सुकवि शारदा शरण चतुर्वेदी ‘मौलिक’ का जन्म फाल्गुन शुक्ल एकादशी सं०1979 वि० में धनघटा के निकट मलौली नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता पंडित राम नारायण चतुर्वेदी रंगयुग के प्रतिष्ठित कवि थे तथा उनके बड़े भाई सुकवि ब्रज बिहारी ‘व्रजेश’ जनपद के उच्चस्तरीय छंदकार है। जूनियर हाई स्कूल की शिक्षा के बाद मौलिक जी ने नार्मल की परीक्षा पास करने के बाद अपने गाँव मलौली के प्राइमरी पाठशाला के सहायक अध्यापक नियुक्त हुये । कुछ दिनों के बाद जब उन्हें बँटवारे में बकौली की सम्पत्ति मिली तो यह मलौली से बकौली के गांव में रहने लगे और बैंडा बाजार के प्राइमरी स्कूल मे सहायकअध्यापक के पद पर स्थानान्तरित हो गये। मौलिक जी सुकवि रामदेव सिंह “कलाधर” के योग्य शिष्यों में से थे। यह बड़े ही प्रतिभाशाली छन्दकार थे।समस्या- पूर्तिया इनकी जबान पर रहती थीं। हिन्दी के लोकगीत के ये अच्छे गायक थे। पहली जून 1957 को एक भयंकर आंधी आई और मौलिक जी के ऊपर एक पेड़ की डाल गिर पड़ी । उसी दिन से बेहोशी की हालत में ये मरणासन्न हो गये और दिनांक 07-6-1957 ई को वे दिवंगत हो गये।
– (सुकवि कलाधर के प्रदत्त अभिलेखों के आधार पर।)
असामयिक निधन :-
मौलिक जी के साहित्य के संदर्भ में मुझे बकौली जाना पड़ा। किन्तु वहां पर मौलिक जी के साहित्य से सम्बन्धित कोई भी सामग्री नहीं मिल सकी। उनका कारण था कि मौलिक जी के निधन के समय उनके दो अबोध बच्चों पर विपत्ति का पहाड़ गिर पड़ा। मौलिक जी के छन्दों की सुरक्षा कौन करता? इनके सारे छन्द जिस मिट्टी निकले थे उसे उसी में विलीन हो गये।
काव्य यात्रा:-
पुन: प्रयास करने पर मौलिक जी के कुछ छन्द तत्त्कालीन साहित्य पत्रिका ‘रसराज’ प्रकाशन स्थल, कानपुर संपादक सुदर्शन जी की पुरानी कापियों के रूप में सुकवि कलाधर जी के सौजन्य से प्राप्त हुए हैं। उन कापियों है कुछ छन्द यहाँ प्रस्तुत हैं-
घर घर झोपडी पड़ी है मन मारे हुये,
दीनता से दबी वृत्ति रासै ना छदाम की।
अति दृष्टि अनावृष्टि आधि-व्याधियों से,
व्यथित विकल दुहाई रही राम की ।
घर के उजाले को स्नेह के हैं लाले पड़े,
लज्जा लूटी जा रही है बस बिनु दाम की।
सारे ये सुधार भी बेकार बने जा रहे हैं,
मौलिक ना पूछो दशा भारतीय ग्राम की।
– (रसराज” पूर्तिपटल, नवम्बर, 1956)
ग्राम के ऊपर यह समस्यापूर्ति बढी अनूठी है। इसी ही प्रकार से मौलिक जी के दो और छन्द युगानुरूप देखे जा सकते हैं-
शान्ति के घेरे मैं पूर्ण ज्वलन्त,
अशान्ति की दिखती ज्वाला है देख लो ।
होता सुधार विकार किये,
अब भी गले में पड़ी माला है देख लो।
हा अधिकार में ही प्रतिकार ही,
का खड़ा रूप वो काला है देख लो।
होती समृद्धि की वृद्धि ये” मौलिक”,
वृद्धि का होता दिवाला ये देख लो।।
पुन: एक और छन्द भी पठनीय है –
जो बलिदान की रक्त की बूंदों से,
मौलिक पाला गया गणतन्त्र है।
मान्यता से अति दूर वही,
भ्रमजाल में डाला गया गणतन्त्र है।
रूप ना कोई उड़ा करें जो
उसी साँचे में ढाला गया गणतन्त्र है।
कुण्ड में डाला गया अभी कूप से,
जो कि निकाला गया गणतन्त्र है ।।
– ( रसराज, सितम्बर अक्टूबर, 1956-)
देश के प्रति कवि की आत्माभिव्यक्ति युगानुरूप थी। उसके स्वर में हजारों भारतीय जनजीवन का स्वर था। मौलिक जी ने अपने दो दुर्मिल सवैया छन्द रसराज के सम्पादक के पास भेजा। सम्पादक जी ने इन दोनों छन्दों को बहुत पसन्द किया और इसे “रसराज” के मुख्यपृष्ठ पर छापा है –
दुख गाथा मेरी सुनि के हंसी खेल में
नित्य ही टालने वाले बता।
यह मेरा भी कष्ट हटेगा कभी,
भ्रमजाल में डालने वाले बता ।
समता कभी आयेगी “मौलिक” केवल,
पेट के पालने वाले बता ।
कभी लेगा स्वराज्य भान मुझे भी,
स्वराज्य के ढालने वाले बता ।।1।।
कमनीय कलेवर से कभी प्रेम की,
धारा बहेगी अरे कहो तो ।
कभी शान्ति का शासन पा जनता,
सुखी नग्न रहेगी अरे कहो तो ।
अथवा कितने दिन और दबी हुई,
कष्ट सहेगी अरे कहो तो ।
यदि एक नहीं सुनता फिर दूसरे,
से भी कहेगी अरे कभी तो ।।2।।
– (स्वराज, नवम्बर, 1956)
मौलिक जी के इन छन्दों में तत्कालीन आवश्यकताओं की मौलिकता है। देश को आजादी एक तरफअपनी दसवीं वर्ष में प्रवेश कर चुकी थी दूसरी तरफ भुखमरी,शोषण, महंगाई, अशिक्षा असुरक्षा आदि पराधीनता का स्मरण करा रहे थे। कविगण समस्या-पूर्तियों में अपने विचारों को छन्दों के माध्यम से प्रस्तुत करने के होड़ मे लगे हुये थे। मौलिक जी के सशक्त छन्द पत्र-पत्रिकाओं में छप करके उनके कवि रूप को निखार रहे थे । मौलिक जी छन्दों को पत्रिकाएं धड़ल्ले से छाप देती थी। मौलिक जी ऐसा स्पष्टवादी कवि बस्ती के रंगमंच पर देखते ही देखते छा गया । इन्हें अपने साहित्य संरचना के समय अच्छी ख्याति मिलने लगी किन्तु माँ भारती के लाडले इसके छन्दों को इस धरती ने अपने अंक में समेटते हुये रंचमात्र भी संकोच नहीं किया। उनका एक छंद यहां प्रस्तुत है जिसमें उन्होंने पुग पर करारा व्यंग किया है-
अभिशापों से थे भयभीत परन्तु, हमें वरदानों ने लूट लिया
किया पापों से मुक्ति के हेतु जिन्हें, उन्हें “मौलिक” दानों ने लूट लिया ।
रजनी भर प्राची की ओर थी दृष्टि, वे स्वर्ण बिहानों ने लूट किया।
बचा जो था अरे उन वचकों से, घर के भगवानो नै लूट लिया ।।
– ( उपहार पृष्ठ 34)
मौलिक जी केन्द्रों ने भविष्य का बढ़ा सटीक संकेत है। यह छन्द जीवन का अंतिम छंद बनकर रसराज के पन्ने को एक कवि की कहानी देकर अमर हो गया। इस छन्द में कवि का अन्तस्वर बोल उठा है, इसी के साथ जुड़ा हुआ है इसका जीवन दर्शन भी।
क्षण-क्षण क्षीर्णआयु होती चली जा रही है,
भूल मत समझो जवानी रह जायेगी।
काल का कुचक्र चक्र चलता रहेगा सदा,
राजा रह जायेगा ना रानी रह जायेगी ।
धन- धाम वैभव समृद्धि वृद्धि नश्वर है,
मौलिक मनोहर ये बानी रह जायेगी ।
अच्छे बुरे कर्म अनुसार ही जगत बीचः
कहने को कैवल कहानी रह जायेगी।
– (रसराज” पूर्तिपटल, मई, 1957)
मौलिक जी ब्रजभाषा, खड़ी बोली और भोजपुरी के अच्छे कवि थे।समस्या-पूर्ति के ये बड़े जादूगर थे। सनेही जी ने इनके छन्दों की प्रशंसा किया था। घनाक्षरी और सवैया इनके प्रधान छन्द थे। “उपहार” तथा “पूर्वाचला” के अनुसार “अमूल्या” और “स्वर्गीय संगीत” इनकी अनूठी कृतिया थीं जो अनुपलब्ध है।
लेखक का परिचय
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं. वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम-सामयिक विषयों, साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। मोबाइल नंबर +91 8630778321, वर्डसैप्प नम्बर + 91 9412300183)