अपनी सरकती उम्र इन दिनों मुझे यह भी अहसास कराने लगी है कि मेरी ही नहीं, मुझसे उम्र में बड़े सबकी उम्र सरक रही है। अब कुछ भी टालने की स्थिति, गुंजाइश या समय ही मेरे पास नहीं है। यह निराशा से उपजी मनोदशा नहीं है, यथार्थ है। इस यथार्थ का साबका मंगलवार सुबह कुछ और गहरा हुआ। सोशल मीडिया पर खबर आने लगी रंगकर्मी आलोक चटर्जी नहीं रहे। कोई कह रहा था सोमवार देर रात उनका निधन हुआ, कोई कह रहा था मंगलवार तड़के। समय जो भी हो, सच तो यह था कि वे गुज़र गए। उनसे मुलाकात हुए ज़माना हो गया और बिल्कुल कुछ दिनों पहले ही मैंने तय किया था कि इस बार भोपाल गई तो उनसे ज़रूर मिलकर आऊँगी। पिछली बार गई थी, तब क्यों नहीं मिली या उससे पिछली बार? या इतने साल जब इंदौर में थी तब भोपाल की दूरी क्यों नहीं तय कर पाई? इतना भरोसा कैसे था कि आज नहीं तो कल मिल लेंगे। क्यों लगता रहा कि वे कहाँ भागे जा रहे हैं, भोपाल में ही तो हैं, कभी भी मिल लेंगे। अब…अब, अब क्या मैं यह लिखने की स्थिति में हूँ कि कभी भी मिल लेंगे? वे प्रस्थान कर गए हैं, उनके जीवन के रंगमंच से पर्दा गिर गया है, उनके जीवन का नाटक और उनका नाट्यपूर्ण जीवन हमेशा के लिए समाप्त हो गया है।
उनका जीवन उतार-चढ़ावों से भरा रहा, आर्थिक रूप से कभी टूटा, कभी सँभला रहा। पर हर स्थिति में उन्होंने नाटक चलने दिया। जितना भी कमाया उसमें से आधा हिस्सा घर खर्च के लिए रखा और आधा नाटक को अर्पित कर दिया। ऐसे लोग सच में अब बिरले होते जा रहे हैं, जिनके लिए मैटीरियलस्टिक चीज़ें मायने नहीं रखती हों। शायद हमारी पीढ़ी के पास कहने को ये कहानियाँ तो हैं कि हमने ऐसे लोगों को देखा है जिन्होंने अपने जज़्बे के लिए सब कुछ दाँव पर लगा दिया हो। उनके नाम का आलोक उनके वलय के साथ चलता था। नब्बे के दशक की बात होगी। इंदौर के रवींद्रनाट्य गृह में मृत्युंजय नाटक खेला जाना था। मुख्य पात्र की भूमिका में थे-आलोक चटर्जी।
लगभग 1987 में वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (रानावि), नईदिल्ली से उत्तीर्ण हुए थे और 1990-91 में यह नाटक आया था। वे मृत्युंजय के केंद्रीय पात्र कर्ण की भूमिका में थे। मेरे किशोरवयीन मन पर यह छवि अंकित हो गई कि उनसे बेहतर कर्ण का पात्र और कोई कर ही नहीं सकता है। रवींद्र नाट्य गृह की दर्शक दीर्घा से उन्होंने मंच पर प्रवेश किया था। इस तरह का प्रयोग मैंने पहली बार देखा था। उस तरह का कोई नाटक भी। कर्ण मेरे दिलो-दिमाग पर छा गया था। उसके बाद शिवाजी सावंत के मूल उपन्यास मृत्युंजय को दोनों भाषाओं मराठी और हिंदी में पढ़ डाला। कर्ण की गहरी छाप आलोक चटर्जी ने मुझ पर छोड़ी थी। साल बीतते न बीतते रानावि ने इंदौर में ग्रीष्मकालीन शिविर आयोजित किया। शहर के युवाओं के चयन की प्रक्रिया हुई। मेरा चयन निर्धारित आयु सीमा से कम होने के बावजूद हो गया। तब तक मुझे पता भी नहीं था कि मेरी थाली में कितना शानदार भोज आने वाला है।
गोविंद नामदेव, आशीष विद्यार्थी, सुधा शिवपुरी, आलोक चटर्जी एक से बढ़कर एक कलाकार हमें तालीम देने वाले थे। सुबह सात बजे से शाम तक सेंट रेफियल्स स्कूल का प्रांगण हमारा घर बन गया था। बीच में भोजन अवकाश होता था। हम अपने-अपने घर जाते थे। कुछ प्रशिक्षणार्थी स्कूल में रुक जाते, कुछ प्रशिक्षक भी। मुझसे उम्र, अनुभव और कद में कितने ही बड़े मेरे सहपाठी हो गए थे। हम सब कितना सारा समय साथ बिताते और हम सबके चहेते थे आलोक चटर्जी सर। उनके बाद उनकी जगह आशीष विद्यार्थी ने ली थी। उन दोनों ने हम सबको इतना कुछ सिखाया कि भूले नहीं भूलता। दोनों युवा थे इसलिए भी उनकी हम सबसे अच्छी दोस्ती हो गई थी। वे आलोक सर से हमारे आलोक दा हो गए थे। की क्लास में कई प्रयोग भी होते। वे हमारे मन की गाँठें खोलते। कभी-कभी हम सब समूह में आलोक दा जहाँ रुके थे वहाँ चले जाते। कभी साथ में सब प्रशिक्षण स्थल पर ही दोपहर का भोजन करते। तब तक मुझे केवल इतना पता था कि वे रानावि से निकले हैं, लेकिन वे गोल्ड मेडलिस्ट हैं, बाद में पता चला।
उनके भोपाल लौटने के बाद उनके बारे में हम बातें किया करते थे। चूँकि शेष प्रशिक्षणार्थी उम्र में मुझसे बड़े थे इसलिए शिविर समाप्ति के बाद वे भोपाल जाकर उनसे मिल आया करते। हम प्रशिक्षणार्थी उस शिविर के बाद कुछ अरसे तक आपस में मिलते रहे थे इसलिए आलोक सर के हालचाल पता चलते रहे। आलोक दा का जादू हम सब पर था। वे व्यक्तिगत तौर पर सबसे जुड़े थे। उनकी दमोह की स्कूली पढ़ाई, उनका मेडिकल कॉलेज में हुआ चयन, उनका मेडिकल की पढ़ाई न कर, नाटक करने का निर्णय (वह भी उस जमाने में) हमें बड़ा रोमांचित करता। उसके बाद संपर्क टूटता गया, उनके नाटकों के शो निरंतर जारी थे। भोपाल के रंगमंडल की रेपेटरी में वे शिक्षक थे। मृत्युंजय का नाम तक अब उनके द्वारा अभिनीत प्रमुख नाटकों में नहीं होता। नट सम्राट नाटक ने उन्हें नई पहचान दी। लेकिन मेरे लिए तो वे मृत्युंजय के केंद्रीय पात्र थे, जो आज मृत्यु से हार गए थे…उनके शरीर के कई अंगों ने काम करना बंद कर दिया था। अभिनेता के लिए उसका शरीर ही उसका माध्यम उसका साज़ होता है, वह साज़ थम गया…पर किसी का आलोक तो बिना शरीर के भी रह सकता है न…आलोक तो मृत्यु पर विजय पाकर मृत्युंजय होता है, अमर होता है…
(स्वरांगी साने स्वतंत्र लेखिका व पत्रकार हैं और साहित्य, कला संस्कृति के साथ ही सामाजिक विषयों पर लेखन करती है)
स्वरांगी साने का परिचय