टीना और मैं हम उम्र, कहने को सहपाठी, कहने को नहीं भी…कहने को संगी-साथी, कहने को नहीं भी, कहने को एक ही विधा से जुड़े, कहने को नहीं भी, कहने को एक ही समुदाय के, कहने को नहीं भी।
टीना और मेरा परिचय इतना पुराना जब वह केवल टीना थी…टीना देवले…फिर वह टीना तांबे हुई और फिर डॉ. टीना तांबे। किसी के परिचय के लिए शायद इतना ही पर्याप्त होता होगा। मैंने उसे युवा उत्सव में महाविद्यालय-विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व करते देखा, एम.ए. की परीक्षा के दिनों में देखा और हमेशा एक निश्चित दूरी से देखा, उसने भी शायद मुझे ऐसे ही देखा होगा एक सामंजस्यपूर्ण फासले के साथ। हम एक ही स्कूल में कुछ साल साथ थे पर हमारा परिचय उस स्कूल में होने से नहीं था। हम एक ही कक्षा में थे पर शायद हमारे वर्ग अलग थे, अब मुझे ठीक-ठीक याद भी नहीं। हम दोनों ही नृत्य किया करते थे, कथक ही। उसने कथक को अपने जीवन का ध्येय बनाया और मैंने शुरू से ही लेखनी को, इस तरह हम एक ही नाव में सवार थे लेकिन हमारी नदी अलग थी, हमारा किनारा अलग था और एक शहर इंदौर से शुरू कर हमारी यात्रा के शहर भी अलग हो गए, उसका मुंबई, मेरा पुणे। हम दोनों मराठी समुदाय से हैं लेकिन मराठी समाज के किसी कार्यक्रम में हम मिले हों, ऐसा तो मुझे याद नहीं आता। ठीक-ठीक याद नहीं पर मैंने मंच पर उसकी प्रस्तुति को एक-दो बार ही देखा होगा। उसकी प्रस्तुति में तैयारी होती थी, सुंदर तो वह हमेशा से रही ऐसे में कहना कठिन था कि उसकी सुंदरता पर अधिक मोहित होती थी या उसके नृत्य पर। उसके और मेरे नृत्य के गुरु भी अलग-अलग थे इसलिए हम किन्हीं प्रस्तुतियों में भी साथ नहीं रहे, इस तरह उसके नृत्य को बहुत करीब से और बहुत अच्छे से देखा हो, ऐसा नहीं था।
हम दोनों बड़े होते गए, दो दशक बीत गए। जानते रहे एक-दूसरे के बारे में भी लेकिन एक तरह की तटस्थता दोनों ओर से थी। और अभी बिल्कुल कल-परसों ही (7-8 दिसंबर) उसने पुणे में दो प्रस्तुतियाँ दीं । एक अथश्री बाणेर में, दूसरी झपूर्जा में। उसकी तरफ़ से मुझे फ़ोन आया कि क्या मैं हिंदी में संचालन करूॅगी। कथक से जुड़ने का एक बहाना था, अपने शहर के किसी बाशिंदे से जुड़ने का बहाना था और टीना से गहरी मैत्री न सही पर ऐसा कोई गुरेज़ भी नहीं था कि उसे ना कह दूँ। मैंने सहर्ष स्वीकार लिया। उसने गायन और नृत्य के विभिन्न पक्षों को अपनी प्रस्तुति में समाहित किया था। उसकी परिकल्पना थी कि हर प्रस्तुति से पहले मैं उस प्रस्तुति के बारे में, उससे जुड़े ताल और गायन पक्ष के बारे में दर्शकों को थोड़ी जानकारी देती चलूँ। हमने फोन पर इसे लेकर बातें कीं, कार्यक्रम की रूपरेखा बनी और वह पुणे में थी। लगभग 20-22 साल बाद हम रू-ब-रू हो रहे थे। यह पहला अवसर था जब उसकी पूरी प्रस्तुति मंच पर देखती।
किसी एक प्रस्तुति से किसी कलाकार के विस्तार को जाना नहीं जा सकता। टीना और उसकी शिष्याओं ने लगभग डेढ़ घंटे का कसा हुआ कार्यक्रम दिया। उन्हें लिबास बदलने के लिए समय मिले इसलिए बीच का समय मेरा था।
मैंने उसके बारे में बताया, उसकी संस्था निनाद परफ़ॉर्मिंग आर्ट्स सेंटर के बारे में बताया और नृत्य के बारे में भी बताया। पर उससे ज़्यादा मैंने उसे जाना। कोई टीना से डॉ. टीना तांबे कैसे बन सकता है, यह जाना। वह जब ताल पक्ष करती है, तो लय और ताल पर उसकी पूरी पकड़ होती है। प्रस्तुति के दौरान वह उतनी ही स्मित मुस्कान बिखेरती है, जितना कोई व्यावसायिक कलाकार मंच पर स्मित हास्य करता है। पर जब वह काली ध्रुपद करती है तो देखिए चंडी अवतार को वह किस तरह मंच पर साकार कर देती है। हर प्रस्तुति के लिए उसकी सोच भी है जैसे काली करते हुए प्रकाश व्यवस्था में मंच पर लाल रंग का प्रकाश आना चाहिए। जो कलाकार अपनी कला साधना के साथ अध्ययन, पठन-मनन भी करता है उसकी सोच की वह गहराई अनायास उसकी प्रस्तुतियों में दिखने लगती है। उसने मीरा पर डॉक्टरेट किया है सो जब वह मीरा होती है तो लगता ही नहीं कि टीना नाच रही है, लगता है पग घुँघरू बाँध मीरा नाची रे। स्त्री पात्र से अलहदा जब वह कृष्ण बनती है तो पुरुषी चाल-ढाल को वह बखूबी अंगीकार करती है। प्रस्तुति में उसके साथ उसकी शिष्याएँ भी होती हैं। हर प्रस्तुति के लिए विंग्स में सबसे पहले वह तैयार रहती है, अपनी अगली प्रस्तुति का मनन करते हुए। कलाकार में जब तक यह ठहराव नहीं आता तब तक उसकी कला में भी निखार नहीं आता। टीना ने कई अलग-अलग कार्यक्रम किए हैं, महादेवी वर्मा पर, नवरसों पर, अष्टनायिकाओं पर, उसका अध्ययन और चिंतन और व्यापक सोच, उसकी प्रस्तुति का आधार है।
इन दिनों मैंने कई युवा नृत्यांगनाओं को देखा, जैसे मैंने टीना को भी उसकी बाली उम्र में देखा था। लेकिन मुझे युवा नृत्यांगनाओं की प्रस्तुति में उतना मज़ा नहीं आया, कई बार खुद पर भी संदेह होता है कि कहीं आप ही उस अवस्था में तो नहीं पहुँच गए जहाँ आपको कुछ पसंद नहीं आता। पर टीना का बाली उम्र का नृत्य भी अच्छा लगता था और उसकी यह हालिया प्रस्तुतियाँ भी अच्छी लगीं। इसलिए मैं इस निष्कर्ष पर पहुँची कि समीक्षक का हम उम्र होना भी बहुत ज़रूरी है। इतने सालों में दिग्गजों से लेकर नौसिखियों तक इतने लोगों का नृत्य आप देख चुके होते हैं कि आपको फिर नए कलाकार की प्रस्तुति में एकरसता लगना स्वाभाविक है। उन कलाकारों का भी कोई दोष नहीं, आप ही संतृप्त हो चुके होते हैं। नए कलाकारों पर नए समीक्षक लिखें तो वे शायद दोनों एक ही उम्र के होने से एक सी समझ और एक सी सोच से न्याय कर पाएँगे। जो कुछ स्थिर हो गए हैं, उन्हें निश्चित ही नित नवीन कुछ करना चाहिए, समाज को कुछ देना चाहिए जैसे टीना, डॉ. टीना तांबे कर रही है।