Friday, November 22, 2024
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हिन्दी – कल आज और कल

भाषा आदमी को आदमी से जोड़ने का जरिया मात्र नहीं है, बल्कि भाषा हमारी भूतकालिक विरासत को संरक्षित भी करती है । ये भाषा का ही कमाल है कि शताब्दियों से लिखा गया चिंतन आज एक भाषिक विरासत की तरह हमें मार्ग-दर्शन दे रहा है। भाषा सामाजिक व्यवहारों पर निर्भर करती है। इसलिए इसमें बोलने वाले समूहों की जातिगत विविधता और उनकी संस्कृति अभिव्यक्ति पाती है।

हमारी ऐसी ही समर्थ भाषा है, इसने हमारी अभिव्यक्ति की भाषा, संपर्क भाषा, राज्य भाषा, राष्ट्र भाषा, टंकण और मुद्रण की भाषा, संचार की भाषा, कम्प्यूटर की भाषा का सफर तय करते हुए हमारी अस्मिता को विश्व के विशाल धरातल पर सुशोभित किया है।

इसकी धारा जनजीवन में सदा से प्रवाहित है। राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के समय ये समझ लिया गया था कि हिन्दी ही स्वाधीनता के पश्चात् अंग्रेजी का विकल्प हो सकती है। विशाल भारतीय जनसंख्या की भाषा होने के कारण भी राष्ट्रीय मुख्य धारा हिन्दी ही थी । फलतः 14 सितम्बर 1949 को देश की राजभाषा बनाने संबंधी अनुच्छेद स्वीकृत किये गये ।

‘हिन्दी’ शब्द का मूल अर्थ है – हिन्दी का भारत का अर्थात् भारतीय । जैसे जापान का जापानी, चीन का चीनी इसलिए तो एक गीत
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा में कहा गया है। “हिन्दी है हम, वतन है” । हिन्दोस्तां हमारा
यहाॅ ‘हिन्दी’ हैं हम
‘हम’ से तात्पर्य भारतीय है।

ये तो हम सभी जानते है कि आज जिसे हम मानक हिन्दी कहते है, वह खड़ी बोली का विकसित रूप है, इसे ‘कौरवी’ भी कहा जाता है। दिल्ली, मेरठ, बिजनौर, मुरादाबाद के पूर्वी भागों में आज भी अपने मूल रूप में ये बोली जाती है। 14वीं शताब्दी में सर्वप्रथम अमीर खुसरों ने हिन्दी की इसी खड़ी बोली में काव्य रचना की, इसलिए इन्हें हिन्द का तोता भी कहा जाता है। इनकी पहेलियाँ आपने भी शायद पढ़ी होंगी
एक थाल मोती से भरा, सबके सिर पर औंधा धरा । चरों ओर वह थाली फिरे, मोती उनके एक न गिरे । ।

यही खड़ी बोली ही हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्तानी का आधार है । हिन्दी शब्द का आरंभिक प्रयोग पंडित विष्णु शर्मा की पुस्तक ‘पंचतंत्र’ की भाषा के लिए हुआ। यह पुस्तक संस्कृत में लिखी गई थी पर इसका अनुवाद प्राचीन ईरानी में किया गया और पुस्तक की भूमिका में लिखा था- – यह अनुवाद जबाने हिन्दी से किया गया है। इस तरह जबाने हिन्दी ही हिन्दी भाषा बनी ।

यह खड़ी बोली ही हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्तानी का मूल आधार है । हिन्दी जब संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ प्रयुक्त हुई तो हिन्दी कहलायी और अरबी, फारसी शब्दों के साथ बोली गई तो उर्दू कहलायी। इस तरह हिन्दी और उर्दू एक मॉ की दो संतान है।

आपको जानकर ताज्जुब होगा कि हमारी हिन्दी के प्रचार-प्रसार में अहिन्दी भाषी भारतीय और अंग्रेजों का विशेष योगदान रहा सर्वप्रथम 1800 ईस्वीं के कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना करने वाले एक अंग्रेज प्रो. गिल काईस्ट थे। उस समय नवागत अंग्रेज अफसरों के प्रशिक्षण की व्यवस्था थी । इस प्रशिक्षण में भारतीय भाषाओं की जानकारी भी शामिल थी पढ़ाने के लिए राम प्रसाद निरंजनी, लल्लू लाल और सदल मिश्र को नियुक्त किया गया। इन्होंने सर्वप्रथम हिन्दी गद्य में पुस्तकें लिखी । अंग्रेजों के द्वारा

शुद्ध व्यावसायिक मुनाफे के लिए बिछाये गये रेलों के जाल से भी दूरगायी लाभ मिले। पहले से ही हिन्दी देश के बड़े भू-भाग की भाषा थी । रेल और यातायात के साधनों ने इसे फैलने में मद्द की । हिन्दी की राष्ट्रीय भूमिका को अहिन्दी प्रदेशी भारतीय नेताओं जैसे तिलक, गांधी, सुभाशचन्द्र बोस, अबुल कलाम आजाद जैसे नेताओं ने पहचाना। सन् 1883 में स्वामी दयानंद ने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ “सत्यार्थ प्रकाश” हिन्दी में लिखा ।

एंग्लो वैदिक कॉलेज में छात्रों के लिए हिन्दी पढ़ना अनिवार्य था । इस प्रकार हिन्दी अपने वूते संपर्क भाषा बनी। कश्मीर से कन्याकुमारी और कलकत्ता से कच्छ तक के भू-भाग के लोगों को आपस में जोड़ती है। इस विस्तार में हिन्दी के अनेक रूप रंग मिलते हैं ।

भाषा के लिए कहा गया है – “चार कोस में पानी बदले आठ कोस में बानी ।”

परिवर्तन सृष्टि का नियम है, जहाँ परिवर्तन है, वहाँ गति है और जहाँ गति है, वहाॅ जीवन । कहने का तात्पर्य है जीवंत भाषा अपने को उदार और उन्मुक्त बनाये रखती है। दूसरी भाषा के शब्दग्रहण करके उसे अपने स्वभाव का अंग बना लेती है। हिन्दी में ये विशेषता खूब रही है। विदेशी भाषा और अन्य भाषा के शब्द इसमें इतने अधिक रच बस गए हैं कि इन्हें छॉट कर अलग करना नामुमकिन नहीं तो मुश्किल अवश्य है ।

पारिभाषिक शब्दावली, तकनीकी शब्दावली, नये-नये शब्द आविष्कारों से संबंधित नये शब्द गढ़े जा रहे हैं, जो हिन्दी के विकास को गति दे रहे हैं । सबसे बड़ी बात चलन भी है, व्यवहार भी है, आज आप रिक्शेवाले या ऑटो वाले से कहें – लौहपथगामिनी स्थल ले चलिए तो वो पूछेगा – ये कौन सी जगह है? लेकिन रेल्वे स्टेशन कहने से वह झट से समझ जायेगा ।

हिन्दी व्यावहारिक शब्दों को समेटते हुए चल रही है। इस सन्दर्भ में पंडित गिरधर शर्मा ने म्या खूब कहा है-
हजारों लब्ज आयेंगे नये, आ जायें क्या डर है? पचा लेगी उन्हें हिन्दी, कि है जिन्दा जुंबा हिन्दी ।

शतरूपा हिन्दी के अनेक रूप हैं-जनभाषा, राजभाषा, राष्ट्रभाषा, संपर्क

भाषा, मशीनी भाषा, टकसाली भाषा । इन दिनों हिन्दी के एक और रूप की संभावना उभरी है यह नया रूप है हिन्दी विश्व भाषा या अंतर्राष्ट्रीय भाषा रूप। चूँकि हिन्दी विश्व के एक महानतम लोकतंत्र की भाषा है, इसलिए इस भाषा ने अनेक देशों को आकर्शित किया है। कुछ देश ऐसे हैं जहाॅ भारत के मूल निवासी बड़ी संख्या में बसे हैं, जैसे मारीशस, फ़ीजी, सूरीनाम, त्रिनिदाद । इसी तरह कुली मजदूर के रूप में विदेशों में गये भारत वांशियों ने अपने त्याग और तपस्या से हिन्दी को अंतर्राष्ट्रीय भाषा बना दिया है। उन्होंने अपने श्रम और साधना के बल पर अंतर्राष्ट्रीय धरातल पर हिन्दी को जो गरिमा प्रदान की है, वह स्वर्ण अक्षरों में लिखने योग्य है ।

भूमंडलीकरण और निजीकरण के चलते आज पूरे विश्व की निगाह भारत पर है- क्योंकि भारत सबसे बड़ा बाजार है। एक विशाल उपभोक्ता क्षेत्र है । यही कारण है कि आज विदेशी कंपनियाँ प्रचार सामग्री हिन्दी में छपवाते हैं । आज टी.वी. के सारे चैनल हिन्दी का प्रयोग कर रहे हैं। बी. बी. सी. भी अपना वैज्ञानिक कार्यक्रम डिस्कव्हरी भी हिन्दी में प्रसारित कर रही है।

इन सबके बाद भी हमें यह ध्यान रखना है कि जैसे हमारा अपना संस्कार होता है, भाषा की भी संस्कृति होती है । भाषा के संस्कार शब्द के मूल अर्थ में होते हैं, जो उसकी आत्मा होती । आज हिन्दी साहित्य बोलचाल की सौम्य एवं अनुशासित भाषा से अलग ही तेवर में प्रयुक्त हो रही है। हिन्दी ‘आप’ पर

‘तू’ भारी हो गया है, मुझे-तुझे का स्थान मेरे को तेरे को ने ले लिया है।

इसके अलावा अपून तो यहीच्च रहना मांगता: कट ले, कल्टी कर ले, तेरी तो वॉट लग गई जैसे जूमले लोगों की जुबान पर चढ़ गये हैं ।

विकास, परिवर्तन और गति यही जीवन है, पर विकास हो, विनाश नही । आज भाषा को ध्वनि संकेत एस. एम. एस. के प्रतीकों में सीमित कर महज एक यांत्रिक उत्पाद में बदल दिया गया है- एक विज्ञापन में कहा जाता है न ” कर लो दुनिया मुट्ठी में” सही है, इलेक्ट्रॉनिक उपकरण के जरिये कर लिया आपने दुनिया मुट्ठी में । सिमट गई दुनिया मुट्ठी में पर बिखर गई दूरियाँ दिलों की, संवेदनाओं की । मेरी मतलब भाषा के संक्षिप्तीकरण से है ।

अब चूँकि भाषा संप्रेषण का माध्यम है- साथ ही गतिशील है, इसलिए परिवर्तन जरूरी है, पर ध्यान रहे, परिवर्तन की इस प्रक्रिया में उसका मूल स्वरूप उसकी आत्मा बरकरार रहे, हिन्दी का शुद्ध और परिनिष्ठित रूप भी बना रहे। भाषा तो वही होनी चाहिए न जो मुझ तक आपकी बात या मेरी बात आप तक इस तरह पहुॅचा दे कि वो आपकी अपनी बात बन जाये

देखिए गुफतार की खूबी, कि जो उसने कहा।
हमने ये समझा कि, गोया वो मेरे दिल में था । ।

लेखिका हिन्दी शासकीय काव्योपाध्याय हीरालाल महाविद्यालय, अभनपुर, जिला – रायपुर (छत्तीसगढ में सहायक प्राध्यापक हैं)
(साभार -GJRA – GLOBAL JOURNAL FOR RESEARCH ANALYSIS से ) 

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