Wednesday, November 13, 2024
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अंतरिक्ष से कैसे हल होगी हमारी स्वास्थ्य समस्याएँ

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ और नासा ने आपसी सहयोग से, इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन पर ऐसी बायोमेडिकल तकनीक विकसित करने और उसका परीक्षण करने का बीड़ा उठाया है जिसका इस्तेमाल पृथ्वी पर भी किया जा सके।

नासा अंतरिक्ष यात्री क्रिस्टीना कोच इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन के लाइफ साइंसेज ग्लोवबॉक्स में कार्य करती हैं। वह इस पर शोध कर रही हैं कि माइक्रोग्रेविटी और अंतरिक्ष यात्रा के अन्य पहलुओं से गुर्दों की सेहत पर क्या असर पड़ता है। (फोटोग्राफ साभार: नासा /निक हेग)

सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़ी दवाओं को बनाने और इंसानों पर उसके असर को परखने के लिए दशकों के अनुसंधान और जांच परीक्षणों की जरूरत पड़ती हैं। टिशू चिप्स एक तरह का बायोमेडिकल उपकरण है जो समयावधि को वर्षों से घटा कर महीनों तक लेकर आ सकता है।

टिशू चिप्स को ऑर्गन- ऑन- चिप (ओसीसी) भी कहा जाता है। ये शारीरिक स्थितियों की नकल करने वाली मानव कोशिकाओं से तैयार इंजीनियर्ड डिवाइस है। नेशनल सेंटर फॉर एडवांसिंग ट्रांसलेशनल साइंसेज़ (एनसीएटीएस) द्वारा विकसित इन चिप्स को माइक्रोग्रेविटी (लगभग शून्य ग्रेविटी) के वातावरण में मानव शरीर पर इसके प्रभावों का अध्ययन करने के लिए इसे इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन स्थित यूएस नेशनल लैब में भी भेजा जा रहा है।

दिसंबर 2005 में, अमेरिका ने वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए इसके महत्व पर प्रकाश डालते हुए इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन के अपने हिस्से को नेशनल लैब के रूप में नामित कर दिया। ऐसा करने का उद्देश्य नेशनल हेल्थ इंस्टीट्यूट (एनआईएच) जैसी एजेंसियों के अनुसंधान मिशनों को गति देना है। नेशनल एयरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) के अंतरिक्ष यात्रियों ने एक दशक से अधिक समय तक अंतरिक्ष स्टेशन पर प्रयोग करने के लिए एनआईएच के शोधकर्ताओं के साथ काम किया है।

स्वास्थ्य और अंतरिक्ष जैसे विषय क्षेत्रों पर केंद्रित दो अमेरिकी सरकारी एजेंसियों के बीच सहयोग के माध्यम से टिशू चिप्स जैसी प्रौद्योगिकी का विकास और अध्ययन संभव हो पाया है।

अमेरिकी कांग्रेस ने बुनियादी वैज्ञानिक खोजों के निदान, उपचार और इलाज़ में इस्तेमाल में आने वाली दिक्कतों को दूर करने के लिए 2012 में एनसीएटीएस की स्थापना की। स्पेशल इनीशिएटिव कार्यालय के निदेशक डैनिलो टैगले ने टिशू चिप्स कार्यक्रम को शुरू किया।

हालांकि, लगभग 10,000 बीमारियों की पहचान हो चुकी है लेकिन केवल पांच प्रतिशत बीमारियां ही ऐसी हैं जिनका प्रभावी उपचार उपलब्ध है। टैगले के अनुसार, “बुनियादी तौर पर नई खोजों की बीमारियों की पहचान, निदान, उपचार और इलाज़ में उपयोग की प्रक्रिया बहुत धीमी रही  है।” उनका कहना है कि, टिशू चिप्स तकनीक को मानव शारीरिक प्रक्रियाओं का अनुकरण करके परिणाम में सुधार करने के लिए विकसित किया गया है। उन्होंने कहा कि, “चिप्स को मिनिएचर आकार दिया जाता है और इनमें मानव इंसानों के लिए प्रासंगिक कोशिकाएं और टिशू होते हैं।”

कार्यक्रम के तहत चिप पर कई तरह के टिशू और अंगों जैसे, किडनी, लीवर, रक्त-मस्तिष्क बैरियर और हृदय मांसपेशियों को विकसित किया गया है। ये टिशू चिप्स पारंपरिक पशु परीक्षण मॉडल की तुलना में इंसानी प्रतिक्रिया को सटीक तरह से पकडऩे में सक्षम साबित हुए हैं।

टैगले स्पष्ट करते हैं कि, समय के साथ वैज्ञानिकों ने अनुसंधान के उन क्षेत्रों में टिशू चिप्स के उपयोग के बारे में खोज शुरू कर दी जिनका मॉडल बनाना मुश्किल है जैसे कि उम्र बढऩा। उनका कहना है कि, इसका अध्ययन आमतौर पर चूहों, कुत्तों और बंदरों जैसे पशु मॉडलों में किया जाता है। हालांकि, जानवरों के बूढ़े होने का इंतजार करने में दशकों नहीं तो लेकिन कई साल लग सकते हैं। टैगले का कहना है कि, उनके अध्ययन से पता चला  है कि लंबे समय तक-कुछ महीनों से लेकर एक वर्ष से कम समय में ही, माइक्रोग्रेविटी के संपर्क में रहने पर अंतरिक्ष यात्रियों को तेजी से उम्र बढऩे का अनुभव होता है। इसी खोज के कारण एनआईएच और नासा के बीच आपसी सहयोग की शुरुआत हुई। तब से, एनसीएटीएस ने लगभग 15 पेलोड के साथ नौ मिशन लॉंच किए हैं जिसमें हृदय,  मांसपेशियों की हड्डी के जोड़ और फेफड़ों जैसी विभिन्न स्थितियों के समरूप टिशू चिप्स शामिल हैं।

उम्र बढऩे की प्रक्रिया में टिशू चिप्स के तेजी के साथ मॉडल करने को लेकर नतीजे उत्साहवर्धक रहे हैं। इसी कारण अब यह प्रोग्राम जटिल जैविक क्रियाओं के बारे में समझ को बढ़ाते हुए मल्टी ऑर्गन चिप्स के इस्तेमाल से परस्पर जुड़ी अंग प्रणालियों के अध्ययन तक विस्तारित हो रहा है।

टैगल बताते हैं कि, टिशू चिप्स अनुसंधानकर्ताओं को यह समझने में मदद करते हैं कि इंसानी कोशिकाएं और टिशू विशेषतौर पर बाहरी अंतरिक्ष जैसे वातावरण में रियल टाइम में किस तरह से प्रतिक्रिया करते हैं। परंपरागत रूप से वैज्ञानिकों को अंतरिक्ष यात्रियों से नमूने एकत्र करने होंगे और उन्हें अध्ययन के लिए वापस पृथ्वी पर भेजना होगा। वह स्पष्ट करते हैं कि, “टिशू चिप्स में बिल्ट-इन सेंसरों के कारण अब हम अंतरिक्ष में होने वाली इन प्रतिक्रियाओं का रियल टाइम में पृथ्वी पर भी अध्ययन कर सकते हैं।”

सितंबर 2007 में, नासा ने एनआईएच के साथ एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किया। इसका उद्देश्य “पृथ्वी और अंतरिक्ष में उपयोग के लिए बायोमेडिकल रिसर्च के विस्तार और क्लीनिकल तकनीक के विकास के अलावा पृथ्वी पर एवं अंतरिक्ष में इंसानी सेहत को बेहतर बनाने के लिए इन स्थानों पर उपलब्ध सुविधाओं में शोध को बढ़ावा देना था।” यह नासा और किसी दूसरी एजेंसी के बीच अपनी तरह का पहला समझौता था।

एनआईएच और नासा के बीच इस समझौते और इसके बाद के दूसरे समझौतों ने आपसी सहयोग का मार्ग प्रशस्त किया जिसके नतीजे में एनआईएच बायोमेड-आईएसएस प्रोग्राम के तैयार किया गया। इस कार्यक्रम ने वैज्ञानिकों को माइक्रोग्रेविटी और रेडिएशन युक्त आईएसएस के अनोखे वातावरण में बायोमेडिकल रिसर्च से संबंधित नए विचारों के परीक्षण को प्रोत्साहित किया जिससे पृथ्वी पर मानव स्वास्थ्य को फायदा पहुंच सके।

एनआईएच के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ऑर्थराइटिस एंड मस्कुलोस्केलेटल एंड स्किन डिज़़ीज (एनआईएएममएस) में वैज्ञानिक योजना, नीति और विश्लेषण शाखा के उप प्रमुख डॉ. जोनेल ड्रगन के अनुसार, “एनआईएच ने 2010 में इस कार्यक्रम के पहले तीन अनुप्रयोगों और 2011 में चौथे के लिए पैसे का इंतजाम किया।” आईएसएस पर अंतरिक्ष यात्रियों ने वित्तपषित अनुदानों में से तीन पर अनुसंधान किया, जिनमें ओस्टियोब्लास्ट जीनोमिक्स और मेटाबोलिज्म के

ग्रेविटेशनल रेगुलेशन, ऑस्टियोसाइट्स और मैकनो-ट्रांसडक्शन एवं अंतरिक्ष उड़ानों और एजिंग की प्रक्रिया में प्रतिरक्षा का दमन संबंधी विषय शामिल हैं।

मैसाचुसेट्स जनरल हॉस्पिटल के डॉ. पाओला डिविटी पाजेविक द्वारा विकसित ऑस्टियोसाइट्स और मैकेनो-ट्रांसडक्शन अध्ययन ने सेलुलर और मॉलिक्युलर मैकेनिज्म का अध्ययन किया जो हड्डियों को गुरुत्वाकर्षण जैसी तनाव की स्थिति में प्रतिक्रिया करने का मौका देता है। इसका मकसद ऐसी थैरेपी को विकसित करना था जो बीमारी या चोट के कारण सीमित शारीरिक गतिविधि वाले व्यक्तियों में नुकसान को कम कर सके।

2021 में, डॉ. पाजेविक ने निष्कर्ष प्रकाशित किया जिसमें बताया गया था कि आईएसएस पर माइक्रोग्रेविटी ने हड्डी की प्रमुख यांत्रिक संवेदी कोशिकाओं, ऑस्टियोसाइट्स की जीन अभिव्यक्ति को बदल दिया है। निष्कर्षों से यह भी पता चला कि आमतौर पर उपयोग किए जाने वाले कुछ सतह-आधारित सिमुलेटेड माइक्रोग्रेविटी उपकरण अंतरिक्ष जैसी स्थितियों की सटीक नकल नहीं करते हैं। इन निष्कर्षों का न सिर्फ अंतरिक्ष उड़ान कार्यक्रमों के लिए महत्व है बल्कि इनका महत्व कम चलने फिरने के कारण कम दबाव की स्थिति में हड्डियों के क्षरण को समझने और उसके इलाज की दृष्टि से भी बेहद महत्वपूर्ण है।

साभार- spanmag.com/hi/ से

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