Wednesday, January 22, 2025
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चीन के पड़ोसी देशों ने भारत की ब्रम्होस मिसाईल खरीदकर चीन की नींद उड़ाई

दक्षिणपूर्व एशिया के देशों को ब्रह्मोस मिसाइल बेचने से भारत को कई फायदे हैं. इससे भारत की छवि एक प्रमुख हथियार निर्यातक देश के तौर पर बनेगी. इन देशों के साथ समुद्री साझेदारी मज़बूत होगी. इतना ही नहीं अगर चीन के साथ ज़मीन विवाद होता है तो फिर भारत इस इलाके में अपनी नौसैनिक उपस्थिति का लाभ उठा सकता है.

इंडोनेशिया के राष्ट्रपति प्रबोवो सुबियांतो 2025 में भारत के गणतंत्र दिवस समारोह के मुख्य अतिथि हैं. सुबियांतो की भारत यात्रा का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य ब्रह्मोस सुपरसोनिक मिसाइल प्रणाली के अधिग्रहण का पता लगाना है. फिलीपींस और वियतनाम के बाद दक्षिण पूर्व एशिया में इंडोनेशिया तीसरा ऐसा देश है, जो इस घातक मिसाइल को खरीदना चाहता है. इन देशों के रुचि विशेष रूप से ब्रह्मोस के ज़मीन और शिप आधारित एंटी-शिप वेरिएंट पर है. इन देशों को लगता है कि दक्षिण चीन सागर में उनके नौसैनिक अभियानों में चीन की दख़लअंदाज़ी का मुकाबला करने में ये मिसाइल बहुत काम की साबित हो सकती है. चूंकि ये मिसाइल अपनी क्षमताओं को साबित कर चुकी है, इसलिए फिलीपींस ने पहले ही इसका अधिग्रहण कर लिया है. वियतनाम और इंडोनेशिया के साथ ब्रह्मोस मिसाइल के संभावित सौदे पर बात चल रही है. हालांकि, चीन के आसपास के क्षेत्रों में, विशेष रूप से इसके विवादित समुद्री क्षेत्र में, ब्रह्मोस मिसाइल के शामिल होने से चीन की चिंताएं बढ़ गई हैं.

ब्रह्मोस मिसाइल प्रणाली भारत में बनी एक बेहद सफल हथियार के रूप में उभर रही है. इनकी ज़बरदस्त मांग है और भारत इनका निर्यात भी कर रहा है. ब्रह्मोस मिसाइल को भारत-रूस के बीच एक संयुक्त उद्यम के माध्यम से विकसित किया गया है. ब्रह्मोस मिसाइल रूस की पी-800 ओनिक्स “याखोन” मिसाइल प्रणाली पर आधारित है. हालांकि उस रूसी मिसाइल की तुलना में ब्रह्मोस की क्षमताओं में काफ़ी सुधार किया गया है. कुछ नए फीचर भी जोड़े गए हैं. यह एक मध्य दूरी की, रैमजेट-संचालित सुपरसोनिक मिसाइल है. ब्रह्मोस को इस हिसाब से डिज़ाइन किया गया है कि उसे जल-थल और वायु कहीं से भी इस्तेमाल किया जा सकता है. ब्रह्मोस 2.8 मैक की गति हासिल कर सकती है. इसकी मारक क्षमता 800 किलोमीटर तक है. हालांकि, मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रिजीम (MTCR) प्रतिबंधों की वजह से निर्यात की जाने वाली ब्रह्मोस मिसाइलों की मारक क्षमता को 290 किलोमीटर तक सीमित कर दिया गया है. 2007 से ही इस मिसाइल के कई वेरिएंट्स को भारतीय सेनाओं ने अपनी सूची में शामिल किया है.

इंडोनेशिया के राष्ट्रपति प्रबोवो सुबियांतो 2025 में भारत के गणतंत्र दिवस समारोह के मुख्य अतिथि हैं. सुबियांतो की भारत यात्रा का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य ब्रह्मोस सुपरसोनिक मिसाइल प्रणाली के अधिग्रहण का पता लगाना है.

भारतीय सेना में इतने साल पहले ही शामिल होने के बावजूद, ब्रह्मोस को खरीदार खोजने में काफ़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ा. शुरुआत में इसका सीधा मुकाबला याखोंट मिसाइल से था. रूस ने 2010 के दशक की शुरुआत में इंडोनेशिया (2007), वियतनाम (2010-2011) और कुछ अन्य देशों को इनकी आपूर्ति की थी. भारत को बौद्धिक संपदा (इंटेलेक्चुल प्रॉपर्टी राइट्स) के मामले में भी रूस के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा. इससे निर्यात संभावनाएं और जटिल हो गईं. भारत सरकार को भी चीन की संभावित नाराज़गी पर विचार करना था. इसे लेकर भारत का दृष्टिकोण सतर्कता वाला था. इसने भी ने ब्रह्मोस मिसाइलों के निर्यात के फैसलों को प्रभावित किया, खासकर वियतनाम जैसे दक्षिणपूर्व एशियाई खरीदारों को ब्रह्मोस मिसाइल बेचते वक्त चीन के रुख़ का भी ध्यान रखा जाना था.

हालांकि इनमें से अधिकांश बाधाएं अब दूर हो रही हैं. इस मिसाइल के उत्पादन के लिए रूस पर भारत की तकनीकी निर्भरता काफ़ी हद तक कम हो गई है. इसके अलावा, जैसे ही भारत-चीन संबंध ख़राब हुए और बीजिंग ने आक्रामक बर्ताव तेज़ कर दिया, वैसे ही चीन को लेकर भारत की झिझक भी ख़त्म हो गई. चीन ने दक्षिणपूर्व एशियाई देशों को ब्रह्मोस मिसाइल के निर्यात को लेकर खुद पर जो रोक लगाई थी, उसे ख़त्म कर दिया. इसका नतीजा ये हुआ कि ब्रह्मोस मिसाइल 2020 के दशक में भारत की रक्षा कूटनीति में एक प्रमुख उपकरण के रूप में उभरी.

भारतीय सेना में इतने साल पहले ही शामिल होने के बावजूद, ब्रह्मोस को खरीदार खोजने में काफ़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ा. शुरुआत में इसका सीधा मुकाबला याखोंट मिसाइल से था.

भारत के रुख़ में इस बदलाव का पहला फायदा फिलीपींस ने उठाया. जनवरी 2022 में उसने 375 मिलियन डॉलर के सौदे को अंतिम रूप दिया. इस समझौते के तहत फिलीपींस की नौसेना को तीन मिसाइल बैटरियों से लैस किया जाएगा. सौदे में इन मिसाइलों के लिए प्रशिक्षण और रखरखाव की सहायता भी शामिल है. पहला मिसाइल सिस्टम अप्रैल 2024 में डिलीवर किया गया. इस अधिग्रहण के बाद ब्रह्मोस मिसाइल में फिलीपींस की रुचि बढ़ी है, क्योंकि उसकी सेनाएं अब अतिरिक्त मिसाइल बैटरियों के लिए बातचीत कर रही हैं.

दूसरा संभावित खरीदार वियतनाम तो 2010 से ही ब्रह्मोस में रुचि दिखा रहा है. वियतनाम अब पांच मिसाइल बैटरियों के लिए 700 मिलियन डॉलर के सौदे को अंतिम रूप दे रहा है. इसके लिए तकनीकी-वाणिज्यिक जानकारियों पहले ही साझा की जा चुकी हैं. इसी तरह, इंडोनेशिया भी 450 मिलियन डॉलर के अनुबंध पर बातचीत कर रहा है. अगर एक बार इन सौदों को अंतिम रूप दिया जाता है तो दक्षिण पूर्व एशिया में रक्षा क्षेत्र के लिए भारत की एक्ट ईस्ट नीति और मज़बूत होगी.

वियतनाम और इंडोनेशिया दोनों ने पहले रूस से याखोंट मिसाइलें खरीदीं. वियतनाम ने तटीय क्षेत्रों की रक्षा के लिए बैस्टियन-पी सिस्टम का संचालन किया. इंडोनेशिया ने जहाज आधारित एंटी-शिप मिसाइलों को तैनात किया. इसके बावजूद इन दोनों देशों ने लॉजिस्टिक को आसान बनाने के लिए इसी तरह के रूसी सिस्टम को चुनने की बजाए भारतीय विकल्प को चुना. ये इन दोनों देशों की सफल रणनीति को भी दिखाता है. वैश्विक अनिश्चितताओं के बीच रक्षा आयात में विविधता लाने और रूस पर निर्भरता कम करने के लिए उन्होंने भारतीय मिसाइल को चुनना बेहतर समझा. हालांकि ब्रह्मोस मिसाइल की एडवांस फीचर्स और उनकी अब तक की प्रतिष्ठा भी निर्यात में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं. इसके अलावा, इंडोनेशिया के साथ होने वाले सौदे में राष्ट्रीय मुद्रा व्यवस्था इस्तेमाल हो सकता है. अगर ऐसा हुआ तो वो दूसरे खरीदारों के साथ भविष्य के लेन-देन के लिए एक मिसाल कायम करेगा.

चीन के लिए, उसके करीबी पड़ोसी देशों में ब्रह्मोस मिसाइलों का प्रसार और तैनाती होना एक बड़ी चुनौती है, खासकर विवादित समुद्री क्षेत्रों में. चीन तो ब्रह्मोस मिसाइल की एडवांस फीचर्स के बारे में पूरी जानकारी है. दुश्मन के क्षेज्ञ में दमदार प्रवेश क्षमता के लिए इसका आकार डार्ट जैसा  है. इसमें रडार को चकमा देने की भी क्षमता है. रैमजेट इंजन प्रतिद्वंद्वी द्वारा प्रतिक्रिया देने के समय को सीमित करता है. इसका गाइडेंस सिस्टम भी बहुत सटीक है. इसके लिए मिसाइल में इनर्शल नेविगेशन सिस्टम (आईएनएस) और सेंसटर नेटवर्क सिम्युलेटर (एसएनएस) और अनामलस प्रॉपगेशन (A/P) जैसे रडार कॉम्पोनेंट लगाए गए हैं. इसके अलावा, इसकी एंटी-इंटरफिरेंस कैपिबिलिटी ब्रह्मोस को लंबी दूरी की एक विश्वसनीय और फायर-एंड-फॉर्गेट (दागो और भूल जाओ) मिसाइल बनाती है. चीन के एक्सपर्ट्स ने इसकी क्षमताओं और मारक क्षमता की वजह से ही ब्रह्मोस मिसाइल को संभावित “अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा के लिए परेशानी खड़ी करने वाला” बताया है. गौर करने वाली बात ये है कि 2021 में, गलवान घाटी पर हुए संघर्ष के बाद भारत ने वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) के पास ब्रह्मोस मिसाइल की तैनाती कर दी थी. तब चीन ने इसे भड़काने वाला कदम और द्विपक्षीय बातचीत में बाधा के रूप में देखा.

फिलीपींस के मामले में, सिमुलेशन (नकली युद्धाभ्यास) से ये पता चला कि अगर 24 से 36 ब्रह्मोस मिसाइलें दागी जाएं तो इससे चीन के विमान वाहक युद्ध समूह को बहुत नुकसान हो सकता है.

ब्रह्मोस को लेकर चीन की चिंताएं तीन गुना हैं. पहली, चीन इस बात को लेकर रूस से निराश है कि उसने भारत को फिलीपींस और अन्य दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों को ब्रह्मोस निर्यात करने की अनुमति क्योंकि दी. चीन को लगता है कि उसकी राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं के प्रति रूस उदासीन है. दूसरा, चीन के स्कॉलर्स का मानना है कि दक्षिण-पूर्व एशिया में ब्रह्मोस मिसाइल की तैनाती दक्षिण चीन सागर की स्थिरता को संकट में डाल सकती है. इससे इस क्षेत्र में हथियारों की दौड़ शुरू हो सकती है और जो मौजूदा तनाव वाले क्षेत्र हैं, उन्हें लेकर तनाव और टकराव बढ़ सकता है. तीसरा, तटीय रक्षा और एंटी-शिप ऑपरेशन के लिए वियतनाम में ब्रह्मोस की संभावित तैनाती चीन के लिए विशेष रूप से परेशान करने वाली है. चीन को लगता है कि इससे दक्षिण चीन सागर के पश्चिमी हिस्से पर दबाव पैदा होगा.

फिलीपींस के मामले में, सिमुलेशन (नकली युद्धाभ्यास) से ये पता चला कि अगर 24 से 36 ब्रह्मोस मिसाइलें दागी जाएं तो इससे चीन के विमान वाहक युद्ध समूह को बहुत नुकसान हो सकता है. ऐसा होने पर फिलीपींस की सेना को अपने समुद्री क्षेत्रों में काफ़ी फायदा मिल सकता है. फिलीपींस ने फिलहाल ज़ांबलेस और लूज़ोन प्रांतों में ब्रह्मोस मिसाइलों की तैनाती की है. भविष्य में वो कैलायन, लुबांग या पलावन द्वीपों में इनकी तैनाती करने वाला है. इन क्षेत्रों में ब्रह्मोस की तैनाती के बाद स्कारबोरो शोल, सेकेंड थॉमस शोल और ताइवान स्ट्रेट से लेकर स्प्रैटली द्वीप तक फैले क्षेत्र इसकी मारक क्षमता के एरिया में आ जाएंगे. चीन को वियतनाम और फिलीपींस के बीच मिलीभगत की भी आशंका है.

हालांकि, चीन के विश्लेषकों का तर्क है कि फिलीपींस और वियतनाम की सेना के पास लंबी दूरी की जानकारी देने वाला रडार सिस्टम नहीं है. ब्रह्मोस मिसाइलों को उनके लक्ष्य की सटीक जानकारी देने के लिए इस तरह का रडार सिस्टम चाहिए. हालांकि स्कारबोरो शोल जैसे विवादित द्वीपों के मामले में तो टारगेट का अच्छी तरह से पता है. इसके अलावा, यमन में हूथी उग्रवादी संगठन ये दिखा चुका है कि सटीक हमके लिए एडवांस आईएसआर (इंटेलिजेंस, सर्विलांस और रिकॉन्सेंस) क्षमताओं का होना अनिवार्य नहीं है. हूथी ने इन क्षमताओं की कमी के बावजूद मध्य पूर्व में सऊदी अरब, इजरायल और अमेरिकी संपत्तियों के खिलाफ मिसाइलों से सटीक हमले किए हैं.

इसके अलावा भारत दक्षिण पूर्व एशिया में अपने समुद्री साझेदारियों को मज़बूत भी कर रहा है. ऐसा करके भारत चीन के साथ सीमा विवादों की स्थिति में समुद्री क्षेत्रों में अपनी नौसैनिक उपस्थिति का लाभ उठा सकता है.

इसके अलावा, फिलीपींस ने अपने समुद्री परिधि के चारों ओर रडार सिस्टम लगाना शुरू कर दिया है. इसके लिए उसने जापान और इज़राइल समेत कुछ अन्य देशों से रडार सिस्टम हासिल किए हैं. बड़ी बात ये है कि ब्रह्मोस मिसाइल चीन के बड़े नौसैनिक प्लेटफार्मों, जैसे कि लैंडिंग शिप और तट रक्षक जहाजों के लिए एक विशेष खतरा है. इनमें एयर डिफेंस क्षमताओं क्षमताओं की कमी है. हो सकता है इस ख़तरे से निपटने के लिए चीन समुद्र आधारित मिसाइल और हवाई शक्ति का इस्तेमाल करने पर विचार करे. इनसे वो ब्रह्मोस मिसाइलों को ज़मीन पर ही निष्क्रिय कर सकता है. लेकिन वो ऐसा करने का ज़ोखिम नहीं लेगा क्योंकि फिलीपींस और अमेरिका के बीच रक्षा संधि है. ये संधि इस तरह के हमलों के बाद अमेरिका को फिलीपींस की रक्षा करने का अधिकार देती है.. यही वजह है कि जुलाई 2024 के बाद से चीन इस क्षेत्र में ग्रे ज़ोन वॉरफेयर टेक्टिक्स लागू कर रहा है. इसका मक़सद फिलीपींस को उसके लिए एक प्रमुख रणनीतिक ख़तरा बनने से रोकना है.

चीन के नज़रिए से देखें तो उसे लगता है कि भारत अपने ब्रह्मोस मिसाइल सौदों के माध्यम से कई उद्देश्य हासिल कर रहा है. इनमें चीन-भारत संबंधों के ख़िलाफ रक्षा दीवार खड़ी करना और खुद को एक प्रमुख और विश्वसनीय हथियार निर्यातक के रूप में स्थापित करना है. इसके अलावा भारत दक्षिण पूर्व एशिया में अपने समुद्री साझेदारियों को मज़बूत भी कर रहा है. ऐसा करके भारत चीन के साथ सीमा विवादों की स्थिति में समुद्री क्षेत्रों में अपनी नौसैनिक उपस्थिति का लाभ उठा सकता है. इसके अलावा फिलीपींस और वियतनाम भारतीय नौसैनिक अभियानों के लिए रिले बेस के रूप में काम कर सकते हैं. वहीं इंडोनेशिया, मलेशिया और अन्य देशों के साथ भविष्य में होने वाले मिसाइल सौदे भारत की हथियार निर्यातक की छवि को वैश्विक स्तर पर और मज़बूत करेंगे. ब्रह्मोस सौदा इस क्षेत्र में भविष्य में भारत की हथियार बिक्री के लिए एक मॉडल के तौर पर काम कर सकता है. ये रणनीति दक्षिण एशिया में चीन और उसके हथियार आपूर्तिकर्ता व्यवहार को प्रभावी ढंग से संतुलित करने में मदद करेगी.

दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के साथ ब्रह्मोस मिसाइल के सौदों को चीन सैन्य संबंधों से भी आगे देखता है. चीन का मानना है कि इससे दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के साथ भारत के रणनीतिक संबंध भी मज़बूत हो रहे हैं. इन सौदों में प्रशिक्षण, स्पेयर पार्ट्स और रखरखाव के समझौते भी शामिल हैं. इनके माध्यम से भारत और इन देशों के बीच दीर्घकालिक सैन्य संबंधों को बढ़ावा मिल सकता है. इससे भारत के सुरक्षा हित भी मज़बूत होंगे. राजनीतिक और कूटनीतिक स्तर पर भारत ने इस क्षेत्र के लिए पहले से ही एक्ट ईस्ट नीति अपनाई है. ऐसे में दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के साथ रक्षा साझेदारियां इस क्षेत्र में भारत की प्रोफ़ाइल और प्रभाव को और बढ़ाएंगी.

(अतुल कुमार ओआरएफ में रणनीतिक अध्ययन कार्यक्रम में फेलो हैं। उनका शोध एशिया में राष्ट्रीय सुरक्षा मुद्दों, चीन की अभियान संबंधी सैन्य क्षमताओं, सैन्य कूटनीति और सुरक्षा और विदेश नीति पर केंद्रित है। अतुल सिडनी विश्वविद्यालय के चीन अध्ययन केंद्र में एसोसिएट सदस्य भी हैं। उन्होंने भारत सरकार और ग्रिफ़िथ विश्वविद्यालय में ग्रिफ़िथ एशिया संस्थान के साथ काम किया है। उन्होंने भारतीय सैन्य संस्थानों में सैन्य अधिकारियों को व्याख्यान और मार्गदर्शन दिया है और मोनाश विश्वविद्यालय और क्वींसलैंड विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर पढ़ाया है। उन्होंने मोनाश विश्वविद्यालय, मेलबर्न से चीन के सैन्य अध्ययन में पीएचडी और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एमफिल और एमए किया है।)

साभार- https://www.orfonline.org/ से

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