Monday, December 23, 2024
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उन्मेष प्रवासी मन ( काव्य संकलन ):स्वस्फूर्त और अनुभूत भावों का स्पंदन

नींद आंखों में, फिर से आने लगी है
फिर नए ख्वाब हमको, दिखाने लगी है
ज्यों क्षितिज पर उगे, भोर उजली किरण
गुनगुनी धूप से, गुनगुनाने लगी है
ज्यों बहे प्यार से,मंद शीतल पवन
तन में सिरहन सी,फिर से जगाने लगी है
“उन्मेष ” काव्य संग्रह की “ज़िन्दगी” शीर्षक से यह कविता ज़िंदगी के आशावादी स्वरों को गुंजायित करती है। कविता में भावों की उमड़ती सरिता को लेखिका  कुछ इस तरह आगे बढ़ाती हैं….
ज्यों उमगति नदी, पी से मिलने चले
चाह मिलन की, फिर से जगाने लगी है
याद आने लगे, नेह के बीते पल
ये जुबां गीत फिर, गुनगुनाने लगी है
मानव मन सहज संवेद्य है। जब भी उसे अपने आसपास कुछ अघटित सा दिखता है , उसका कोमल मन अशांत हो उठता है, और वहीं कविता के रूप में प्रस्फुटित हो कर जन मन की पीड़ा की अभिव्यक्ति का माध्यम बन जाता है। लेखिका डॉ. अपर्णा पांडेय ने इन भावों को लेखकीय में व्यक्त कर अपनी कविताओं और ग़ज़लों का एक संग्रह रच दिया ” उन्मेष – प्रवासी मन”। इस  काव्य संग्रह में सहज स्फूर्त भावों के साथ – साथ कविताओं और ढाका प्रवास के काव्य अनुभव  संग्रह की विशेषताएं हैं, जिसकी वजह से कृति दो भागों में विभक्त है। प्रथम भाग को “उन्मेष” और दूसरे भाग को ” प्रवासी मन ” नाम दिया गया है। दोनों भागों के अलग – अलग लेखकीय और अनुक्रमणिका हैं। पुस्तक का द्वितीय भाग अदृश्य  शक्ति परमात्मा को समर्पित है। लेखिका अपने कथन में कहती है कि यह खंड उनके ढाका प्रवास की अनुभूतियों और अनुभवों को संपर्पित है। महिलाओं के मन में रूढ़िवादी सोच के प्रति आक्रोश को महसूस किया , उनसे मुक्त होने की छटपटाहट देखी जो इस खंड के लेखन की प्रेरणा बनी हैं। किताब में कुल 53 कविताएं और 15 ग़ज़लों का इंद्रधनुष है।
लेखिका के काव्य सृजन में स्वस्फूर्त भाव इंतज़ार, चिंता, आशा, प्रेम,संयोग,वियोग, आनंद , समाज और दर्द की भावनाएं स्पष्ट दिखाई देती हैं। ” माँ शक्ति ” कविता में  मॉ दुर्गा की शक्ति की प्रभावी आराधना की गई है। ” प्रभु – गुण” कविता भी प्रभु की महिमा का बोध कराती है।  अध्यात्म भाव से प्रेरित कविता “ॐ – नाद ” की पंक्तियाँ देखिए…….
ॐ – नाद की ब्रह्म ध्वनि से, गूंजता भारत सारा।
ऋषियों की पावन वाणी से, भाग रहा अंधियारा ।।
“कबीर” नामक काव्य में कबीर की वाणी को ध्वनित किया है…..
राम रहीम लड़ मुए, भेद मिटा ना कोई ।
सुलझा सुलझा थक गया, देख कबीरा रोये।।
जप – माला छापा तिलक, सरे न एको काम।
या कलयुग में पूज रहे, निर्गुण, मूर्ख, पाम ।।
“ऋषि दयानंद” कविता में उनकी शिक्षाओं और विचारों को दर्शाया है।
विमूढ़ मन में सांसारिकता, भौतिकवाद और आध्यात्म का अनूठा मेल है………
कंटकों के पथ पर तू, ढूंढता क्यों फूल भोले।
स्वार्थ के संबंध सारे, होना है बस प्रभु का होले।।
साथ जाएगा कुछ नहीं, सच यही पर छूट जाएगा।
फिर भला कहे मनुज तू, पाप दुनिया में कमाए।।
“शरद – ऋतु” कविता में शरद का प्रकृति का रमणीक चित्रण और आनंद का बड़ा ही मनोहारी वर्णन किया है………..
शरद की ऋतु है आई, सुहाना रूप है लाई,
कि अब आकाश है निर्मल,मृदु – मंथर पवन भू पर।
हरसिंगार के सुंदर, बिखरते भूमि पर चादर,
कि मन होता प्रफुल्लित है,तन है फूल सा निर्मल।।
कर्म का संदेश देते हुए ‘ इतिहास का निर्माण ‘ कविता में कहती हैं…….
‘ सूर्य ‘ बन कर तू उग फिर, विश्व के आकाश में।
कीर्ति किरणों नए, इतिहास का निर्माण कर।।
” ध्यान बहुत है” कविता की ये पंक्तियों का सुंदर भाव देखिए……..
सद – विवेक, सद – जान मुझे दो
पत रखना उम्मान बहुत है।
बस विवेक का साथ न छुटे
प्रभु चरणों में ध्यान बहुत है।
” मिट्टी” कविता बालमन को समर्पित है जिसमें बालमन को तरंगित करते हुए जीवन में आगे बढ़ने का संदेश है…….
नर से नारायण, तो बन ही जाता है,
कर्मों की रेखा जब, जीवन बन जाती है।
भव – रूपी सागर में, कर्मों को चुनने दो,
चिंतन के चप्पू, जीवन को मुड़ने दो।
” ख्वाइश नहीं ” ग़ज़ल की बानगी की चंद भाव देखिए…….
उसूलों पर हो कायम तू, प्रलोभन हो भले कितने
नजारे बन के महकेगा, ये जीवन तक यकीं तेरा।
” दीवार गिराई जाए” प्रेम को समर्पित बहुत ही भावपूर्ण सृजन है ……..
अब चलो प्यार की, इक दुनिया बसाई जाए
भाव केसर से हो, बगिया वो लगाई जाए
जहां न जाती, भाषा, धर्म की दीवारें हों
चलो मिल कर चलें , दीवार गिराई जाए
प्यार के जज्बे से, नई पौध जो पैदा होगी
फिज़ा में खुशबू की, सौगात फिर लाई जाए।
इन खूबसूरत और भावपूर्ण रचनाओं के साथ साथ इस संग्रह की अन्य रत्न – गर्भा, मातृभूमि की वेदना, परीक्षा, रक्त, हम बच्चे भारत के,मौका परस्त, मखौल, है समर्पित आपको प्रेम की पाती हमारी, एहसास, क्यों मिले,अजब दुनियां,किस से कहे और आखिरी जज़्बात,दिल वाले, टूटने वाला दिया है, यूं ही तो नहीं, प्यार बहुत है, मिल चुकाना है, अंदाज़ – ए – बयां, सीख लिया, दूर हो, अमोघ, जीवन नदी , समझौता, ऊंचे लोग,प्रीत, प्यार नहीं गुजरता, आदि रचनाएं भी सार्थक सृजन हैं जिनमें कोई न कोई सकारात्मक संदेश गूंजता है।
 पुस्तक की भूमिका ” डॉ. अपर्णा पाण्डेय की विविधवर्णी काव्याभा ” लिखते हुए भारत सरकार के एसएसएसओ के अधीक्षण अधिकारी, तथा कवि, समीक्षक वीरेंद्र सिंह विद्यार्थी ने लिखा कि ” डॉ. अपर्णा पाण्डेय के इस संकलन के विश्व – विधान में प्रकृति के समृद्ध उपादान तथा सौंदर्य को इंद्रिय – संवेद्य बनाकर प्रस्तुत करने का  श्लाघ्य प्रयास किया है। यहां केवल व्यक्तिगत प्रेम की धमाचौकड़ी ही नहीं, सामाजिक पीड़ा की चीख पुकार भी है। कविता की कलात्मकता के अन्वेषण में कवियित्री का परंपरा – बोध प्रखर रूप से उभरता है परंतु वह जड़ता को दृढ़ता से तोड़ता हुआ, जूझता हुआ भी दिखाई पड़ता है। शिवराज श्रीवास्तव और हाई कमीशन ऑफ इंडिया, ढाका के निदेशक जयश्री कुंडू के अभिमत भी भूमिका के बाद दिए गए हैं। लेखिका ने यह कृति अपने स्व. पिता आचार्य लाल बिहारी शास्त्री और माता स्व. कृष्णा देवी को समर्पित की है। मां शारदे की प्रतिमा लिए कत्थई रंग में आवरण अत्यंत सुंदर और क्लासिक है।
पुस्तक : उन्मेष प्रवासी मन
लेखिका : डॉ. अपर्णा पाण्डेय
प्रकाशक : वृंदावन बिहारी दार्शनिक अनुसंधान केंद्र, नई दिल्ली
पृष्ठ : 101
मूल्य : 120 ₹
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समीक्षक
डॉ. प्रभात कुमार सिंघल
लेखक एवं पत्रकार, कोटा

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