Sunday, January 5, 2025
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कुंभ स्नान के आकर्षण नागा साधुओं का गौरवशाली इतिहास

कुंभ स्नान आरम्भ होने वाला है कुंभ की महत्ता तो लगभग सभी सनातनियों को पता है इस कुंभ में संत महंत साधु साध्वी अखाड़े राजनेता समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति से लकर सामान्य व्यक्ति तक सभी शाही स्नान करने आते हैं ओर इनही में से एक है नागा साधु आज  नागा साधुओ  के बारे में जानना बेहद जरूरी है।सनातन धर्म हजारों साल से भारत भूमि पर ऐसे ही अक्षुण्ण नहीं है. इसके लिए बड़े बलिदान दिए गए हैं. जिसमें सबसे आगे रहे हैं नागा साधु और संन्यासी. जिनके योगदान के बारे में हम जानते ही नहीं. क्योंकि वामपंथी और विदेशी मानसिकता के इतिहासकारों ने उनकी गौरव गाथा को छिपा दिया.

8 वीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य जी ने हिंदू सेना के रूप में नागाओं का गठन किया, तो एक नई सैन्य परंपरा का जन्म हुआ। जो शक्ति और भक्ति के पर्याय है  सभी हिंदू अखाड़ों में से ऐसे नागा सबसे अधिक सैन्य रूप से सुसज्जित और उग्र थे, और उनके आश्रय स्थलों को आज भी ‘छावनी’ कहा जाता है। उन्हें सभी वैदिक विरोधी आक्रमणकारियों से लड़ने के लिए भी प्रशिक्षित किया गया था। वे तलवार, भाला त्रिशूल  धनुष और कृपाण के साथ शरीर पर एक लंगोटी के साथ भस्म और चंदन का लेप लाये रहते थे।

शंकराचार्य जी का जन्म केरल के कलाडी में हुआ था और कहा जाता है कि उन्होंने पाँच वर्ष की आयु में ही घर छोड़ दिया था। उन्होंने ज्ञान और शस्त्र दोनों की आवश्यकता को समझते हुए शास्त्र को आचार्यों का क्षेत्र और अस्त्र को नागाओं का ‘आभूषण’ बनाया।  धर्म विरोधीयो से हिंदू धर्म को ‘वापस जीतना’ काफी हद तक इन आक्रामक नागाओं द्वारा ही संभव हुआ था। दशनाम संन्यास आश्रम गिरी (पहाड़ी संप्रदाय), पुरी (कस्बों से), सरस्वती (पुजारी), वन-आरण्यक (जंगल के साधु) और सागर (समुद्र तटीय संप्रदाय) से बने हैं।

वैसे तो आरम्भ से लेकर वर्तमान तक इनका इतिहास बहुत से धर्म युद्धो से भरा है पर आज हम विशेष राजस्थान और इसके आस पास के क्षैत्रो से संबंधित इनके योगदान को जानने का प्रयास करेगे ।

संत दादूदयाल के शिष्यों की नागा सेना ने ढूंढाड़ को बचाने के लिए लगातार दो सौ साल तक 33 युद्धों में भाग लेकर त्यागमयी सेवा और कुर्बानी दी। वर्ष 1779 में बादशाह शाह आलम द्वितीय के सूबेदार मुर्तजा अली खां भड़ेच करीब पचास हजार सैनिकों के साथ शेखावाटी होते हुए जयपुर पर हमला करने आया था। श्रीमाधोपुर को लूटने के बाद वह खाटू श्यामजी मंदिर को तोडऩे के लिए बढऩे लगा। तब दादू संत मंगलदास के नेतृत्व में नागा साधुओं ने शुरू में नाथावत व शेखावतों के साथ मिलकर मुगल सेना से मोर्चा लिया।

जयपुर से कछवाहा सेना के पहुंच जाने पर सभी ने मिलकर मुगलों से घोर संग्राम किया। युद्ध में दादू संत मंगलदास महाराज तो सिर कटने के बाद भी झुंझार बन लड़ते रहे।  इन शूरवीरो के लिए ही कहा गया है “सर कर रीया ओर धड़ लड़ रीया आ शान है राजस्थान री सगली दुनिया बोल रही आ धरती है बलिदान री “ डूंगरी के चूहड़ सिंह नाथावत भी अपने दो पुत्रों के साथ युद्ध में शहीद हुए। सेवा के दलेल सिंह, दूजोद के सलेदी सिंह शेखावत, बलारा के हनुवंत सिंह, बखतसिंह खूड़ व सूरजमल ने सेना के हरावल में रह लड़ते हुए कुर्बानी दी।

युद्ध में कायमखानी मिश्री खां, कायस्थ अर्जुन व भीम के अलावा स्वरुप बड़वा, महादान चारण, मौजी राणा ने भी श्याम मंदिर को बचाने के लिए प्राण न्योछावर किए। इन सब वीरों ने मुर्तजा खां भड़ेच को उसके हाथी सहित मार दिया और मुगल सेना को भगा दिया। कुर्बानी देने वाले संत मंगलदास की आज भी पूजा होती है। इस युद्ध में देवी सिंह सीकर, सूरजमल बिसाऊ, नृसिंहदास नवलगढ़ और अमर सिंह दांता ने भी सेना सहित हिस्सा लिया। दादू पंथियों की सात बटालियनें थी।

एक वस्त्र में लंगोट व पांच शस्त्रों में तलवार, ढाल, तीर, भाला और कटार जैसे पौराणिक हथियारों से युद्ध करते थे। सबसे पहले कामां की तरफ से जयपुर पर होने वाले हमले में नागा संतों ने बहादुरी दिखाई। लुहारु की तरफ से जयपुर पर हमला रोकने के लिए दांतारामगढ़ व उदयपुर वाटी में नागा सेना भेजी गई। टोंक नवाब से अनबन हुई तब निवाई में नागा सेना भेजी गई। वर्तमान सचिवालय की बैरक्स में नागा पलटनें रहती थी।

नागा सेना ने खाटूश्यामजी के अलावा जोधपुर,खंडेला,फतेहपुर,करौली, ग्वालियर, मंडावा, नवलगढ़ सहित करीब 33 युद्धों में वीरता दिखाई। जयपुर के घाट दरवाजे की सुरक्षा का भार नागा सेना के पास रहा। और इनकी विशेषता के कारण ही जयपुर दरबार मे इनका विशेष स्थान रहा है।

कुंभ मेलों व संतों की सुरक्षा के लिए नागा संत हथियारों के साथ जाते रहे।  क्योकि दादूपंथी शूरवीर व विद्वान महात्मा हुए, इनको शुरू से ही शास्त्र व शस्त्रों का अभ्यास कराया जाता रहा।

नागा साधुओं ने भारत की गुलामी के दिनों में भारी संघर्ष किया है और अपने प्राणों का बलिदान दिया है. लेकिन आजादी प्राप्त होने के बाद देश को सुरक्षित हाथों में जानकर उन्होंने अपनी सैन्य क्षमता को समेट लिया है. अब नागा साधु आध्यात्मिक उन्नति की साधना में ही लीन होते हैं. इन संन्यासियों को संसार से कुछ भी नहीं चाहिए.

लेकिन धर्म को  बचाए रखने के लिए इन नागा साधुओं के संघर्ष को जानना सभी भारतीयों के लिए बेहद आवश्यक है. क्योंकि उनकी बलिदान का गाथाएं हमें  धर्म संरक्षण हेतु संघर्ष के लिए प्रेरित करती हैं।

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