‘अर्रे अर्रे! यह क्या कर रही हैं आप माताजी?… छोड़िए!… छोड़िए!’’ मेरे बार-बार बरजने को दरकिनार करतीं वे तीनों वृद्ध महिलाएँ देखते ही देखते आगे बढ़ीं और मेरे पैर कसकर पकड़ लिए… मुझे काटो तो ख़ून नहीं… पत्थर-सी स्तब्ध मैं… अपने पैर छुड़ाने का प्रयास करने लगी, पर उनकी झुर्रियों से भरी मुट्ठियाँ काफ़ी मज़बूत थीं। टूटे-फूटे शब्दों और आँसू झरती आँखों से उन्होंने मुझे समझाया कि चूँकि ‘‘मेरी मातृभूमि भारत है और मैंने बद्री-केदार की यात्रा भी की है… (जो कि भारत में एक साधारण और बेमानी-सी बात है।) उनके इस परम आनंद का कारण है… भौंचक-सी मैं कभी उनकी ओर देखती तो कभी बाईं ओर खड़ी बिंदु भाभी की ओर।
हालत यह थी कि मारे संकोच के मैं ज़मीन में गड़ी जा रही थी, पर उनके उद्गारों से मेरा हृदय गद्गद हो रहा था और मन हल्का हो आकाश में उड़ रहा था। भारत में जन्म लेने मात्र से ऐसा सुख! यह मेरी कल्पना के परे था। …मैंने हल्के हाथों से उन्हें हटाना चाहा, पर वे पैर छोड़ ही नहीं रही थीं। इसलिए मैं धीरे-धीरे पीछे की ओर खिसकने लगी… स्थिति यह बनी कि ऊबड़-खाबड़ बालू होने के कारण संतुलन बिगड़ गया और मैं धड़ाम से पीछे की ओर उटंगती-सी गिरती-पड़ती, ऊटपटांग ढंग से पसरती हुई बालू में बैठ गई… मेरी टाँगें सामने थीं और दोनों हाथ पीछे की ओर की ज़मीन थामे मेरी पीठ को सहारा दे रहे थे। यह दृश्य देख वे तीनों भी सकुचाकर घबरा गईं और इस चक्कर में मेरे पैर छूट गए। … दूसरे ही क्षण वे मेरे पास आईं और क्षमायाचना की तरह मिठास से भरे अपने हाथ मेरे बालों, चेहरे, पीठ, घुटनों आदि पर फेरने लगीं। मैं दंग थी… क्या सच मेरी मातृभूमि ऐसी महान है? जीवन में पहली बार अपने देश के प्रति मेरा हृदय ऐसा आलोड़ित हुआ कि आँखों की कोरें भींग गईं।
मित्रो, यह घटना घट रही है- मॉरिशस में !…भारत के गाँवों की तरह का यह दृश्य मुझे बाधित कर रहा है एक तुलनात्मक दृष्टिकोण के लिए। …यहाँ के परिवेश में प्रेम का समुद्र हिलोरंगे ले रहा है, जबकि आज हमारे यहाँ का ग्रामीण हमसे एक दूरी बनाए सहमा-सा दूर खड़ा रहकर अविश्वसनीय दृष्टि से हमें जाँचता रहता है- (वैसे उसका अविश्वास भी हम शहरियों की ही देन है)।
घटना यूँ घटी कि… मेरी आतिथेय बिंदु भाभी (उप प्रधान मंत्री प्रेम कुंजु की पत्नी) के साथ मॉरिशस के लुभावने समुद्र तट पर टहलते हुए मेरा ध्यान बरबस नारियल पेड़ों के नीचे ‘छीटों के घाघरे’ और ‘सफ़ेद ओढ़नी से सिर ढके’ बैठी हुई तीन बड़ी उम्र की महिलाओं की ओर गया। उनके झुर्रीदार चेहरे प्रसन्नता की आभा से दमक रहे थे। वे कत्थई रंग की शीशे की तश्तरी में सूजी का हलवा परोस कर एक-दूसरे को दे रही थीं। …पता नहीं क्यों, आरंभ से ही मेरा विचित्र स्वभाव बूढ़ों के प्रति एक विशेष लगाव महसूस करता है। इसलिए हाल ही में ‘बद्री-केदार’ की यात्रा से लौटी मैं लगभग दौड़ती-सी उनके क़रीब जाकर बोली थी, ‘‘क्या आपलोग बद्री धाम जाना चाहेंगी? …आप लोग भारत आ जाइए, आगे का सारा ख़र्च और इन्तज़ाम मेरा।’’ (तब तक मेरे तेज़ दौड़ते दिमाग़ ने एक कमख़र्ची योजना भी बना ली थी)। उन तीनों के हाथ रुक गए और वे ‘औसान-चूक’ (हक्का-ब़क़्का) सी मुझे ताकने लगीं। बिंदु भाभी ने जब आगे बढ़कर उन्हें भोजपुरी में मेरा आशय समझाया तो… उनकी आँखें, नाक, चेहरे की नसें, पूरी देह… जैसे तरल होकर आँसुओं की राह बहने लगे- और बस… वे सब उस बालू में…!!
दो-चार मिनट की विश्रांति के बाद जब उनसे चर्चा हुई तो पता चला कि वे ग़रीब हैं और रविवार को काम से छुट्टी होने के कारण आपस में बोलने-बतियाने, सूजी का नमकीन हलवा लेकर मन की भाप निकालने यहाँ आई हैं। बद्री-केदार तो दूर अब तो उनकी आत्मा भी मरने के बाद ही भारत जा पाएगी।…
यह तथ्य चौंकाने वाला था, क्योंकि हम सब इस भ्रम में थे कि 125-150 वर्ष पहले मॉरिशस आया यहाँ का हर भारतीय अब पूर्णत: खुशहाल है, अर्थात पैसे वाला है। मन में प्रश्न जागा- यहाँ भिखारी हैं नहीं? ‘घेटो’ में भी सिर्फ़ नशेड़ी और आलसी अफ्रीक़ी जूलू ही नज़र आ रहे हैं, …तो फिर ये महिलाएँ ग़रीब कैसे?… इस बात का खुलासा वहाँ रहने पर बाद में हुआ।…
मैडागास्कर के पूर्व में और अ़फ्रीका से 2000 किलोमीटर दूर दक्षिण पूर्व में स्थित 1865 वर्ग किलोमीटर का ‘मॉरिशस’ अपनी 330 किलोमीटर की लुभावनी तटीय समृद्धि के लिए आज पूरे विश्व के पर्यटकों की आँखों का तारा बना हुआ है। कहने को तो हिन्दी सम्मेलन और कबीर परिसंवाद हमें यहाँ खींच लाए थे, पर दरअसल हम सब नीले आकाश से, गहरे नीले समुद्र में टपके उस ‘सितारे मॉरिशस’ के रूप के लालची थे, ‘जिसे चाँद की आँख से झरा और सागर की गोद में पला’ ‘मुक्तामणि’ कहा जाता है। जिस ज्वालामुखी ने फटकर मॉरिशस को जन्म दिया था, आज भी वहाँ के लोग उसे बहुत श्रद्धा से देखते हैं। उस 85 किलोमीटर गहरे और कई किलोमीटर चौड़े गर्त्त के अन्दर झाँकने से ऐसी तूफ़ानी हवा से साबिका पड़ता है कि डॉ. बालाशौरी रेड्डी ने घबराने का नाटक करते हुए हँसकर कहा, ‘‘भइया! ज़रा मुझे पकड़ो, कहीं मैं उड़ न जाऊँ।’’
यहाँ की दृश्यावली में कुछ खास न होने पर भी वहाँ खड़े होने पर एक अलौकिक अनुभूति होती है। लगता है आप पृथ्वी के गर्भमुख पर खड़े हैं, अस्तित्वहीन… तत्वहीन… देहहीन… और बस क्षणमात्र में ही यह अणुओं का राशिपुँज नश्वर शरीर हवा में बिखरकर बिला जाएगा।
हालाँकि मॉरिशस का यह हिस्सा न तो यहाँ के अधिकतर स्थानों की तरह हरियाली से… फूलों से… और फलों से लदा–फँदा है, ना ही इसके आसपास वे दुर्लभ ‘गुलाबी कबूतर’ हैं, जो ‘ऑक्स–एग्रेट्स’ में नज़र आते हैं… न ही यहाँ मॉरिशस के वे विशालकाय कमल–पत्र हैं जिनपर एक बच्चा आराम से बैठ या सो सकता है, …और न ही यहाँ मॉरिशस का वह जगत्प्रसिद्ध ‘तालीपॉट ताड़’ है, जो साठ साल में एक बार पूर्ण पुष्पित होता है और फिर मानों पूर्णता की गाथा कहकर मर जाता है। इन सबके बावजूद इस ज़मीन का मायावी आकर्षण आपको अपनी ओर खींचता ही है।….
ऐतिहासिक तथ्य है कि एक पुर्तगाली नाविक 1505 ई. में अकस्मात् यहाँ के समुद्र तट पर आ पहुँचा। उसकी लालची आँखों ने यहाँ की उर्वरित भूमि, ख़ुशगवार मौसम, समुद्र तट और स्वच्छ पर्यावरण का लेखा-जोखा तैयार किया और मॉरिशस को अपने राजा के नज़राने में प्रस्तुत कर दिया। अ़फ्रीका और भारत के सभी फलों, फूलों, सब्ज़ियों, पक्षियों और मछलियों का भंडार और उपजाऊ भूमि का मालिक मॉरिशस पश्चिमी देशों की आँखों में ‘कोहिनूर’-सा चमकने और खटकने लगा…।
अब यूरोप की तिज़ारती नस्ल भला इसे कैसे बख्श देती? देखते ही देखते दौर चल पड़ा इस पर आधिपत्य जमाने का। …पुर्त्तगालियों की मंशा से इसे सर्वप्रथम हड़पा हॉलैंड के ‘डच’ बंदों ने, और 1598 से 1712 ई. तक यहाँ राज किया। बाद में यहाँ फ्रांसिसियों का राज 1715 से 1810 तक चला। इसके बाद पेरिस संधि के अंतर्गत मॉरिशस 1814 से अंग्रेज़ों के कब्ज़े में आ गया। इसके कुछ ही वर्षों बाद इसका दोहन करने के लिए अंग्रेज़ों का ‘नरतांडव’ भारत में शुरू हुआ। इसका प्रमुख कारण था कि पश्चिमी देशों में गुलामी-प्रथा उठ जाने के कारण इन ‘गोरे राजकुमारों’ को दिन में तारे नज़र आने लगे थे और इन हुक्मरानों के सामने ढेरों-ढेर समस्यायें आन खड़ी हुई थीं। …ये ठहरे गोरी चमड़ी के मालिक!! इन्होंने तो सिर्फ़ ‘राज’ करना ही सीखा था ‘काज’ करना नहीं… अब ये करें तो क्या करें? ये सिर फोड़ने लगे कि कैसे अपना ‘राज’ बचाएँ? किसे कुचलें? किसकी जान लें, किसे ढूँढ़े, जो इनकी ज़मीनों में अपना शरीर और आत्मा खपा कर इनके लिए अनाप-शनाप उत्पादन करे? ऐसा कौन हो, जो जलते सूरज में टीलों पर स्थित इनके विशाल बंगले को सिल्क के पंखों से झलकर ठंडा रखे? …अब कौन सारे श्रमसाध्य और घटिया काम करे, जो आज तक इनके ग़ुलाम करते आए थे?…
इनका राजसी ठाठ-बाट कैसे चलता रहे, इसकी फ़िक्र इन्हें खाए जा रही थी कि इनके शैतानी दिमाग़ की खिड़की खुली और इन्होंने अंग्रेज़ों के ‘सूरज न डूबने वाले साम्राज्य’ के एक कोने में स्थित ‘भारत’ को कड़ी नज़र से घूरते हुए अपने ‘दलालों’ को हुक्म दिया- ‘‘जाओ! धोखे से तुरंत उस देश के हट्टे-कट्टे जवानों को यहाँ बहकाकर ले आओ।’’ रक्षक ही जब भक्षक बन जाएँ, तो गुलामी प्रथा का क़ानून क्या करे? अभी भारत का ‘बिहारी’ सूखे की चपेट से गुज़रा ही था कि ‘अंग्रेज़ों के दल्लों’ ने उन्हें रोज़गार और समृद्धि के सब्ज़बाग़ दिखाए। …यहाँ का भोला-भाला मेहनतकश किसान उनके चंगुल में फँसता चला गया। …इस शिकंजे के इंद्रधनुषी रंगों में यह भी शामिल था कि ‘‘अरे! तुम्हें घर क्या ख़बर करनी है? अब तो तुम जल्दी ही पैसों से भरा संदूक लेकर लौटोगे, तभी सबको आश्चर्यजनक आह्लाद से भरना!! …तन पर केवल एक कपड़ा, और हाथ में रामचरितमानस की गुटका मात्र है तो क्या? चलो…चलो! तुम्हारे लिए वहाँ ॠद्धि-सिद्धि से पूर्ण समृद्धि का ख़जाना प्रतीक्षारत है।…सारी दुनिया की ख़ुशहाली बेसब्री से तुम्हारा इंतज़ार कर रही है! चलो… चलो!’’
अब ज़रा उस आह्लाद… खुशी और समृद्धि के इतिहास पर नज़र डालें :-
‘‘सड़ाक्… सड़ाक्… चिर्र.. चिर्र… झन्न-झन्नन्नन… ज़ंज़ीर-बेड़ी की कर्कश खनखनाती आवाज़ से… कान के पर्दे फट रहे हैं। जानवरों से भी बदतर स्थिति में मॉरिशस की जेटी पर भारतीय गुलाम हाथ-पैर-पीठ सब कुछ बेड़ियों में बँधाए… अपनी फटी आँखों से उन खेतों को ढूँढ़ रहे हैं, जो उनके बच्चों के पेट में दो मुट्ठी अनाज पहुँचाएँगे। …मूसलाधार बारिश हो रही है और साथ ही कोड़ों की बरसात भी तेज हो रही है। भूखे पेट ने कुछेक को पूरा, तो कुछ को अधमरा कर दिया है। …अंग्रेज़ राजाओं के अनुसार यह उनकी ‘सिज़निंग’ (क्षमता बढ़ाना) है। …इस कठोर तपस्या से तपकर जो कुंदन निकलेगा उसका स्वर्णिम सुख भी तो ये ही भोगेंगे? पर आख़िर इस तपस्या! इस ‘सिज़निंग’ का क्या फल मिला उन्हें? …क्या हश्र हुआ उनका? …देखिए हश्र- गन्ने के खेतों में गहरे खूँटे गाड़ दिए गए हैं, जिनमें बँधी सांकलों से इन बेड़ीवाले मज़दूरों को कसकर बाँध दिया गया है… खुले आसमान के तले तपते सूरज, तेज़ बारिश, और ओलों की बौछार में चौबीसों घंटे खटने के लिए। उनकी पत्नियाँ कहीं दूर रख दी गई हैं, ताकि पति की अनुपस्थिति में उनपर अहर्निश बलात्कार होते रहें और बाक़ी समय में वे भी अपने आसपास के खेतों में काम करें। खेतों से बीने हुए रूखे-सूखे अनाज का दलिया लेकर वे कभी-कभार ही पतियों के पास खेतों पर जा पाती हैं। पति को ईद के चाँद की तरह कभी-कभार घर आने की अनुमति मिलती है। ऐसे में क्या अस्वाभाविक है कि एक ही माँ के एक नीली आँखों वाला सफ़ेद बुर्राक बच्चा पैदा हो और दूसरा साँवला। पर धन्य है स्वतंत्र मॉरिशस (ई. 1968)। स्वतंत्र गणतंत्र। (1992) में इन संतानों को ‘एक नज़र’ से देखा गया, …बिना किसी भेदभाव के? कितनी महीन और बारीक़ समझ है इस समाज की… कितना सत्यापित न्याय है यह जिसने एक बेबस, लाचार और मज़बूर स्त्री के दर्द को समझा और उसकी संतानों को हिक़ारत की जगह सम्मान से देखा। उस ‘जेटी’ को आज भी एक स्मारक की तरह ‘कुली जेटी’ के नाम से सुरक्षित रखा गया है।’’
अभिमन्यु अनत के लिखे इस ऐतिहासिक नाटक का मंचन जब हम मॉरिशस के प्रेक्षागृह में देख रहे थे, पूरा हॉल सुबकियों से भर गया था। सबकी सूजी हुई आँखें अपने रोने की कहानी कह रही थीं। यह सब देखना और सुनना इतना मर्मान्तक था कि घण्टों हम लोग चुप्पा-से हो गए और… ‘‘ऐ मइय्या! जहाज छूटैला’’ का दर्द हम सबके कानों में कई दिनों तक गूँजता रहा। आज भी मॉरिशस के जवान उस ‘कुली जेटी’ को साष्टांग दण्डवत करते हैं, जहाँ इनके पुरखों का ख़ून बहा था।
यह सही है कि भारतीय किसानों से भरे ये जहाज मॉरिशस से आगे डरबन, केपटाऊन, जोहानिसबर्ग, ट्रिनिडाड, टोबैगो, सूरीनाम तक गये थे और इधर फ़िजी तक… इन सभी देशों में भारतीय मूल के निवासियों ने अपने परिश्रम और सूझबूझ से अपनी आर्थिक स्थिति काफ़ी सुधार ली, पर इनके समाज और संस्कृति की स्थिति उतनी सुडौल नहीं रह पाई, जितनी मॉरिशस की। वैसे तुलसी का बिरवा, हनुमान मंदिर और ध्वजाएँ तो आपको सभी जगह दिख जाएँगी, पर हिन्दी भाषा और संसद में भारतीय मूल का वर्चस्व मॉरिशस में ही दिखेगा।
यहाँ के लोग क्रियोल (फ्रेंच और अ़फ्रीकन का सम्मिश्रण) और फ्रेंच भी बोलते हैं, पर एक बड़ी आबादी भोजपुरी मिश्रित हिन्दी में ही बातचीत करती है। जबकि डरबन आदि जगहों पर केवल नाम और सम्बोधन ही हिन्दी के बचे हैं, बाक़ी सब कुछ अंग्रेज़ी में है। मॉरिशसवासियों के नामों में एक विचित्र-सा परिदृश्य दिखाई पड़ा- ‘मुंशी प्रेमचंद’, ‘रवीन्द्रनाथ टैगोर’, ‘सत्येन बोस’ आदि नाम वहाँ बहुप्रचलित हैं। उपाधियों और जातियों समेत पूरे के पूरे, मसलन ‘सत्येन बोस होलास’, ‘मुंशी प्रेमचंद बोरचंद’ आदि। आखिर इसका कया कारण रहा होगा कि सात समुद्र पार घर-द्वार से बिछड़े… ये लोग ‘राम भजन’, ‘सीताराम’, ‘काशीनाथ’ अपने बच्चों का नाम देते हैं? …अख़बारों में से तैर कर भारतीय मिट्टी से निकले ये जगत प्रसिद्ध नाम जब इनके कानों तक पहुँचे, तो इन्होंने बहुत सम्मान से इन्हें अपने भविष्य को सौंप दिया। डरबन में मेरे एक मित्र का नाम ‘सीताराम रामभजन’ (विश्वविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष) है, लेकिन मॉरिशस में अब कम ही ‘देवधर गजाधर’ आदि मिलेंगे। अब उन्होंने नवीन (प्रधानमंत्री), प्रेम, माधव, धनंजय आदि ढेरों नामों को अपना लिया है। आज वे हर बात में ‘मॉरिशस’ को ‘छोटा भारत’ कहते सुनाई पड़ते हैं। …वैसे तो इन अन्य देशों में भी भारत के प्रति श्रद्धाभाव है, लेकिन मॉरिशस तो स्वयं को भारत का ही एक हिस्सा मानता है।
हालाँकि यहाँ चीनी और मुस्लिम बाशिंदे भी हैं, पर यहाँ की आबादी मुख्यत: हिन्दू धर्मवालों की ही है। इतिहास गवाह है कि यहाँ कभी भी… किसी भी क्षण… धर्म को लेकर हंगामा नहीं हुआ। ‘शिवरात्रि’ के पर्व पर ‘काँवड़िये’ कंधों पर काँवड़ रख ‘गंगा तालाब’ जाते हैं, तो उनके क्रिश्चियन और मुसलमान मित्र साथ-साथ चलते-दिखते हैं। दिवाली, ईद, उगादी (तेलुगु पर्व), गणेश चतुर्थी आदि के समानांतर ही ईसाइयों का ‘फादर लवाल’ एवं फरवरी में चीनियों का नववर्ष ‘वसन्त उत्सव’ के नाम से खूब धूमधाम से मनाये जाते हैं। अचरज हुआ यह देखकर कि यहाँ के घरों पर ताले दिखना तो दूर की बात, यहाँ पुलिस भी नाममात्र को ही है। यह पूछने पर कि यहाँ पुलिस की क्या भूमिका है पता चला कि ‘‘यदि आपने अपनी गाड़ी की चाबी, गाड़ी में ही रहने दी है, तो आपको जेल हो जाएगी।’’… ‘‘कारण?’’… ‘‘यदि कोई बच्चा उत्सुकतावश गाड़ी चला बैठे और मारा जाए, तो ‘मॉरिशस का राष्ट्रीय नुकसान’ होगा।… यहाँ आबादी कम है, और जान क़ीमती है?’’… ऐसी अनहोनी बात पर इस पापी मन को भला कैसे विश्वास होता! पर खोजबीन करने पर इसे सही पाया।
वहाँ दो-एक अजूबे और दिखे: …भारत में विशेषकर दिल्ली में सड़कों पर मंत्रियों का कारवाँ और कर्णभेदी सायरन की चीख़ एकदम साधारण बात है। जबकि ‘पोर्टलुई’ (मॉरिशस की राजधानी) की बासठ सदस्यों की संसद का हर सदस्य अपनी गाड़ी ‘निषिद्ध इलाक़े’ से दूर खड़ी करवा कर पैदल संसद तक आता है, एकदम साधारण ढंग से रोज़मर्रा की आदत की तरह। हमलोगों ने स्वयं प्रधानमंत्री को फ़ाइलों का पुलिंदा हाथ में लिए संसद में आते देखा। सरकार की ओर से सबको एक से एक क़ीमती गाड़ियाँ (फ़ोन सहित) मुहैया हैं, पर उनके बच्चे बस का डंडा पकड़कर स्कूल जाते हैं। उप प्रधानमंत्री की पत्नी को घर का सारा काम ख़ुद करना पड़ता है- खाना बनाना, कपड़े धोना, घर पोंछना आदि-आदि… सब कुछ। इसे सच मानिए! क्योंकि यह मेरा स्वयं का देखा सत्य है।
मॉरिशस के पर्यटन उद्योग, कपड़ा उद्योग, चीनी उद्योग और अब सूचना प्रौद्योगिकी (आई.टी.) ने यहाँ रोज़गार के असंख्य साधन उपलब्ध करवा दिए हैं और यहाँ का आम आदमी काफ़ी ख़ुशहाल है। यहाँ आज तक डकैती और चोरी की घटना नहीं हुई है, …न ही यहाँ कोई भिखारी दिखाई पड़ता है। तो क्या यह स्वर्ग है? नहीं, यहाँ भी उन महिलाओं की तरह ही कई क़िस्मत के मारे लोग हैं, जिनके घर-परिवार में कोई नहीं है। सरकार की पेंशन के बावजूद इस उम्र में भी उन्हें कुछ काम करना पड़ता है। वैसे यहाँ उन्हें रहने, खाने-पीने-पहनने- ओढ़ने की कोई तकलीफ़ नहीं है। …वैसे भी इसे संसार का आठवाँ आश्चर्य ही मानना चाहिए कि यहाँ मंत्रियों समेत किसी का भी लम्बा-चौड़ा बैंक बैलेंस नहीं है। एक बार सरकार गिर जाने पर एक उप प्रधानमंत्री की दयनीय आर्थिक स्थिति की मैं साक्षी हूँ।
‘मॉरिशस’ की अपने नागरिक से बस एक ही अपेक्षा है- आप कर्मठ जीवन जीना सीखें। बैठे-ठाले का यहाँ भगवान भी मालिक नहीं है। यहाँ के ‘घेटो’ इसका सत्यापन करते हैं।…
मॉरिशस एक ऐसा अनुभव है, जो अपनी स्मृति मात्र से ही हृदय में जवाफूल, कमल-पुष्पों और चम्पाओं की ख़ुशबू भर देता है। आपकी रसना- वहाँ के रसीले आम और लीची के लिए ललचाने लगती हैं और शरीफ़े? यहाँ उसे रामफल कहते हैं, आपकी समस्त इंद्रियों को तृप्त कर देते हैं।… वहाँ की हवा… नारियल के दरख़्तों से भरा समुद्र तट… उसके अन्दर बसे मूँगा-प्रवाल के पहाड़ (जिन्हें काँच से बने तलों की नौकाओं से देखने का नायाब सुख…) ये आपके स्मृति पटल पर हमेशा स्फटिक मणि-से कौंधते रहते हैं। इस अनुभव को आप चाहकर भी अपने स्मृति पटल से नहीं पोंछ सकते। … विशेषकर सफ़ेद बालू के अन्दर आतीं नीली लहरें! …आपके सर्वस्व को स्वयं में तिरोहित कर… उस समुद्र की ही एक बूँद बना लेती है… तब आप अपने न होने से दु:खी नहीं… बल्कि एक ऐसे अवर्चनीय आनन्द से भर जाते हैं- जो वाक और अर्थ की सीमा के परे है… और इसे (बस) केवल अनुभव ही किया जा सकता है…
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