद ज्ञापित करके भी हासिल हो सकती है।
पर एक तरफ जहाँ यह अनैतिकता है, तो वहीं दूसरी ओर तो साफ तौर पर क्रूरता की पराकाष्ठा है, एक जीवेषणा का अंतहीन शोषण हैं, भय का आर्तनाद है, अपने प्राणों को जाते देख एक जीव की चीख-पुकार है। एक मांसभक्षी भला किस युक्ति से उन निरीह-निरपराध जीवों की बद्दुआओं से मुक्त हो सकेगा?
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अगर एक मांसभक्षी वाकई पेड़ो के कटने से व्यथित होता है तो मैं बताता हूँ कि पेड़ों काटे क्यों जाते है। पेड़ काटे जाते हैं आपके घरों के साजोसामान के लिए, लकड़ी के लिए, इंडस्ट्रियल प्रोडक्ट के लिए। जंगल का 70% हिस्सा काटा जाता है कृषियोग्य भूमि हासिल करने के लिए – ताकि मांसभक्षियों की खुराक बनने वाले जीवों का चारापानी उगाया जा सके। विडंबना देखिए – पेड़ों के हितैषी मांसाहारी को पता ही नहीं होता कि पेड़ों की सबसे ज्यादा क्षति का जिम्मेवार वह स्वयं ही होता है, कोई शाकाहारी नहीं।
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यह भी एक स्थापित तथ्य है कि खाये गए भोजन का 10% हिस्सा ही बॉडी फैट में तब्दील होता है। अर्थात – सामान्य गणित से भी चलें तो 10 मांसभक्षियों की खुराक तैयार करने में लगे शाकाहार से 100 लोगों का पेट भरा जा सकता है। अर्थात एक अकेला मांसाहारी 10 लोगों का भोजन तो हड़पता ही है, जंगलों को नष्ट करता है और एनिमल फार्मिंग के रूप में वर्ल्ड ग्लोबल वार्मिंग का भी सबसे बड़ा कंट्रीब्यूटर है। पर एक मांसाहारी को तर्क, सांख्यकी अथवा पर्यावरण से क्या लेना-देना? उसकी बुद्धि तो जिव्हास्वादन हेतु कुतर्क की उत्पत्ति में ही मगन रहती है।
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बहरहाल, हिंसा और अहिंसा के भेद भी बेहद सूक्ष्म हैं। मैं अगर पूर्णतः अहिंसक होने का व्रत धारण कर के वायुपान पर ही जीवित रहने का प्रण ले लूँ, तो क्या यह अहिंसा होगी? न जी – यह सरासर हिंसा होगी – मेरे खुद के प्रति, मेरे परिवार के प्रति।
मैं यह तो कहता ही नहीं कि विश्व कल से शाकाहारी हो जाये, और पूर्णतः क्रूरता से मुक्त हो जाये, पर हिंसा को त्यागने का विकल्प न हो, तो न्यूनतम हिंसा ही मनुष्य के लिए वरेण्य होनी चाहिए।
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अहिंसक न बनो, तो कम से कम न्यूनतम हिंसक ही बन जाओ।

पूरे इंसान न बन पाओ, तो कम से कम आधा-अधूरा इंसान ही बन जाओ।

shweta tripathi

लेखिका समसामयिक मुद्दों पर लिखती हैं

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