Thursday, January 2, 2025
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…और जतिन बन गया राजेश खन्ना

ये कहानी तब की है जब राजेश खन्ना कोई फिल्मस्टार नहीं, कॉलेज स्टूडेंट हुआ करते थे। तब वो राजेश खन्ना भी नहीं, जतिन खन्ना थे। उनका एक कॉलेज फ्रेंड एक ड्रामा कंपनी से जुड़ा था, जिसका नाम था आईएनटी ड्रामा कंपनी। उस ड्रामा कंपनी के डायरेक्टर थे वी.के.शर्मा। मशहूर लेखक व डायरेक्टर सागर सरहदी भी तब उसी ग्रुप का हिस्सा थे। राजेश खन्ना साहब की बायोग्राफी लिखने वाले लेखक यासिर उस्मान को सागर सरहदी जी ने एक इंटरव्यू दिया था, जिसमें उन्होंने वी.के.शर्मा साहब के बारे में कहा था,”उस ड्रामा ग्रुप के सबसे महत्वपूर्ण शख्स हुआ करते थे वी.के.शर्मा। वो उत्तर प्रदेश से थे। कद तो उनका छोटा था। पर प्रतिभा के मामले में वो बहुत बड़े थे। वो नाटक लिखते थे। नाटकों का निर्देशन करते थे। और उनमें अभिनय भी करते थे। जतिन(राजेश खन्ना) उन्हें अपना गुरू मानते थे। हालांकि शुरुआत में ना तो वी.के.शर्मा, और ना ही अन्य लोग जतिन को गंभीरता से लेते थे।”
सागर सरहदी जी के मुताबिक, जतिन हर शाम रिहर्सल में आते थे और एक कोने में खड़े होकर अन्य एक्टर्स को अपने-अपने किरदारों की प्रिपेरेशन करते देखते थे। तब शायद जतिन इसी उम्मीद में रहते होंगे कि किसी दिन वी.के.शर्मा उन्हें नोटिस करेंगे। और वो जतिन को उनका पहला ब्रेक देंगे। मगर कई महीनों तक जतिन को कोई रोल नहीं मिला। मगर एक दिन ड्रामा कंपनी से जुड़ा एक एक्टर बीमार पड़ गया। जबकी दो दिन बाद ही एक शो होना था जिसमें वो एक्टर भी हिस्सा लेने वाला था। उसका रोल तो काफी छोटा था। उसे सिर्फ स्टेज पर खड़ा रहना था और एक लाइन बोलनी थी। अब नाटक के मंचन से महज़ दो दिन पहले उस रोल के लिए किसी नए एक्टर को तैयारी कराना आसान नहीं था। इसलिए वी.के.शर्मा चिंतित हो उठे। तभी उनका ध्यान जतिन पर गया जो हर दिन की तरह उसी कोने में खड़ा होकर रिहर्सल देख रहा था। उन्होंने जतिन को बुलाया और पूछा,” एक छोटा रोल निभाना चाहोगे?
जतिन ने बहुत सामान्य ढंग से हां में सिर हिला दिया। जबकी वी.के.शर्मा का वो ऑफर सुनकर उनका दिल बहुत तेज़ धड़क रहा था। आखिरकार महीनों के इंतज़ार के बाद जतिन को उनके सब्र का फल मिलने जा रहा था। छोटा ही सही, उन्हें उनका पहला रोल ऑफर हुआ था। उस पल को याद करते हुए खुद राजेश खन्ना ने एक दफ़ा कहा था,”कुछ ही सेकेंड्स में मैं उस सीमा के पार आ खड़ा हुआ, जिससे पार जाने का ख्वाब मैं कई महीनों से देख रहा था।” मगर वो सब उतना भी आसान नहीं था। जिस नाटक में जतिन को जीवन का पहला किरदार निभाना था उसका नाम था “मेरे देश के गांव।” उस नाटक को नागपुर में आयोजित होने वाले एक कॉम्पिटीशन में परफॉर्म किया जाना था। उन दिनों जतिन के एक बहुत खास दोस्त हुआ करते थे जिनका नाम था हरीदत्त। हरीदत्त ने भी उस नाटक में एक्टिंग की थी। उन्होंने उस नाटक में एक अहम किरदार निभाया था।
हरीदत्त ने लेखक यासिर उस्मान को दिए एक इंटरव्यू में बताया था,”वो 3 मई 1961 का दिन था। मुझे ये तारीख इसलिए याद है क्योंकि मुझे उस नाटक के लिए बेस्ट एक्टर का अवॉर्ड मिला था। मैंने उसमें एक पागल आदमी का किरदार निभाया था। जतिन का रोल बहुत छोटा था। वो एक दरबान बना था। मुझे अब भी याद है कि वो घबराहट के मारे कांप रहा था।” उस पूरे नाटक में जतिन को सिर्फ एक ही लाइन बोलनी थी। वो लाइन थी “जी हुज़ूर, साब घर पर हैं।” वो एक लाइन याद करने के लिए जतिन ने घंटों तक रिहर्सल की थी। मगर जब नाटक शुरु हुआ और जतिन की लाइन बोलने का वक्त धीमे-धीमे नज़दीक आने लगा, वो घबराहट का शिकार हो गए। भीड़ से भरे ऑडिटॉरियम में लाइव शो में डायलॉग बोलने का खयाल उन्हें डराने लगा। आखिरकार जतिन के डायलॉग बोलने का वक्त आ ही गया।
सालों बाद उस दिन को याद करते हुए राजेश खन्ना जी ने कहा था,”मैंने बहुत मेहनत की थी उस एक लाइन पर। मगर शो के दिन मैं फिर भी नर्वस हो गया और अपनी वो एक लाइन गलत बोल गया। मुझे कहना था ‘जी हुज़ूर, साब घर पर हैं।’ मगर मैं कह गया ‘जी साब, हुज़ूर घर पर हैं।’ डायरेक्टर मुझ पर बड़ा गुस्सा थे। शो खत्म होने के बाद मैं चुपचाप, बिना किसी को बताए, किसी से मिले अपने घर भाग गया।” उस दिन को याद करते हुए हरीदत्त जी ने कहा था,”जतिन जब जा रहा था तो उसकी आंखों में आंसू थे।” घर पहुंचने के बाद जतिन किसी से नज़रें ना मिला सके। वो सीधा अपने कमरे में गए। उन्होंने खुद को शीशे में देखा और फिर नज़रें फेर ली। वो समझ चुके थे कि वो औरों से तो भाग सकते हैं। मगर खुद से नहीं भाग सकते। एक्टर बनने के अपने ख्वाब को पूरा करने के अपने पहले प्रयास में जतिन को नाकामी का सामना करना पड़ा था। उनका कॉन्फिडेंस भी बुरी तरह डगमगा गया था। अपने कमरे में वो उस दिन ज़ोर-ज़ोर से रोए। उस रात उन्होंने काफ़ी शराब पी। ताकि वो सो सके। मगर नशे की उस हालत में भी वो अपनी उस पहली हार की टीस को भुला नहीं सके।”
अगले दिन जतिन के दोस्तों ने उन्हें चियर करने की कोशिश की। मगर जतिन किसी से मिलने नहीं आए। एक दिन पहले नाटक में हुआ वो पूरा वाकया जतिन को बहुत शर्मनाक लग रहा था। जतिन ने नाटकों की रिहर्सल पर जाना भी बंद कर दिया। हरीदत्त बताते हैं कि जतिन बहुत ज़्यादा सेंसिटिव थे। वो हर बात को दिल पर ले लेते था। मैंने उससे कहा था कि नाटकों में ये सब होता रहता है। मगर उन्हें फ़िक्र थी कि उनके पिता उन पर फैमिली बिजनेस को जल्द से जल्द जॉइन करने का दबाव बना रहे थे। और जतिन में इतना साहस भी नहीं था कि वो अपने पिता की आंखों में देख भी सकें। मना करना तो दूर की बात थी। अपने इस ख्वाब के लिए ही तो उन्होंने अपने पिता के बिजनेस को त्यागने का फैसला किया था। लेकिन वो तो एक लाइन तक सही से डिलीवर ना कर सके।
दोस्तों ने जब काफ़ी कहा तो आखिरकार जतिन फिर से नाटक में लौट आए। और इत्तेफ़ाक से आगे चलकर वो नाटक उस ड्रामा कंपनी का सबसे सफ़ल नाटक साबित हुआ। जतिन का आत्मविश्वास लौटना शुरू हुआ। सागर सरहदी ने लेखक यासिर उस्मान को बताया था कि उस थिएटर कंपनी में जतिन की पहचान तब एक ऐसे लड़के की थी जो अच्छा है और एक्टिंग करना पसंद करता है। बकौल सागर सरहदी, जतिन ने उनके लिखे दो नाटकों “मेरे देश के गांव” व “और शाम गुज़र गई” में काम किया था। हालांकि शुरुआत में किसी ने भी जतिन को बहुत इंपोर्टेंस नहीं दी थी। मगर जतिन ने फैसला कर रखा था कि आज नहीं तो कल, हर किसी को उन्हें गंभीरता से लेना होगा। उन दिनों जतिन का अधिकतर समय थिएटर से जुड़े लोगों के साथ ही गुज़रता था। अक्सर थिएटर के लोग जब मिलते थे तो नई कहानियों, किरदारों के बारे में अधिक बात करते थे। जतिन को वो माहौल बहुत पसंद आता था।
एक्टिंग और थिएटर के प्रति जतिन का वो बेइंतिहा लगाव आखिरकार रंग लाया। धीरे-धीरे जतिन स्टेज पर बढ़िया प्रदर्शन करने लगे। वो इंटर-कॉलिजिएट कॉम्पिटीशन्स में भी हिस्सा लेने लगे। मशहूर नाटककार व फिल्म डायरेक्टर रमेश तलवार ने एक दफ़ा कहा था,”उन दिनों नाटकों में जतिन को बहुत खास रोल नहीं मिलते थे। मगर वो छोटे रोल्स को भी मना नहीं करते थे। मेरे अंकल सागर सरहदी ने एक नाटक लिखा था जिसका नाम था “और दिए बुझ गए।” जतिन ने उस नाटक में बड़े भाई का किरदार निभाया था। उस नाटक को वी.के.शर्मा ने डायरेक्ट किया था। वो पहला किरदार था जिसके लिए जतिन की तारीफें हुई थी। और उन्हें कॉलेज फेस्टिवल में अवॉर्ड भी मिला था। उस दिन जतिन बहुत खुश हुए थे। उसी दौरान जतिन ने सत्यदेव दुबे के नाटक अंधा युग में भी काम किया था।” जतिन खन्ना के उस दौर को याद करते हुए सागर सरहदी ने कहा था,”उस नाटक कंपनी से गौरी नाम की एक लड़की भी जुड़ी थी। वो लड़की बहुत खूबूरत थी। सब उसके साथ फ्लर्ट करने की कोशिश करते थे। लेकिन वो अगर किसी से प्रभावित थी तो सिर्फ जतिन से। जतिन की स्माइल और इनोसेंस बहुत प्रभावी थी। थिएटर के दिनों में तो हमें उसका चार्म नहीं दिखा था। मगर लड़कियां तब भी जतिन को बहुत पसंद करती थी।”
कॉलेज फंक्शन में अवॉर्ड मिलने के बाद जतिन का सैल्फ कॉन्फिडेंस शिखर पर आ चुका था। जतिन के ख्वाबों को भी पंख लग चुके थे। अब जतिन थिएटर से आगे बढ़कर, फिल्मों में एक्टिंग करना चाहते थे। उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री के तमाम बड़े प्रोड्यूसर्स के ऑफिसों में अपनी तस्वीरें छोड़ना शुरू कर दिया। जतिन को पता था कि फिल्म इंडस्ट्री के लिए वो सिर्फ एक स्ट्रगलर है। जैसे तमाम दूसरे लड़के-लड़कियां हैं। जतिन ने अपने एक्टिंग टैलेंट को और अधिक पॉलिश करने के लिए स्टेज पर अपनी एक्टिंग स्किल्स को शार्प करना शुरू कर दिया। इसी दौरान एक दिन जतिन को थिएटर डायरेक्टर बी.एस.थापा ने फोन किया। बी.एस.थापा जतिन को लीड रोल में लेकर एक नाटक डायरेक्ट करना चाहते थे। जतिन के लिए ये एक बड़ी खुशखबरी थी। थापा ने जतिन को गेलॉर्ड रेस्टोरेंट मिलने के लिए बुलाया। ये एक ऐसा रेस्टोरेंट था जो चर्चगेट इलाके का बहुत ही मशहूर और सॉफिस्टिकेटेड रेस्टोरेंट उन दिनों माना जाता था। अक्सर फिल्म इंडस्ट्री के लोग उस रेस्टोरेंट में मीटिंग्स करने आते थे।
अपने संघर्ष के दिनों में जतिन भी गेलोर्ड रेस्टोरेंट जाते रहते थे। वहां उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री के तब के कई बड़े नामों को देखा था। जिनमें सुनील दत्त, जे. ओम प्रकाश व मोहन कुमार जैसे नाम शामिल थे। बी.एस.थापा के बुलाने पर जब अगले दिन जतिन गेलोर्ड रेस्टोरेंट पहुंचे तो उन्होंने रेस्टोरेंट के बाहर एक खूबसूरत सी लड़की को देखा। उस लड़की की पर्सनैलिटी ने जतिन को बहुत प्रभावित किया। जतिन काफी देर तक दूर से उस लड़की को देखते रहे। कुछ पल बाद वो लड़की रेस्टोरेंट के भीतर चली गई। जतिन भी बी.एस.थापा से मिलने रेस्टोरेंट में घुसे तो उन्हें एक सरप्राइज़ मिला। वो खूबसूरत सी लड़की बी.एस.थापा के साथ ही बैठी थी। शुरुआती बातचीत के बाद बी.एस.थापा ने उस लड़की की तरफ इशारा करते हुए जतिन से कहा,”जतिन इनसे मिलिए। ये हैं अंजू महेंद्रू। नाटक में ये ही आपकी हीरोइन होंगी।” जतिन ने मुस्कुराकर अंजू महेंद्रू से हाथ मिलाया। और फिर तीनों नाटक के बारे में बात करने में मशगूल हो गए।
साथियों ये कहानी खत्म होती है यहीं पर। मैं जानता हूं कि आपमें से बहुत से लोगों को ये बात अच्छी नहीं लग रही होगी कि अभी तो कहानी में अंजू महेंद्रू की एंट्री हुई है। जिस किताब से ये कहानी मैंने लिखी है उसमें भी ये कहानी इसी जगह आकर खत्म होती है।
साल 1942 में 29 दिसंबर को राजेश खन्ना साहब का जन्म हुआ था। मैं इनके शुरुआती जीवन पर ही इससे पहले भी इक्का-दुक्का कहानियां किस्सा टीवी पर पोस्ट कर चुका हूं। उनमें से एक कहानी सुरेखा नाम की उस लड़की के बारे में है जो राजेश खन्ना जी के जीवन की वो पहली लड़की थी जिसके साथ उनका रुमानी रिश्ता कायम हुआ था। जबकी वो उम्र में सुरेखा से काफी छोटे थे और बालक ही थे। फिर सुरेखा वाले चैप्टर का एक दुखद अंत भी हो गया था। कोई फिर से पढ़ना चाहे तो बताइएगा। मैं फिर से सुरेखा व राजेश खन्ना वाली कहानी का लिंक शेयर कर दूंगा। राजेश खन्ना वाकई में सुपरस्टार थे। उनकी कहान जैसे-जैसे आगे बढ़ेगी आपको पता चलेगा कि क्यों उन्हें बॉलीवुड का पहला सुपरस्टार कहा गया था। और कैसे उनका पतन होना शुरू हुआ था। इस कहानी में मौजूद अधिकतर जानकारियां हमने पत्रकार व बायोग्राफर यासिर उस्मान जी द्वारा लिखित राजेश खन्ना जी की बायोग्राफी “राजेश खन्ना: द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ इंडियाज़ फर्स्ट सुपरस्टार” से ली हैं। बहुत अच्छी किताब है। आप ऑनलाइन खरीद सकते हैं। अंग्रेजी भाषा में है। पढ़ेंगे तो निराश नहीं होंगे आप।
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