इसीलिए १५० वर्ष बाद मोहम्मद गौरी फिर इस्लाम के नारे लगाता हुआ भारतवर्ष की ओर बढ़ आया। अजमेर में गडा हुआ मुइनुद्दीन चिश्ती नाम का सूफी भी उसके साथ हो लिया। गौरी ११७८ ईसवी में आबू के निकट उस सेना से पिट कर भागा जिसका संचालन चौलुक्य-पति की विधवा साम्राज्ञी कर रही थी। दूसरी बार ११९१ में वही गौरी पृथ्वीराज चौहाण से पिट कर भागा। उस समय भारतवर्ष के चौलुक्य तथा चौहाण साम्राज्यों में इतना सामर्थ्य था कि वे गौरी का पीछा करते हुए इस्लाम द्वारा हस्तगत उत्तरांचल को लौटा लेते और गौरी तथा गजनी को रौंदते हुए उस काबे तक मार करते जहाँ से इस्लाम की महामारी बार-बार बढ़कर भारत के लिए विभीषिका बन जाती थी।
गौरी ने चिश्ती का हुक्म बजाया। ११९२ में वह जब फिर तरावडी के मैदान में आया तो चौहाण ने उस भगोडे को धिक्कारा। गौरी ने उत्तर दिया कि वह अपने बडे भाई मुइनुद्दीन के आदेश पार आया है और उसका आदेश पाए बिना नहीं लौट सकता। साथ ही उसने कहा कि पृथ्वीराज का संदेश उसने अपने बडे भाई के पास भेज दिया है तथा उस ओर से आदेश आने तक वह युद्ध से विरत रहेगा। राजपूत सेना ने शस्त्र खोल दिए और उसी रात को गौरी की सेना ने राजपूत सेना को छिन्न-भिन्न कर डाला, किन्तु किसी हिन्दू ने यह समझने का कष्ट नहीं किया कि काफिर के साथ छल करना
–इतिहासकार-चिन्तक स्व. सीताराम गोयल
(स्रोत: ‘सैक्युलरिज्म: राष्ट्रद्रोह का दूसरा नाम’, पृ. ४५-४७)