लही आंख कब आंधरो, बांझ पूत कब जाय
कब कोढ़ी काया लही, जग बहराइच जाय।।
(अर्थ- बहराईच में कब्र पर जाकर कब अन्धो ने आँख पाई? कब कुष्ठ रोगियों का रोग समाप्त हुआ और कब बाँझ को संतान मिली?)
मुस्लिम आक्रमणकारी सालार मसूद को बहराइच (उत्तर प्रदेश) में उसकी एक लाख बीस हजार सेना सहित जहन्नुम पहुंचाने वाले राजा सुहेलदेव का जन्म श्रावस्ती के राजा त्रिलोकचंद के वंशज मंगलध्वज (मोरध्वज) के घर में माघ कृष्ण 4, विक्रम संवत 1053 (संकट चतुर्थी) को हुआ था। अत्यन्त तेजस्वी होने के कारण इनका नाम सुहेलदेव (चमकदार सितारा) रखा गया।
विक्रम संवत 1078 में इनका विवाह हुआ तथा पिता के देहांत के बाद वसंत पंचमी विक्रम संवत 1084 को ये राजा बने। इनके राज्य में आज के बहराइच, गोंडा, बलरामपुर, बाराबंकी, फैजाबाद तथा श्रावस्ती के अधिकांश भाग आते थे। बहराइच में बालार्क (बाल+अर्क = बाल सूर्य) मंदिर था, जिस पर सूर्य की प्रातःकालीन किरणें पड़ती थीं।
यहां से पिता सेना का एक भाग लेकर काशी की ओर चला; पर हिन्दू वीरों ने उसे प्रारम्भ में ही मार गिराया। पुत्र मसूद अनेक क्षेत्रों को रौंदते हुए बहराइच पहुंचा। उसका इरादा बालार्क मंदिर को तोड़ना था; पर राजा सुहेलदेव भी पहले से तैयार थे। उन्होंने निकट के अनेक राजाओं के साथ उससे लोहा लिया।
कुटिला नदी के तट पर हुए राजा सुहेलदेव के नेतृत्व में हुए इस धर्मयुद्ध में उनका साथ देने वाले राजाओं में प्रमुख थे रायब, रायसायब, अर्जुन, भग्गन, गंग, मकरन, शंकर, वीरबल, अजयपाल, श्रीपाल, हरकरन, हरपाल, हर, नरहर, भाखमर, रजुन्धारी, नरायन, दल्ला, नरसिंह, कल्यान आदि। वि.संवत 1091 के ज्येष्ठ मास के पहले गुरुवार के बाद पड़ने वाले रविवार (10.6.1034 ई.) को राजा सुहेलदेव ने उस आततायी का सिर धड़ से अलग कर दिया। तब से ही क्षेत्रीय जनता इस दिन चित्तौरा (बहराइच) में विजयोत्सव मनाने लगी।
इस विजय के परिणामस्वरूप अगले 200 साल तक मुस्लिम हमलावरों का इस ओर आने का साहस नहीं हुआ। पिता और पुत्र के वध के लगभग 300 साल बाद दिल्ली के शासक फीरोज तुगलक ने बहराइच के बालार्क मंदिर व कुंड को नष्ट कर वहां मजार बना दी। अज्ञानवश हिन्दू लोग उसे सालार मसूद गाजी की दरगाह कहकर विजयोत्सव वाले दिन ही पूजने लगे, जबकि उसका वध स्थल चित्तौरा वहां से पांच कि.मी दूर है।