जी.एम.दुर्रानी अपने करियर के शिखर पर थे जब फिल्मी दुनिया से इनका मोहभंग हो गया था। एक बहुत पुराने रेडियो इंटरव्यू में जी.एम.दुर्रानी साहब ने कहा था कि ईश्वर के करीब जाने के लिए साल 1951 में उन्होंने गाना-बजाना छोड़ दिया था। फिल्मी दुनिया छोड़ने के बाद जी.एम.दुर्रानी ने अपनी दाढ़ी बढ़ा ली। इसलिए ताकि लोग फिल्मी दुनिया के लोग उन्हें जल्दी से पहचान ना सकें। अगर कोई फिल्मी दुनिया का इंसान इन्हें दिख भी जाता था तो ये अपनी गर्दन नीची कर लेते थे।
दुर्रानी साहब का कहना है कि जो ज़िंदगी वो फिल्म लाइन में जी रहे थे उससे उन्हें विरक्ति हो गई थी। फिल्मी दुनिया में रहते हुए जी.एम.दुर्रानी ने अच्छा पैसा कमाया था। मगर फिल्म लाइन छोड़ने के बाद वो दान-पुण्य में इतने ज़्यादा मशग़ूल हो गए कि पता ही नहीं चला कब बैंक-बैलेंस खत्म हो गया और वो फक्कड़ हो गए। ज़िंदगी चलाने के लिए उन्होंने एक परीचित से कुछ रुपए उधार लिए और किराने की एक दुकान शुरू कर दी। और फिर यूं ही उनकी ज़िंदगी की गाड़ी आगे बढ़ती चली गई।
8 सितंबर को ग़ुलाम मुस्तफा दुर्रानी उर्फ जी.एम.दुर्रानी का जन्मदिन था। 8 सितंबर 1919 को पेशावर में जी.एम.दुर्रानी साहब का जन्म हुआ था। दुर्रानी सोलह साल के थे जब वो अपनी किस्म आज़माने मुंबई आए थे। ऑल इंडिया रेडियो को दिए एक इंटरव्यू में अपने शुरुआती जीवन के बारे में बात करते हुए जी.एम.दुर्रानी साहब ने बताया था कि जब वो छोटे थे तब उनके घर पर कोई भी चाय पीना पसंद नहीं करता था। सब या तो दूध पीते थे या फिर लस्सी पीते थे। दुर्रानी साहब को भी लस्सी बहुत पसंद थी।
ये जब अपने इलाके के बाज़ार में स्थित दुकानों पर लस्सी पीने जाते थे तो लोग इनकी शख्सियत देखकर कहते थे कि इस लड़के को तो हीरो बनना चाहिए। इसे बंबई चले जाना चाहिए। उन दिनों ये एक पेंटर के यहां भी काम करते थे। और वो पेंटर संगीतकार रफ़ीक गजनवी का बहुत बड़ा फैन था। वो अक्सर उनके कंपोज़ किए गीत गुनगुनाता रहता था। उसी पेंटर को गुनगुनाते देखकर-सुनकर ही जी.एम.दुर्रानी को भी संगीत व गायकी में दिलचस्पी होने लगी थी। ये भी गाने-गुनगुनाने लगे।
इनके दोस्त इनकी गायकी की खूब तारीफें करते थे। दोस्तों से तारीफें मिली तो जी.एम.दुर्रानी ने रफ़ीक गजनवी को अपना गुरू मान लिया। जबकी ये उनसे उस समय तक कभी मिले भी नहीं थे। दुर्रानी जी ने अपने स्तर पर रियाज़ शुरू कर दिया। उसी दौरान दुर्रानी जी के पिता ने उन्हें एक मोटर पार्ट्स की दुकान पर नौकरी पर लगवा दिया। लेकिन वो नौकरी उन्हें ज़रा भी नहीं भाती थी। मगर कहें तो कहें किससे? पिता तो कुछ सुनने-समझने को तैयार ही नहीं होते थे।
आखिरकार एक दिन जी.एम.दुर्रानी ने घर छोड़कर मुंबई, जो तब बंबई हुआ करती थी, वहां जाने का फैसला कर लिया। वैसे भी वो दोस्तों और दूसरे लोगों से मिली तारीफों की वजह से बंबई जाने को मचला करते ही थे। लोगों की बातों ने उनके मन-मस्तिष्क में भी बंबई की हसीन और रंगीन तस्वीरें उकरने लगी। एक दिन 22 रुपए जेब में लेकर वो बंबई भाग ही आए। बंबई शहर उन्हें बहुत पसंद आया। और बंबई घूमने में उनका इतना मन लगा कि पता ही नहीं चला कि कब उनकी जेब खाली हो गई।
जेब खाली हुई तो रोटी की चिंता होने लगी। दुर्रानी ने सोचा कि क्यों ना फिल्मों में काम पाने की कोशिश की जाए। वैसे भी, लोग कहते ही थे कि ये तो बड़े आराम से हीरो बन जाएगा। उन्होंने लोगों से किसी फिल्म स्टूडियो का पता पूछा। इस तरह वो पहुंच गए एक फिल्म कंपनी के ऑफिस। वहां के मालिक को जी.एम.दुर्रानी की पर्सनैलिटी पसंद आई। दुर्रानी को बतौर एक्टर काम पर रख लिया। एक इंटरव्यू में जी.एम.दुर्रानी ने ये भी बताया था कि उन्होंने सिर्फ तीन-चार फिल्मों में ही अभिनय किया था। क्योंकि जब उन्होंने खुद को पर्दे पर देखा तो उन्हें अच्छा नहीं लगा। उनके खानदान में फिल्मों में काम करने वालों को बहुत नीची नज़रों से देखा जाता था। इसलिए उन्होंने एक्टिंग छोड़ दी।
एक्टिंग छोड़ने के बाद चुनौती ये थी कि बंबई में टिके रहने के लिए पैसा कहां से कमाया जाए? क्योंकि एक्टिंग करने से उन्होंने मना किया गया तो उन्हें नौकरी से भी निकाल दिया गया। किस्मत से एक्टिंग करना वो अब तक सीख चुके थे। इसलिए जैसे-तैसे जुगत लगाकर वो ऑल इंडिया रेडियो में ड्रामा आर्टिस्ट की हैसियत से नौकरी पर लग गए। और यूं रेडियो की दुनिया में जी.एम.दुर्रानी की एंट्री हुई। जी.एम.दुर्रानी अपने समय के बहुत मशहूर रेडियो एक्टर बन गए। काम से फुर्सत मिलने पर वो गायन का अभ्यास करते थे।
उन दिनों इंटरव्यू के लिए रेडियो के स्टूडियो में आने वाले गीतकारों व संगीतकारों के साथ भी दुर्रानी भी बैठ जाते थे। उन्हें गाते हुए सुनते थे। संगीत की दुनिया की कई हस्तियों से उनकी जान-पहचान हो गई।
आखिरकार जी.एम.दुर्रानी की किस्मत एक दफा फिर उन्हें फिल्म इंडस्ट्री में ले आई। साल 1935 में सोहराब मोदी साहब ने अपनी फिल्म कंपनी मिनर्वा मूवीटोन में दुर्रानी जी को तीस रुपए महीना की पगार पर नौकरी पर रख लिया। उस वक्त का एक दिलचस्प किस्सा कुछ यूं है कि एक दिन सोहराब मोदी ने जी.एम.दुर्रानी की आवाज़ का टेस्ट लिया। अगले दिन उन्होंने दुर्रानी को मिलने बुलाया।
दुर्रानी जब सोहराब मोदी से मिलने आए तो सोहराब मोदी ने उनसे कहा,”बड़े तीस मार खां बने फिरते हो। लो सुनो, क्या गुल खिलाए हैं तुमने।” ये कहकर सोहराब मोदी ने साउंडट्रैक प्ले कर दिया। और उसमें से इतनी बुरी आवाज़ आई कि जी.एम.दुर्रानी बड़े शर्मिंदा हुए। शर्म के मारे पानी पानी हो गए। उस वक्त उन्हें लग रहा था जैसे उनके गले से किसी इंसान की नहीं, जानवर की आवाज़ निकली थी रिकॉर्डिंग के वक्त। हालात इतने बुरे हो गए कि उनकी आंखों में आंसू आ गए।
उनसे आंसू देख सोहराब मोदी बोले,”बस? यही हिम्मत लेकर इतने बड़े शहर में जीतना चाहता है? अरे पगले, बड़े शहर में रहने के लिए शेर का दिल होना चाहिए। तेरी आवाज़ हमने एक दफा नहीं, कई दफा सुनी है। बहुत अच्छी आवाज़ है। हमने तो बस तुम्हें परेशान करने के लिए साउंडट्रैक उल्टा चला दिया था। आज से तुम हमारी कंपनी में पूरे तीस रुपए महीना की नौकरी करोगे।” तीस रुपए महीना तनख्वाह दुर्रानी जी को कम तो लगी थी। लेकिन शुरुआत के तौर पर उन्होंने वो नौकरी जॉइन कर ली।
चूंकि सोहराब मोदी पारसी थे और अपने समुदाय से बहुत मजबूती से जुड़े थे तो जब ये बात फैली की सोहराब मोदी ने एक नया गायक नौकरी पर रखा है तो पारसी समुदाय में होने वाली शादियों में जी.एम.दुर्रानी को गाने के न्यौते मिलने लगे। वहां से भी उनकी ठीक-ठाक कमाई होने लगी। फिर साल 1936 में आई फिल्म सईद-ए-हवस में जी.एम.दुर्रानी को पहली दफा एक गज़ल गाने का मौका मिला। उस फिल्म का संगीत उस्ताद बुंदू खां ने कंपोज़ किया था। फिल्म में वो गज़ल जी.एम.दुर्रानी पर ही फिल्माई भी गई थी। हालांकि शुरू में वो चाहते नहीं थे कि गज़ल उन पर फिल्माई जाए। लेकिन सोहराब मोदी के आदेश पर वो मान ही गए।
जी.एम.दुर्रानी ने कुछ साल मिनर्वा मूवीटोन में नौकरी की और कई फिल्मों के लिए गायकी की। मगर एक दिन मिनर्वा मूवीटोन बंद हो गया।
रेडियो की नौकरी वो कब के छोड़ चुके थे। इसलिए एक दफा फिर से उनके सामने मुसीबत खड़ी हो गई। उस वक्त उन्होंने एक रेकॉर्ड कंपनी में गायक की नौकरी पकड़ ली। लेकिन तकदीर ने फिर पलटी मारी और उन्हें ऑल इंडिया रेडियो दिल्ली में नौकरी मिल गई। दिल्ली में दुर्रानी साहब की मुलाकात हुई शायर बेज़ार लखनवी और ज़ेड.ए.बुखारी से। बेज़ार लखनवी वो शायर थे जिनकी लिखी गज़लें गाकर बेग़म अख्तर गज़ल क्वीन कहलाई थी। और ज़ेड.ए.बुखारी वो हस्ती थे जिन्होंने बॉम्बे रेडियो स्टेशन की स्थापना के बाद उसे चलाया था।
दिल्ली ऑल इंडिया रेडियो में जी.एम.दुर्रानी को चालीस रुपए महीना पगार मिलती थी। तीन साल बाद उनकी पगार सत्तर रुपए हो गई। इसी दौरान संगीतकार नौशाद ने उन्हें दर्शन(1941) फिल्म में एक गीत गाने का ऑफर दिया। ऑल इंडिया रेडियो बॉम्बे में नौकरी करने के दौरान जी.एम.दुर्रानी की जान-पहचान नौशाद से हुई थी। दर्शन फिल्म में प्रेम अदीब और ज्योति मुख्य भूमिकाओं में थे। प्रेम अदीब और ज्योति तो अपने गीत खुद गाते थे। लेकिन जिस गीत के लिए नौशाद ने दुर्रानी साहब को गायकी करने का बुलावा दिया था उसके पिक्चराइजेशन में शाकिर नाम का एक एक्टर भी शामिल होना था जिसे ज़रा भी गायकी नहीं आती थी। नौशाद उसी कलाकार शाकिर के लिए दुर्रानी साहब से प्लेबैक सिंगिंग कराना चाहते थे।
दुर्रानी वो गाना गाने फिर एक दफा दिल्ली से मुंबई गए। वो गाना रिकॉर्ड हुआ और बहुत अच्छी तरह से रिकॉर्ड हुआ। नौशाद साहब जी.एम.दुर्रानी की गायकी से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने और दो गीतों में जी.एम.दुर्रानी से प्लेबैक सिंगिंग कराई। फिल्म रिलीज़ हुई और उसके गीत सुपरहिट हो गए। जी.एम.दुर्रानी की गायकी लोगों को बहुत पसंद आई। दुर्रानी साहब को खूब शोहरत मिली। फिर तो उनसे पास गायकी के ऑफर्स की कमी ना रही।
इस तरह एक दफा फिर से जी.एम.दुर्रानी फिल्म इंडस्ट्री में लौट आए। दर्शन फिल्म के गीतों की रिकॉर्डिंग के दौरान फिल्म की हीरोइन ज्योति उर्फ सितारा बेगम से जी.एम.दुर्रानी को इश्क हो गया। और इश्क की वो आग इकतरफा नहीं थी। दोनों तरफ बराबर लगी थी। यानि ज्योति भी जी.एम.दुर्रानी को पसंद करती थी। आखिरकार दोनों ने शादी कर ली। ज्योति उर्फ सितारा बेगम से शादी करने के बाद तो जी.एम.दुर्रानी हर दिन तरक्की की सीढ़ियां चढ़ते चले गए। उन्होंने कई फिल्मों के गीत गाए।
जी.एम.दुर्रानी का करियर बहुत ज़्यादा लंबा नहीं रहा था। मात्र छह या सात साल तक वो फिल्म इंडस्ट्री के शीर्ष गायकों में शुमार रहे थे।
1951 में दुर्रानी साहब ने गायकी छोड़ दी और किराने की दुकान खोल ली। इसका ज़िक्र इस लेख की शुरुआत में किया गया था, आपने पढ़ ही लिया होगा। जिस वक्त दुर्रानी साहब ने फिल्म इंडस्ट्री छोड़ी थी इत्तेफाक से उसी वक्त मोहम्मद रफी का करियर उठना शुरू हुआ। एक वक्त पर मोहम्मद रफी खुद जी.एम.दुर्रानी जैसी गायकी किया करते थे। वो दुर्रानी साहब को अपना आयडल बताते थे। बाद में साल 1956 में आई फिल्म “हम सब चोर हैं” में रफी साहब और दुर्रानी साहब ने एक गीत भी साथ में गाया था। चंद और गीत थे जिसमें इन दोनों गायकों ने साथ गायकी की थी।
रफी साहब के उभार के दौर में ही मुकेश जी व मन्ना डे जी की गायकी भी चमकी। और यूं नए गायकों के आने के बाद जी.एम.दुर्रानी को लोगों ने भुलाना शुरू कर दिया।
उनके गीत कभी-कभार रेडियो पर प्ले ज़रूर किए जाते थे। लेकिन रफी, मुकेश और मन्ना डे की नए ज़माने की गायकी अब लोगों को ज़्यादा भाने लगी थी। उधर जी.एम.दुर्रानी भी अपनी सूफियाना दुनिया में खोते चले गए। और कुदरत का अनोखा इंतज़ाम देखिए साथियों, आठ सितंबर 1988 को जी.एम. दुर्रानी साहब का निधन हो गया। यानि इनके जन्म की तारीख भी आठ सितंबर है और मृत्यु की तारीफ भी आठ सितंबर ही है। किस्सा टीवी भुलाए जा चुके गीतकार जी.एम.दुर्रानी जी को ससम्मान याद करते हुए उन्हें नमन करता है।
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