महान् देशभक्त , महान् गोभक्त , महर्षि दयानन्द सरस्वती भारत के उन सन्तों एवं महर्षियों में अग्रगण्य थे जिन्होंने वैदिक धर्म के प्रचार एवं गोरक्षा के प्रचार – प्रसार में ही अपना महान् बलिदान दे दिया था। भारत का यह महर्षि उस समय सामाजिक सुधार के कार्यक्षेत्र में अवतीर्ण हुआ था जब १८५७ में राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के स्फुलिंग फूट – फूटकर देश के चारों कोनों में व्याप्त हो रहे थे। सबसे पहले स्वराज्य के मन्त्रदाता इस महर्षि ने संगठित रूप से गोहत्या बंदी की आवाज उठाई थी ।
इसके प्रमाण के रूप में डॉ फर्रुखसियर ने जो उसी ईस्वी शताब्दी आरम्भिक दशक में भारत भ्रमण पर आया था , उसने भारत से वापिस जाकर एक पुस्तक लिखी थी| जिसका नाम है- “ दी रिलीजस मूवमेंट इन इण्डिया ” इस पुस्तक में उसने लिखा- “ भारत में एक आग सुलगने लगी है जो पता नहीं किस दिन ज्वालाओं का रूप धारण कर ले और उसमें अंग्रेजी राज्य जलकर भस्म हो जाये। ” इस आग को सुलगाने वाले महर्षि दयानन्द सरस्वती का नाम ही उसने लिखा है। उसने महर्ज़ि के सम्बन्ध में लिखा- ” इस व्यक्त ने १८५७ के संग्राम के बाद एक पुस्तक लिखी जिसका नाम ” गोकरुणानिधि ” है। उसमें दयानन्द ने एक स्थल पर लिखा है- ” जो सुखकारक पशुओं के गले छुरों से काटकर अपना पेट भरकर संसार की हानि करते हैं क्या संसार में उनसे अधिक कोई विश्वासघाती औरअ अनुपकारी दुःख देने वाले पापी जन होंगे। ” उस महर्षि ने वहां पर फिर लिखा- ” गो आदि। पशुओं के नाश होने से राजा और प्रजा का नाश हो जाता है।
” इस प्रकार १८५७ के स्वातन्त्र्य संग्राम में जहां विदेशी शासन को उतार फैंकने की प्रबल भावना महर्षि ने पैदा की थी , उसी गोरक्षा की भावना के कारण ही १८५७ में गाय की चर्बी लगे कारतूसों को सिपाहियों ने अपने हाथ से छूना भी पसंद न किया था। मंगलपाण्डे ने इसी बगावत के कारण मेजर ह्यूसन को गोली से उडा दिया था। मंगल पाण्डे को भी अंग्रेजों ने फांसी दे दी थी। रानी विक्टोरिया ने जो इस बगावत के बाद घोषणा की थी कि उसमें गोवध रोकने की भी की गई थी। इस गोवध बंदी की घोषणा की महर्षि ने अपनी पुस्तक में की है। राजस्थान के पोलिटिक्ल एजेंट कर्नल ब्रुक्स जब रिटायर्ड होकर इंग्लैण्ड जाने लगे तो उनकी विदाई सभा में भी महर्षि ने कर्नल ब्रुक्स से कहा था- ” हमारी ओर से रानी विक्टोरिया को जाकर यह कह देना कि अंग्रेजी शासन के मस्तक पर लगे गोवध के कलंक से भारतीय बहुत असंतुष्ट हैं।
” गोकरुणानिधि पुस्तक लिखते समय महर्षि इतने द्रवित एवं अश्रुपूर्ण आंखों से परमात्मा की ओर अपनी लेखनी उठाकर बोल उठे- “ हे परमेश्वर ! तू क्यों इन पशुओं पर जो कि बिना अपराध मारे जाते हैं दया नहीं करता ? क्या इन पर तेरी प्रीति नहीं है ? क्या इनके लिए तेरी न्यायसभा बंद हो गई है ? क्यों उनकी पीड़ा छुड़ाने पर तू ध्यान नहीं देता ? और उनकी पुकार क्यों नहीं सुनता ?
इससे प्रतीत होता है कि महर्षि को गोहत्या होने से पर्याप्त आन्तरिक कष्ट था। गोकरुणानिधि पृथक् पुस्तक लिखने के बाद सत्यार्थप्रकाश के दसवें समुल्लास में उन्होंने इस समस्या को फिर उठाया है। गाय के होने वाले लाभों से सबसे सुव्यवस्थित आंकड़े जितने महर्षि ने देकर उस समय भारतीयों का ध्यान आकृष्ट किया था। इसके साथ ही उन्होंने भारत में सबसे पहले गोशाला रिवाड़ी में आपके ही हाथों से स्थापित कर रचनात्मक कार्यक्रम दिया था। जहां महर्षि ने गोवध बंदी की ध्वनि ऊंचे स्वर से गुजारित की वहां साथ ही साथ “ गोकृष्यादि रक्षिणी सभा की भी स्थापना की थी। कृषि करने वाले किसानों के विषय में भी महर्षि ने ऐलान किया- ” राजाओं के राजा किसान आदि परिश्रम करने वाले होते हैं। ” की उन्नति का मार्ग किसानों के खेतों से ही गुजरता है।
वैसे तो महर्षि प्राणिमात्र की हत्या के विरोधी थे , परन्तु गाय के आर्थिक , नैतिक , सांस्कृतिक रूप के कारण वह गाय को प्रमुखता देते थे। पीछे वेदों के अर्थों का अनर्थ जिन लोगों ने किया और यज्ञों ने गोमांस डालने का विधान वेदों से किया और गोमेध ‘ जैसे यज्ञों में गौओं की हत्या का विधान किया , महर्षि ने वेदों का भाष्य करते समय उन सबका खण्डन किया। वेदों का सच्चा स्वरूप प्रकट किया।
भारतीय स्वाधीनता का शंखनाद करते समय महर्षि ने राजस्थान के क्षत्रिय राजाओं को गोहत्या के प्रश्न पर धिक्कारते हुए कहा था- ” आप कैसे क्षत्रिय हैं ? जब सात समुद्र पार से आकर विदेशी अंग्रेजों ने भारत भूमि पर गोहत्या आरम्भ कर दी फिर आप का यह क्षत्रियापन किस दिन काम आएगा ? तुम क्षत्रिी के रहते हुए भारत माता की छाती पर गाय का खून बहे यह कितने दुःख की बात है। ” गोरक्षा के लिये इतना करते – करते उन्होंने आपने जीवन के चलते – चलते उन्होंने महत्त्वपूर्ण कार्य किया वह भी गोहत्या के ही विरोध में था।
ब्रिटिश पार्लियामेंट के नाम पर गाय जैसी सर्वोपाकारी पशु के लिए एक बहुत ही गंभीर और गोरक्षा की युक्तियों से भरी हुई चिट्ठी लिखकर राजा महाराजाओं से लेकर भारत की निर्धन जनता से स्वयं घूम – घूमकर स्थान – स्थान पर जाकर करोड़ों हस्ताक्षर महर्षि ने करवाए। पार्लियामेंट में उनके द्वारा भेजी गई करोड़ों व्यक्तियों की उस आन्तरिक पुकार की क्या प्रतिक्रिया रही इसके परिणाम महर्षि जान भी न पाए थे कि उन्हें विष दे दिया गया। गोरक्षा की वेदि पर महर्षि का बलिदान हो गया। महर्षि के संसार से विदा होने के बाद फिर होना ही क्या था ? हुआ भी उल्टा ही। सन् १८८३ में अलीगढ़ के मुहम्मदन कॉलेज के प्रिंसिपल मिस्टर बेक थे। उसने मुसलमानों को उभाकर गोहत्या चालू रहे , इसके हस्ताक्षर कराने आरंभ कर दिए। उसने यह काम दिल्ली की जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर बैठ कर कराए। उसने गोहत्या बंदी के विरोध में मुस्लिमों को तैयार किया। यह अंग्रेजों की कूटनीति का प्रत्यक्ष उदाहरण है।
महर्षि के बाद उनके द्वारा स्थापित शक्तिशाली संगठन आर्यसमाज ने भी गोहत्या बंदी के कार्यक्रम को बराबर चालू रखा। आर्यसमाज का आन्दोलन जिस उग्रता के साथ आगे बढ़ता जा रहा था , सारे देश की सहानुभूति आर्यसमाज को प्राप्त होती जा रही थी। ब्रिटिश सरकार चिन्तित हो उठी , उसने स्थान – स्थान पर हिन्दू – मुस्लिम दंगे करवाकर आर्यसमाज को बदनाम करने की कोशिश की। १८९३ में उत्तर प्रदेश के बलिया में गाय के प्रश्न पर भयंकर दंगा करवाया गया।
अनेकों स्थानों पर गौ के कारण दंगे करवाए जाते रहे। उधर आर्यसमाज के धुआंधार प्रचार से सांस्कृतिक मनोवृत्ति के कारण तिलक , गोखले , मालवीय आदि कांग्रेसी नेता भी गोवध पर रोक चाहते थे।
तिलक जी ने तो १९१९ में अपने एक भाषण में कहा था कि स्वराज्य मिलते ही ५ मिनट में ही गोहत्या बंद कर देंगे। मालवीय जी तो गोसम्मेलनों में रो ही पड़ते थे। गांधी जी पहले तो गोहत्या के विरोध में थे , गाय के सम्बन्ध में भी उनका दृष्टिकोण गोहत्या बंदी का ही था। किन्तु जैसे वे हले हिन्दी के पक्ष में थे , बाद में हिन्दुस्तानी के पक्ष में हो गये। इसी प्रकार आद में राजनीति के कारण वे गोहत्या के पक्ष में हो गए उन्होंने कलकत्ता में २२ अगस्त १९४७ को कहा था कि अगर गोरक्षा के प्रश्न को आर्थिक दृष्टिकोण से देखा जाये तो उस हालत में दूधन न देने वाले , कम दूध देने वाले गाएं , बूढ़े और बेकार जानवर बिना किसी बात के सोचे मार डालने चाहिएं। इस बेरहम आर्थिक व्यवस्था की भारत में कोई जगह नहीं है।
गांधी जी का यह भी कहना था कि भारत में मुसलमान भी रहते हैं , उनकी इच्छा के विरुद्ध गोहत्या कैसे बंद की जा सकती है। मुस्लिम तुष्टिकरण के कारण ही तो गांधी जी पाकिस्तान निर्माण का समर्थन करते रहे। पाकिस्तान निर्माण करवाकर उसे ५५ करोड़ रुपये भी दे दिए थे।
अब रही बात महात्मा गांधी जी के परम् सहयोगी प्रधानमन्त्री पं० जवाहरलाल नेहरू की बात – सरकार ने गोहत्या बंदी के विषय में जानकारी के लिए सर दातार की अध्यक्षता में एक कमेटी नियुक्त की थी कि लोकसभा में २ अप्रैल , १९५५ को दातार कमेटी की सिफारिशों पर विचार हो रहा था। नेहरू जी ने उसमें अपने विचार बहुत ही क्रोध एवं आवेश में आकर रखते हुए कहा था want to make it perfectly clear at the outset that the Govt . are entirely oppesed to this bill . I do not agree and I am prepared to resign from the Prime ministership but I will not give into this kind of अर्थात् मैं आरम्भ से ही यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि सरकार इस गोरक्षा विधेयक के सर्वथा विरुद्ध है। मैं सदन को कहूंगा कि इस विधेयक को बिल्कुल रद्द कर दें। यह राज्य सरकारों का विषय है। मैं उनसे भी कहूंगा कि वे इसे बिल्कुल पास न करें। मैं इससे सहमत नहीं हूं। मैं इसके विरुद्ध प्रधानमन्त्री पद से भी त्यागपत्र देने के लिए उद्यत हूँ। मैं गोरक्षा विधेयक के सामने झुडूंगा नहीं।
” कांग्रेसी राज में फिर गोहत्या कैसे बंद हो सकती थी। प्रधानमंत्री नेहरू ही इसके मुख्य कारण थे। वेद हमारे मनुष्य जीवन के लिए परम धर्म माने गए हैं।
गायों के लिए वेद का आदेश है- “ माताए रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाम मतस्य नाभिः। ” ( ऋ०८-१०१-१५ )
प्रस्तुत मन्त्र में न केवल उसे माता कहा गया है अपितु उसे पुत्री और बहन भी कहा गया है। अर्थात् जो हमारे भावनात्मक और पवित्र पारिवारिक सम्बन्ध माता , पुत्री और बहन के साथ है वे ही इस गौ के साथ हैं। वैदिक संस्कृति में गोहत्यारों के लिए दण्ड व्यवस्था है। अथर्ववेद १-१६-४ में कहा गया है-
“ यदि नो गां हंसि यद्यश्वं यदि पूरुषम्।
तं त्वा सीसेन विध्यामो यथा नोऽसीऽचीरहा।। ”
अर्थात् जो हमारे गाय , घोड़े और मनुष्यों का विनाश करता है , उसे हमें सीसे की गोली से मार देना चाहिए। गोहत्यारों के लिए जन तक भारत में यह गोली से उड़ा देने की व्यवस्था रही , तब तक गोडल्या नहीं होती थी। बस , अन्न तो सरकार के एक नियम बना देना चाहिए कि यदि कोई हत्या करता है तो उसे मृत्युदण्ड होना चाहिए। ऋग्वेद १०-८७-१६ में लिखा है योऽघ्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च। इसमें गोहत्यारों के सिरों को कुल्हाड़े से काटने का आदेश दिया गया है।
आज देश में लगभग ३६ हजार कत्लखाने हैं। जहां बड़ी सत्रा में सार भर में लाखों पशुओं का कत्ल होता है। देखिये – एक बूचड़खाना हैदराबाद के निकट अलकबीर नाम का है जिसका निर्माण ७५ करोड़ रुपयों की लागत से हुआ है। यह नाम जान बूझकर उसके हिन्दू मालिक एवं एन.आर.आई ने चुना है , क्योंकि उसके इस प्लांट का सारा माल मिडिल ईस्ट मलेशिया के मुस्लिम देशों और ईसाई फिलीपीन को भेजा जाता है। इस कत्लखाने से ७५ करोड़ रुपये की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। यहां पर मारी गई गाय – भैंस के हरेक हिस्से का इस्तेमाल होता है। इसकी लैदर – चमड़े की इण्डस्ट्री द्वारा चमड़े के अन्य उत्पादन तथा हड्डियों से खाद तैयार किए जाते हैं। एक बहुत बड़ा कत्लगाह बम्बई के निकट देवनार में भी है। इसमें कत्ल किए गए पशुओं की संख्या २६४१७६८ है। कत्ल किए गए पशुधन का मूल्य १७९४८७९ ००० रुपये है।
ऐसे २३६ हजार से अधिक कत्लखाने व ३००-३०० एकड़ भूमि में फैले इस अलकबीर जैसे २४ से भी अधिक यान्त्रिक कत्लखानों द्वारा होने वाले नुकसान का हिसाब जोड़ा जाये तो देश में एक भी पशु कहां बचेगा ? देखिये चन्द्रगुप्त के समय भारत की जसख्या १९ करोड़ थी , गायों की संख्या ३६ करोड़ थी। अकबर के समय भारत की जनसंख्या २० करोड थी और गौओं की संख्या २८ करोड़ थी। कहां तक गिनें जाएं। गाय तो अब करोड़ों में नहीं , लाखों की संख्या में ही बच रही है। सब जगह छोड़ देने पर मारी – मारी फिरती हैं। कोई भी नहीं पूछता और अधिक क्या लिखें। महर्षि दयानन्द की गोपालन की आज्ञानुसार आज भी सभी गुरुकुलों में गोओं का पालन बड़ी श्रद्धा हो रहा है।
गुरुकुल कुरुक्षेत्र में अनेकों गाय गोशाला में हैं जो मन – मन दूध देने ली हैं। उनकी सेवा में गुरुकुल के आचार्य देवव्रत जी अधिकारी बड़े तन – मन धन से करते हैं। आर्ष गुरुकुल कालवा के आचार्य श्री बलदेव जी ने भी एक बड़ी भारी गोशाला गांव धडौली में चालू की है जिसमें ३ हजार के लगभग गाएं बहुत ही अच्छी हैं। गुरुकुल झज्जर में भी बहुत ही हैं। इस प्रकार सभी गुरुकुलों के साथ गोशालाएं भी होती हैं। हरयाणा में तो सभी गुरुकुलों में गोशालाएं हैं। हरयाणा में जहां प्रत्येक घर में गाय होती थी , आज उनके यहां भी गोपालन का रिवाज छूटता जा रहा है। बैलों वाले ‘ हल ‘ समाप्त होते जा रहे हैं। इसलिए साल भर में दुधारू गाएं एक लाख , नब्बे हजार बछड़ों का मांस डिब्बों में बंद करके अरब आदि मुस्लिम देशों में पैट्रोल मंगवाने के लिए भेजा जा रहा है। गाय का दूध – घी – छाछ तो अब दुर्बलभ होते जा रहे हैं।
हरयाणा में तो एक छोटा पाकिस्तान बना हुआ है। जहां रात्रि के समय हजारों गायों का कत्ल होता है। इसे ‘ मेवात ‘ कहा जाता है। ट्रकों में भरकर मांस व हड्डियां कानपुर आदि में भेजी जाती हैं। यह सब काम रात्रि के समय खेतों में किया जाता है।
प्राचीनकाल में राजे – महाराजे भी गोपालन करते थे। जनता भी गाय पालती थी। आज सब कुछ समाप्त हो गया है। हिन्दी के कवि कुसुमाकर ने गोपालन के लाभों के बारे में कितना अच्छा लिखा —
चाहते हो भव – व्याधियों से निज मानस का कल – कंज हरा हो ,
दूध – दही की बहे सरिता फिर गान गोपाल का मोद भरा हो।
नन्दिनी नन्दन में विचरे शुचि शक्ति का स्रोत सदा उभरा हो ,
घाम ललाम वही कुसुमाकर गाय को चाट रहा बछड़ा हो।।