हैदराबाद,। “समीक्षा अपने आप में बेहद जटिल और ज़िम्मेदारी भरा काम है। कोई भी समीक्षा कभी पूर्ण और अंतिम नहीं होती। सच तो यह है कि किसी कृति की सबसे ईमानदार समीक्षा स्वयं रचनाकार ही कर सकता है। कोई समीक्षक किसी रचनाकार की संवेदना को जितनी निकटता से पकड़ता है, उसकी समीक्षा उतनी ही विश्वसनीय होती है।”
ये विचार वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय, जौनपुर (उत्तर प्रदेश) की पूर्व कुलपति प्रो. निर्मला एस. मौर्य ने आखर ई-जर्नल और फटकन यूट्यूब चैनल की ऑनलाइन परिचर्चा में प्रवीण प्रणव (हैदराबाद) की सद्यःप्रकाशित समीक्षा-कृति ‘लिए लुकाठी हाथ’ की विशद विवेचना करते हुए व्यक्त किए। उन्होंने बताया कि इस पुस्तक में लेखक ने ऋषभदेव शर्मा के व्यक्तित्व और कृतित्व के विविध आयामों को गहन अध्ययन के आधार पर उजागर किया है।
प्रो. मौर्य ने जोर देकर कहा कि ‘लिए लुकाठी हाथ’ में विवेच्य रचनाकार के साहित्य के ज्वलंत प्रश्नों से साक्षात्कार किया गया है और यह दर्शाया गया है कि मनुष्य, समाज, राजनीति, लोकतंत्र और संस्कृति पर गहन विमर्श इस साहित्य को दूरगामी प्रासंगिकता प्रदान करता है।
कार्यक्रम की अध्यक्ष प्रो. प्रतिभा मुदलियार (मैसूरु) ने कहा कि प्रवीण प्रणव ने अपनी पुस्तक ‘लिए लुकाठी हाथ’ के माध्यम से पाठकों को विशेष रूप से दक्षिण भारत के हिंदी साहित्य फलक पर कवि, आलोचक और प्रखर वक्ता के रूप में प्रतिष्ठित ऋषभदेव शर्मा के साहित्य की जनवादी चेतना, स्त्री पक्षीयता, प्रेम प्रवणता और सौंदर्य दृष्टि का सहज दिग्दर्शन कराया है।
‘लिए लुकाठी हाथ’ के लेखक प्रवीण प्रणव ने अपने बेहद सधे हुए वक्तव्य में यह स्पष्ट किया कि आलोचनात्मक लेखन करते हुए लेखक स्वयं को भी समृद्ध करता चलता है। उन्होंने कहा कि इस पुस्तक को लिखते हुए उन्होंने सटीक समीक्षा के लिए ज़रूरी वाक्-संयम सीखा और इससे वे अपने लेखन को अतिवाद तथा अतिरंजना से बचा सके। अपनी रचना प्रक्रिया समझाते हुए प्रवीण प्रणव ने यह सुझाव भी दिया कि जिस दिन आप उतना लिखना सीख जाएँगे जितना वास्तव में ज़रूरी है, उस दिन आप सचमुच लेखक बन जाएँगे। उन्होंने विवेच्य पुस्तक के लिए मार्गदर्शन हेतु श्री अवधेश कुमार सिन्हा, प्रो. गोपाल शर्मा, प्रो. निर्मला एस. मौर्य और प्रो. देवराज का विशेष उल्लेख किया।
चर्चा का समाहार करते हुए ऋषभदेव शर्मा ने यह जानकारी दी कि ‘लिए लुकाठी हाथ’ के लेखक की निजी शैली को प्रो. देवराज ने ‘आत्मीय आलोचना’ तथा प्रो. अरुण कमल ने ‘जीवनचरितात्मक आलोचना’ कहा है।
कार्यक्रम का संचालन शोधार्थी संगीता देवी ने किया तथा संयोजिका डॉ. रेनू यादव ने आभार ज्ञापित किया।