वर्तमान समाज में जब से सोशल मीडिया और नेटवर्क ने अपना प्रभुत्व बढ़ा लिया है,तब से शिक्षकों और गुरुओं का कार्य क्रमशः घटता जा रहा है। ऑनलाइन क्लास, ऑनलाइन पेमेंट, ऑनलाइन शॉपिंग और ऑनलाइन रोजगार के साथ-साथ हमारे व्यवहार कुशलता भी विलुप्त हो रही है। संस्कार दिखाई नहीं देते।अच्छी आदतें विरले ही दिखाई देती हैं। आज सूचना प्राप्ति के स्रोत बहुत बढ़ गए हैं अतः सूचना के लिए शिष्य गुरु पर आश्रित नहीं हैं। कुछ समय पहले जब सूचना प्राप्ति के लिए कोई स्रोत नहीं होते थे ,मार्गदर्शन के लिए गुरु ही एकमात्र विकल्प होता था तब गुरु का महत्व बहुत ज्यादा था!
वैदिक काल जो पूर्णतः वेदों और उपनिषदों का समय था, संस्कृति और संस्कृत वाणी अपने चरम उत्थान पर थी। उस काल में ज्ञान एवं सूचना का एकमात्र स्रोत गुरु या शिक्षकों के उपदेश ही होते थे। उस समय गुरु और शिष्य के बीच में ही शिक्षा व्यवस्था थी। तीसरी कोई कड़ी या माध्यम उपलब्ध नहीं होती थी।उन दिनों शिक्षकों का मार्गदर्शन पाठ्यक्रम नहीं करता बल्कि गुरु ही पाठ्यक्रम का निर्धारण करते थे। किस शिष्य को कब और क्या सीखना है कब क्या आवश्यकता है? पूर्णतया गुरु ही निर्धारित करते थे । गुरु के आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण करना उस समय की आवश्यकता थी, इसलिए गुरुकुल शिक्षा प्रणाली थी और शिक्षक ज्ञान का प्रसार करने और शिक्षा तथा संस्कार सिखाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। आने वाली चुनौतियों से लड़ने के लिए शिष्य को पूरी तरह से तैयार करते ,आवश्यकता पड़ने पर उसे दंडित भी करते थे।इस बात की उन्हें पूर्ण आजादी भी होती थी। गुरु उन्हें शिक्षा देकर जीवन जीने योग्य बनाकर पूर्ण मानव के रूप में घर भेजते थे।
हमारी भारतीय संस्कृति में यह विख्यात है कि ‘जैसा खाए अन्न वैसा होये मन’। वैदिक काल से ही परंपरागत रूप में उक्त विचार का पालन देखने को मिलता था । हमारे भारतीय गुरुओं को भी यह बातें बखूबी ज्ञात होती थी इसीलिए गुरुकुल में भोजन का मीनू भी गुरु ही बताते थे। कब खाना है? कितना खाना है और क्या खाना है ?यह पूरी तरह से गुरु ही तय करते थे !अतः विद्यार्थियों को अपने भूख ,प्यास और नींद पर पूर्णतया संयम और नियंत्रण होता था !यह भी कहा जाता है कि भूखे पेट रहने पर सात्विक विचार आते हैं इसीलिए हमारे भारतीय संस्कृति में उपवास का विधान भी बनाया है।
जब हम कम भोजन करते हैं या उपवास करते हैं अथवा भूखे पेट होते हैं तो उस समय मानव कल्याण के विचार जन्म लेते हैं, ऐसा भारतीय मनीषियों का मानना है परंतु आज तो शिक्षा ही नहीं बल्कि भोजन की भी व्यवस्था ऑनलाइन हो जाने से जब चाहे ,जहां चाहे ,जो चाहे उपलब्ध हो जाता है और वह भी बिना किसी परिश्रम के। ऐसे में भोजन का क्या महत्व ?कैसा अन्न और कैसा मन? जीह्वा और मन पर कैसा नियंत्रण? उस भोजन की कैसी शक्ति ?उसमें किसका प्रेम? किस तरह का स्वाद? किस तरह का सेहत और कहां उसमें भारतीय संस्कृति? यहां तो पूरी व्यवस्था ही ऑनलाइन है, शिक्षा से लेकर भोजन तक! वहीं अगर ऑनलाइन व्यवस्था नहीं होती, प्रत्यक्ष रूप से शिक्षक होते तो बिना परिश्रम किसी को भी कुछ भी खाने को मिलता? नहीं न?तब भला कौन शिष्य बेवजह अपनी जीह्वा को तकलीफ देकर गुरु के समीप जाकर बेवजह अपने ऊपर अंकुश लगवाएं ?अनुशासन किसे अच्छा लगता है? संस्कृतियों को कौन देखने आता है? जैसा है वैसा चलने दिया जाए!
वहीं अगर भारतीय गुरुकुल व्यवस्था की बातें करें तो बिना परिश्रम किसी को कुछ भी नहीं मिलता! परीक्षा के परिणाम से लेकर भोजन तक, हर जगह परिश्रम का ही महत्व दिखाई देता है !छात्रों को गुरु बचपन से ही पढ़ाते हैं –
‘उद्यमेनैव सिद्धयन्ति कार्याणि न वै मनोरथैः,
नहि सुप्तस्य सिंहस्य मुखे प्रविशन्ति मृगाः! ‘
त
भी तो परिश्रम करके पहले भोजन एकत्रित करना पड़ता है, उसके बाद स्वयं ही उसे बनाना पड़ता है! फिर अच्छा या बुरा जैसा भी बन पड़ा है ,उसे श्रद्धा और आदरपूर्वक नमन करके भोजन करना होता था क्योंकि भोजन अन्नपूर्णा मां का आशीर्वाद है, उन्हीं की कृपा से प्राप्त होता है,तो उस देवी को नमन करके आदर पूर्वक भोजन को ग्रहण करना हमारी संस्कृति में बताया जाता है !यही हमारी आदतें हमारे संस्कार बनकर पीढ़ी दरपीढ़ी हस्तांतरित होती हैं और हमारी भारतीय संस्कृति के रूप में विश्व भर में हमारी पहचान बताती है!
दुख इस बात की है कि वर्तमान ऑनलाइन सिस्टम में अन्नपूर्णा माता की बातें कौन करें और कहां करें? कहीं भी, कभी भी और कुछ भी खाने वाली जनता अन्नपूर्णा देवी को भला क्यों याद करें ? ऐसे में भोजन मंत्र पढ़ने वाले और अन्नपूर्णा को आदर प्रदान करने वाले लोग तो मजाक और उपवास के पात्र बनते जा रहे हैं !तब भला ऐसे में कौन गुरु आगे आकर हमें हमारी संस्कृति से रूबरू करवाए और हमारे सनातन धर्मियों को भारत बोध की दिशा का ज्ञान कराए? विचारणीय है….
डॉ सुनीता त्रिपाठी ‘जागृति’ अखिल भारतीय राष्ट्रवादी लेखक संघ (नई दिल्ली)