Saturday, December 21, 2024
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महिलाओं को अलग पागलखाने में रखा जाता है, पुरुषों को अलग..यह उसे पता था और वह महिला मानसिक चिकित्सालय के सामने थी। उस दिन प्रिया किसी स्टोरी के सिलसिले में वहाँ गई थी…हाँ उसके लिए तब तक वह महज़ अख़बार की दृष्टि से की जाने वाली मानवीय दृष्टिकोण की कोई अगली ख़बर या कहानी या स्टोरी ही थी। वह उसी अंदाज़ में रिकॉर्डर ऑन किए और हाथ में कलम थामे वहाँ की वार्डन से बात कर रही थी। कितनी महिलाएँ हैं, किस उम्र की हैं…उनकी देखभाल कैसे की जाती हैं…ऐसे कुछ तयशुदा प्रश्न उसके मस्तिष्क में थे ही..कुछ और आँकड़े जुटाने थे और उन्हें मानवता का जामा पहनाना था…कि हो गई एक और बाई लाइन..मतलब उसके नाम से प्रकाशित एक और ख़बर।
वार्डन ने पूछा- आप चाय लेंगी
प्रिया ने हँसकर मना किया…दिनभर में बहुत बार हो जाती है…अभी बिल्कुल इच्छा नहीं।
प्रिया के थोड़ा मुस्कुराने से वार्डन के चेहरे की सख़्त रेखा कुछ मुलायम हुई…उन्होंने भी हँसकर कहा- एक और चल जाएगी…वैसे भी ठंड का मौसम है।
प्रिया चाय पीना टाला करती थी लेकिन उसे यह भी पता था कि चाय के आने और चुस्कियों में ख़त्म होने तक कुछ और समय कहीं बैठकर मुआयना करने को मिल जाता है। कुछ खामियाँ नज़र आई तो उस नेगेटिव एंगल वाली स्टोरी फ्रंट पेज पर भी आ सकती थी। अख़बारी दुनिया में हमेशा यह मिसरा चलता ‘गुड न्यूज़ इज़ अ बेड न्यूज़ फॉर द न्यूज़ पेपर’…और उसके बाद संपादक कहते ‘लेकिन हमें पॉज़िटिव ख़बरें ही देनी है’…और सब ‘यस सर..यस सर’ कह देते थे लेकिन सब जानते थे कि अख़बार, अख़बार के मालिक और संपादक भी किस तरह की ख़बरों को तवज़्जों देते हैं और सब हर घटना में मीनमेख खोजते रहते ताकि संपादक कोई मीनमेख न निकाल पाए। प्रिया के दिमाग में ये सारी बातें घूम रही थी और वार्डन से उसने पूछना शुरू किया..किस तरह की महिलाएँ यहाँ ज़्यादा आती हैं?
वार्डन ने कहा- यहाँ आने वाली सारी महिलाएँ पागल नहीं होती, कुछ हालात की मारी भी होती है।
– अच्छा कैसे, प्रिया को लगा अब उसे वह स्टोरी मिल रही है, जिसे पकाया जा सकता है।
– हाँ..किसी का कभी-कभी मानसिक संतुलन खोता है तो उसे झाँड़-फूंक करने वाले बाबाओं के पास ले जाते हैं…लोग अभी भी कई बार बुरी आत्मा का साया मान झूठे तांत्रिक-मांत्रिकों के चक्कर में पड़ जाते हैं। जबकि यदि उसी समय उन्हें किसी मानसिक चिकित्सक या मनोवैज्ञानिक के पास ले जाया जाए और सही समय रहते उनका इलाज हो जाएँ तो पागलपन आशंका न रहे लेकिन लोगों को लगता है कि मानसिक चिकित्सक के पास पागल लोग ही जाते हैं,इसलिए पढ़े-लिखे लोग भी उनके पास जाने से कतराते हैं।
प्रिया के दिमाग में शहर के प्रमुख मानसिक चिकित्सक डॉ. ओजस आहूजा का नाम घूम गया…मतलब इस स्टोरी पर एक कोट उनका भी लिया जा सकता है…इससे स्टोरी हर एंगल से पूरी हो जाएगी…प्रिया ने सहमति जताते हुए कहा- हाँ कई बार लोग मानसिक तनाव से होने वाली आशंकाओं पर भी मनोवैज्ञानिक से राय नहीं लेते।
वार्डन बताने लगी- कई बार कुछ महिलाएँ यहाँ चिकित्सा पाकर अच्छी हो जाती है। हम उनके परिवार वालों को सूचित करते हैं, लेकिन उनके परिवार वाले उन्हें ले नहीं जाते। उन्हें गाँव छोड़कर आएँ तो वे बाकी लोग उन्हें वापस किसी न किसी बहाने यहाँ भर्ती करवा जाते हैं। एक बार कोई पागल हो गया तो उस पर हमेशा के लिए पागल का ठप्पा लग जाता है।
प्रिया सुन रही थी और उतने में चाय आ गई। वार्डन ने कहा- लीजिए, चाय लीजिए।
वार्डन आगे बताने लगी- कुछ को परिवार वाले सड़क पर छोड़ देते हैं। ऐसे समय उन्हें घर-परिवार का सबसे साथ ज़्यादा मिलना चाहिए, वहीं नहीं मिल पाता और दर-दर भटकते हुए वे और पागल हो जाते हैं। एक पागल भिखारन को यहाँ लाए थे, वो सात महीने की गर्भवती थी। जिस इलाके में वो भीख माँगती थी, वहाँ से ही किसी ने फ़ोन पर हमें ख़बर दी। उसके साथ किसने,कब, क्या किया था…पता नहीं। उसे तो सुध भी नहीं थी कि वह माँ बनने वाली है। जब वह माँ बनने वाली थी कितनी चीखीं थी…पूरे अस्पताल में उसकी चीखें गूँज रही थी…बच्चे को जन्म देने के दौरान ही मर गई..छूट गई बेचारी…बच्चे को अनाथाश्रम भेजना पड़ा…
प्रिया की हलक से अब चाय नहीं उतर रही थी…इतना मानवीय एंगल था लेकिन उसे लग रहा था इस पर दर्द में डूबकर नहीं, आक्रोश से भरकर लिखा जाना चाहिए। मानसिक संतुलन उस भिखारन का खोया था, या जिन्होंने उसे भी केवल शरीर देखा था, उन लोगों का…
तभी वार्डन ने पूछा- आप चिकित्सालय देखना चाहेंगी…चलिए एक राउंड लगा लेते हैं।
प्रिया अपना पर्स सँभालते हुए उठ खड़ी हुई और कहा- चलिए।
मानसिक चिकित्सालय का भवन पुराने ज़माने का था। छोटे-छोटे कमरे थे, सखींचे थे और सलाखों के पीछे से कुछ अजीब आवाज़ें आ रही थीं। लंबे गजों के पीछे की आकृतियों को देखना उसे ऐसा लग रहा था जैसे वह अलग तरह के चिड़ियाघर में आ गई हैं, जहाँ सलाखों के दोनों ओर के एक-दूसरे को अजीब निगाहों से देख रहे थे। जितने अजीब तरीके से उन कमरों की महिलाएँ उसे देख रही थी, प्रिया को लग रहा था वह भी किसी दूसरे ग्रह की प्राणी है, जैसे उसके लिए वे महिलाएँ। कुछ सामान्य मरीज़ों को एक साथ बड़े कक्ष में भी रखा गया था लेकिन कइयों को एक-दूसरे से अलग-अलग। वार्डन कहने लगी- इन्हें साथ छोड़ दो तो कभी-कभी एक-दूसरे के बाल तक नोंच लेती हैं। कितना गुस्सा होता होगा इनके मन में..फिर इसलिए कई बार हमें भी सख़्त होना पड़ता है। पर यह सख़्ती उनकी भलाई के लिए ही की जाती है। लोग कहते हैं वार्डन और जेलर में अंतर नहीं, पर आप ही बताइए मैडम इनसे कड़ाई से व्यवहार न करें तो ये कैसे सुनेंगी। इन्हें अपने शरीर की सुध नहीं रहती…मानसिक रूप से जैसे दो-ढाई साल की बच्ची हो और शरीर से बढ़ गई हो…आप समझ रही हैं न, मैं क्या कह रही हूँ।
प्रिया ने हामी में गर्दन हिलाते हुए जी-जी कहा।
उन कमरों से गुज़रते हुए उसने देखा कोई बेवजह हँस रहा था, कोई रो रहा था…कोई एक टक कहीं और ही देख रही थी…कोई गाए जा रही थी…एक महिला ने प्रिया से कहा- ‘आ, आ तेरे बाल बाँध दूँ’…प्रिया थोड़ी डर भी गई थी। वार्डन ने समझाया- किसी एक बात में इनका मन लग जाता है, तो वे बार-बार वहीं करती रहती हैं। इस महिला के बाल बहुत लंबे थे लेकिन हमें यहाँ काटने पड़े, कौन उसके बालों का ध्यान रखता…तब से ये हर किसी से यही कहती है कि बाल बाँध दूँ।
प्रिया मन ही मन सोचने लगी आम महिलाएँ कितना सजना-सँवरना चाहती हैं और इन महिलाओं के साथ पहली आम बात यही नहीं है कि वे सज सकें….कुरुपता की ओर बढ़ रही महिला…हो सकता है मन से बहुत सुंदर हो। प्रिया इन विचारों से सिहर गई। कुछ आगे बढ़ने पर प्रिया को एक महिला बरामदे में घूमती दिखी…प्रिया ने वार्डन की ओर प्रश्नार्थ निगाहों से देखा…वार्डन ने कहा- यह माधवी है।
2
माधवी… 30-32 साल की युवती…प्रिया जैसे ही माधवी के पास पहुँची, माधवी ने बुदबुदाते हुए कहा- मैं पागल नहीं हूँ। उसके मुँह से बहुत झाग आ रहा था…वह अपने साड़ी के पल्लू से पोंछते हुए फिर बुदबुदाई- मैं पागल नहीं हूँ और अपनी ही धुन में आगे बढ़ गई। वार्डन ने कहा- जिस दिन यहाँ आई थी तब से यही कहती है- मैं पागल नहीं हूँ। पहले बहुत चिल्ला-चिल्ला कर कहती थी…किसी के वश में नहीं आती थी। दो-तीन नर्सों को उसे पकड़ना पड़ता फिर डॉक्टर इंजेक्शन देते और वो सो जाती, लेकिन जैसे ही इंजेक्शन का असर ख़त्म होता वह फिर चिल्लाने लगती ‘मैं पागल नहीं हूँ। मुझे यहाँ से निकालो’।
-तो क्या वह पागल है?
– यहाँ आने वाला हर कोई पहले पहल यही कहता है कि वह पागल नहीं है। पागल कौन होता है मैडम, वहीं न, जो समाज में खुद को फिट न बैठा पाता हो।
प्रिया को यह बात कुछ हद तक जँची भी और नहीं भी…चिकित्सकीय पक्ष से कैसे इनकार किया जा सकता था…लेकिन वार्डन ने इस लहज़े में बात कही थी कि प्रिया बोल उठी- एकदम सही।
वार्डन कहने लगी- लेकिन इसके केस में वैसा नहीं था, यह सच में पागल नहीं थी। परिवार वालों ने इसे दवाइयाँ दे-देकर पागल घोषित कर दिया था। किसी सामान्य इंसान को भी कैसे पागल बना दिया जा सकता है, यह उस कहावत की हक़ीकत है।
प्रिया ने पूछा- आपको कैसे पता चला कि यह पागल नहीं है।
वार्डन- हमारे डॉक्टर को पहले पहल लगा कि माधवी का सब कुछ सामान्य है, उसका आईक्यू लेवल भी अच्छा है..तब डॉक्टरों ने उसके कई टेस्ट किए, जिसमें दिखा कि वह मानसिक रूप से पूरी तरह स्वस्थ है।
– फिर आप लोगों ने उसे यहाँ कैसे रखा है?
– हमारे डॉक्टर ने सर्टिफिकेट बना दिया कि यह पूरी तरह स्वस्थ है तो उसके परिवार वाले बाहर से किसी बड़े डॉक्टर का सर्टिफिकेट ले आए कि यह पागल है। पैसे के ज़ोर पर कुछ भी किया जा सकता है।
प्रिया के लिए यह बहुत शॉकिंग था…शॉक ट्रीटमेंट देकर कुछ भी कर सकते हैं…प्रिया ने मन ही मन कहा।
वह लौट चली थी।
3
शाम को असाइंटमेंट देना था। आज मानसिक चिकित्सालय में बहुत सारा समय चला गया था, उसे पहले से पता था इसलिए वो आज किसी और असाइंटमेंट पर काम नहीं करने वाली थी। आज का दिन उसके पागलखाने की स्टोरी के लिए ही रखा था। लेकिन पहले उस भिखारिन की कहानी और फिर माधवी की कहानी ने उसे हिला दिया था। अखबार में स्टोरी देकर वह उन दोनों पर हुए अन्याय को ज़ुबान दे सकती थी लेकिन क्या इससे उन्हें न्याय मिलता। भिखारिन तो चल बसी थी और माधवी…इस स्टोरी के छपने के बाद शायद रिश्तेदारों को दबाव के चलते माधवी को वापिस ले जाना पड़े लेकिन इसकी क्या गारंटी थी कि उसे स्वीकार ही लेंगे। यहाँ नहीं तो किसी और अस्पताल में भर्ती करवा देंगे…ओह…
प्रिया ने पर्सनल कंप्यूटर पर पुरानी फ़ाइलें खोलीं..जिन्हें आगे भी दिया जा सकता हो ऐसी कुछ स्टोरीज़ कई बार देना रह जाती थीं..या कुछ अधूरी होती थीं…उनमें से उसमें कुछ खंगाला और उनमें से एक-दो को पूरा कर उसका प्रिंट आउट एडिटर डेस्क पर रख आई। एडिटर ने इंटरकॉम पर पूछा मानसिक चिकित्सालय की स्टोरी का क्या हुआ…देने वाली हो तो उसके हिसाब से पेज पर जगह छोड़ते हैं…इसने कह दिया कि वहाँ कुछ हाथ न लगा…
उसके बाद के आगे के कुछ दिन ऐसे ही बीत गए…नगरीय निकाय के चुनाव, शहर में कुछ महत्वपूर्ण आयोजन, उसकी बिट की कुछ अन्य स्टोरीज़, कुछ फॉलोअप्स…उसे माधवी से फिर मिलने जाना था…लेकिन हर दिन पूरे शहर की ख़ाक छानते हुए उसके पास समय ही नहीं बच पा रहा था कि वह इस दुनिया से निकल उस दुनिया में जा पाए…प्रिया को लगने लगा था, वैसे किस दुनिया को पागलों की दुनिया कहा जाएँ? यह सवाल भी उसे सताए जा रहा था।
…और उस दिन उसने अपनी दुपहिया मानसिक चिकित्सालय की ओर घुमा ही दी। वार्डन मैडम ने स्वागत किया और इसने हँसते हुए कह दिया..आज चाय नहीं, आज खास माधवी से मिलने आई हूँ।
वार्डन ने कहा- माधवी के साथ बैठकर चाय पीजिए…देखिए वो आपको कुछ बताती है क्या…वरना तो वो अपनी वही पुरानी बात दोहराती रहती है।
4
जाड़े की उस दोपहर में माधवी धूप की ओर पीठ करके बैठी थी…एकदम किसी ख़ामोश नदी की तरह…प्रिया उसके पीछे से उसके सामने आकर खड़ी हो गई। प्रिया के साथ वार्डन ने एक महिला परिचारिका को भेज दिया था कि यदि माधवी असंयत हो गई…प्रिया पर टूट पड़ी तो…वैसे माधवी ने अब तक किसी के साथ कभी ऐसा किया नहीं था लेकिन पागलों के साथ सावधानी बरती जाती है…ऐसा मानते हुए वह परिचारिका साथ थी। माधवी ने प्रिया को देखा लेकिन ऐसा लगा वह कहीं शून्य में ही ताक रही थी…फिर बोल उठी- मैं पागल नहीं हूँ।
प्रिया ने कहा- मैं भी पागल नहीं हूँ।
प्रिया के ऐसा कहते ही माधवी की आँखों में हलकी सी चमक आ गई। वह चमक इतने पल भर के लिए थी कि शायद माधवी भी उसे पहचान न पाए..लेकिन प्रिया पहचान गई थी। उसने इशारे से परिचारिका को जाने के लिए कहा…परिचारिका तैयार न थी, लेकिन प्रिया ने आग्रह करते हुए आँखों से इशारे में परिचारिका को जाने का निवेदन किया…वह माधवी के साथ अकेले कुछ समय चाहती थी। परिचारिका चली गई क्योंकि माधवी सिरफिरी नहीं थी। उसके जाते ही प्रिया ने कहा- मैं जानती हूँ तुम पागल नहीं हो।
माधवी ने पहली बार कुछ अलग उत्तर दिया, वो बोली- शूsss किसी और से यह न कहना, वरना वे लोग तुम्हें भी यहाँ डाल देंगे।
प्रिया- वे लोग, कौन लोग?
– दुनिया वाले…इस चारदीवारी के बाहर के जो लोग हैं न वे बड़े चालाक हैं।
प्रिया को हैरानी हो रही थी कि माधवी इतना बोल रही थी। वार्डन ने तो उसे बताया था कि माधवी केवल ‘मैं पागल नहीं हूँ’ कि रट लगाती रहती है और उस दिन प्रिया ने भी उसके मुँह से केवल इतना ही सुना था। प्रिया उसे बातों के लिए प्रवृत्त करना चाहती थी…
प्रिया-  होने दो उन लोगों को चालाक…हम भी सतर्क रहेंगे।
माधवी- तुम्हारी उम्र में मुझे भी ऐसा ही लगता था…खुद पर बहुत गुमान था…अब देखो खुद को ही याद दिलाती रहती हूँ कि मैं पागल नहीं हूँ।
– अब मैं भी अपने आप को याद दिलाती रहूँगी कि मैं पागल नहीं हूँ।
– हाँ..नहीं तो पता नहीं, कब वे लोग तुम्हें भी ..
कहकर माधवी फिर चुप हो गई। प्रिया कुछ देर उसी खामोशी में खड़ी रही, फिर वह भी धूप की ओर पीठ करके माधवी के साथ बैठ गई…बड़ी देर तक माधवी चुप ही रही…प्रिया मौन टूटने की प्रतीक्षा कर रही थी। लंबा अंतराल बीत जाने पर भी जब माधवी कुछ नहीं बोली..तो प्रिया ने कहा चलो अगली बार फिर आऊँगी..तब गपशप करेंगे…अभी मैं जाती हूँ…आप भी ज्यादा देर धूप में न बैठें।
माधवी- मुझे आप न कहो…तुम कहो…अच्छा लगेगा…
प्रिया- अरे आप मुझसे उम्र में बड़ी हैं
– पर तुम सहेली की तरह मिलने आई हो
– चतुर हो, कैसे जान गई?
– कुछ लिख नहीं रही, केवल सुनना चाहती हो…मेरी मदद करना चाहती हो…
– हाँ, मैं तुम्हारी मदद करना चाहती हूँ पर कैसे, क्या, कितनी, कब कर पाऊँगी, इन सवालों के जवाब मेरे पास नहीं है।
– मेरे पास तो मेरे किन्हीं भी सवालों के कोई जवाब नहीं है…फिर आओगी तब बात करेंगे।
प्रिया ने हामी भरी और वह चलने के लिए उठ गई। प्रिया इस बीच माधवी को भी कुछ समय देना चाहती थी कि वह भी अपनी कहानी खोलने के लिए तैयार रहे..प्रिया ने वार्डन के कमरे में झाँककर उन्हें बाहर से कहा कि अगली बार फिर आएगी, घड़ी देखी और गाड़ी की चाबी घूमा दी….
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माधवी ने चुप्पी तोड़ी थी…प्रिया लंबा अंतराल नहीं रखना चाहती थी क्योंकि हो सकता था कि माधवी फिर अपने सन्नाटों में चली जाए। वह एक-दो दिन में जाने का सोच ही रही थी कि वार्डन का उसे फ़ोन आ गया। प्रिया ने फ़ोन उठाया तो वार्डन ने बताया कि माधवी रोज़ प्रिया के बारे में पूछती है कि प्रिया कब आएगी। दो दिन बाद बुधवार था। प्रिया का साप्ताहिक अवकाश…प्रिया ने कुछ तय कर उन्हें बुधवार दोपहर चार बजे का समय बता दिया कि वह आएगी। प्रिया इस बार तसल्ली से मिलने जाना चाहती थी इसलिए छुट्टी का दिन चुना ताकि माधवी के लिए उसके पास पर्याप्त समय रहे।
बुधवार की चार बजे प्रिया मानसिक चिकित्सालय के परिसर में थी। पार्किंग में गाड़ी खड़ी कर वह वार्डन के कक्ष की ओर जाने लगी तो उसने देखा माधवी वार्डन के कमरे के बाहर की बेंच पर ही बैठी थी। हाँ, वह माधवी ही थी। इस बार उसने बहुत करीने से बाल बाँधे थे…साड़ी भी अच्छे से पहनी थी… उसके जीवन में उत्साह का संचार था। प्रिया को देखते ही वह खुशी से उठकर खड़ी हो गई…उसने प्रिया की ओर हाथ बढ़ाया..प्रिया ने भी गर्मजोशी से हाथ मिलाया। वार्डन के कमरे में प्रिया ने झाँककर इशारे में ही कहा…माधवी और मैं उधर बैठेंगे थोड़ी देर..वार्डन ने हामी में सिर हिला दिया।
माधवी कुछ देर प्रिया को देखती रही…फिर प्रिया के चेहरे-बालों पर हाथ फहराने लगी…प्रिया को कुछ अजीब लगा…लेकिन प्रिया ने माधवी को वैसा करने से नहीं रोका…माधवी न जाने कितने सालों से सामान्य इंसानों में आना चाह रही थी…इंसानों के बीच रहना चाह रही थी और बाहर की दुनिया की ओर जाने का एकमात्र रास्ता उसे प्रिया दिख रही थी। प्रिया ने माधवी का हाथ अपने हाथों में लिया और पूछा- कैसी हैं
माधवी- ठीक हूँ…
– गुड
– तुम तो आने वाली थी
– आ तो गई
– मुझे लगा दूसरे दिन ही आओगी
– हाँ आ पाती, तो आ जाती…इसलिए आज आई हूँ…बताओ, क्या कहना है
– प्रिया मैं पागल नहीं हूँ
– हाँ मुझे तुम्हारे कहे पर विश्वास है, बार-बार कहने की ज़रूरत नहीं।
– उन्होंने बार-बार कहकर मुझे पागल करार दिया
– समझ सकती हूँ।
– नहीं प्रिया तुम नहीं समझ पाओगी…बहुत दुश्वार रहा है मेरा जीवन
– दुश्वार…इतनी क्लिष्ट भाषा…कैसे
– तुम भाषा की बात कर रही हो, प्रिया मैं खुद ही बहुत क्लिष्ट हूँ। मैं कठिन माटी की नहीं होती तो वे लोग मुझे मार ही देते…मार नहीं पाए तो यहाँ सड़ने के लिए छोड़ गए।
– कौन लोग…किन लोगों की बात करती हो बार-बार
– मेरे ससुराल वाले
– ओह…
– अरेंज मैरिज थी, सब कुछ तोल-मोल कर हुआ था लेकिन उन लोगों का पेट नहीं भरा…शादी के दूसरे दिन से ही मुझ पर जोर देने लगे कि मैं घर से किसी न किसी बहाने पैसे, उपहार मँगवाती रहूँ। पहले पहल मैं हँसकर टाल देती, फिर मना करने लगी और घर पर कुछ नहीं बताया तो उन्होंने मार-पीट करना शुरू कर दिया। दिन-दिनभर घर के बाहर खड़े रहने की सज़ा दे देते, आते-जाते लोग देखते लेकिन कुछ मैं शर्मा-शर्मी में नहीं कह पाती, कुछ मुझे न कहने की हिदायत दी गई होती…पर बहुत दिनों तक उन्हें ऐसा करना संभव नहीं था…उन्हें डर लगा रहता था कि मैं किसी से कोई मदद न माँग लूँ। वे लगातार दबाव बढ़ाते कि मैं घर से पैसे मँगवाऊँ…फिर नहीं सुनती तो पति बेल्ट से मारने लगा…सास-ससुर हाथ पकड़ लेते, मैं अकेली पड़ जाती…पर हार नहीं मान रही थी…भरपेट खाना न मिलने, अधिक काम करने और आए दिन मार-पीट सहते-सहते कमज़ोर होने लगी…एक दिन बेहोश होकर गिर पड़ी तो डॉक्टर को बुलाना पड़ा और…
कहकर माधवी रो पड़ी…इतनी देर तक माधवी इतनी ठंडी आवाज़ में सब बता रही थी जैसे किसी और की कहानी सुना रही हो…दर्द कितना गहरा रहा होगा कि माधवी का मन सुन्न हो चुका था लेकिन माधवी की टूटन को आखिर आँसुओं का सहारा लेना पड़ा। प्रिया उसकी पीठ सहलाने लगी। माधवी ने कहा- प्रिया उन्होंने डॉक्टर से साँठ-गाँठ कर ली और मुझे नींद के इंजेक्शन देना शुरू कर दिए…साइलेंट सुसाइड…किसी को पता भी न चले और मैं मर जाऊँ। अड़ौसी-पड़ौसी पूछने लगे तो बता देते बीमार है। मायके से फ़ोन आता तो भी बता देते सो रही हूँ। कुछ दिनों बाद भाई देखने आया तो मुझे बाहर बुलाया गया। मैं कई दिनों बाद अपने कमरे से बाहर निकली थी। दो कदम चलकर लड़खड़ाने लगी…भाई आया दौड़कर, मुझे सँभाला…मैंने भाई की ओर कातर भरी निगाहों से देखा लेकिन वो कुछ समझ पाता..उतने में मुझे फिर नींद आने लगी। भाई ने जिद की कि वो घर ले जाना चाहते हैं, लेकिन ससुराल वालों ने नहीं भेजा।
– क्यों, क्यों नहीं जाने दिया…वे तो छूटकारा ही पाना चाहते थे न
– छुटकारा पाना चाहते थे पर डर भी रहे थे कि यदि मैं घर चली गई और सब बता दिया तो
– तो…तो उन्होंने क्या किया
– इसी तरह दवाइयाँ देते रहे…पर कहा न बड़ी पक्की माटी की बनी हूँ…मर ही नहीं रही थी
– बस एक दिन उठाकर यहाँ ले आए…मैं नींद में ही थी…मुझे पता भी नहीं चला कि कहाँ ला रहे हैं, सुबह आँख खुली तो अपने को इस जगह पाया…अस्पताल जैसा कुछ लग रहा था..पर अस्पताल नहीं था। मैंने नर्स से पूछा कि मैं कहाँ हूँ। उसने बेरूखी से कहा मानसिक चिकित्सालय। मैं दंग रह गई..पूरी ताकत लगाकर चिल्ला पड़ी मैं पागल नहीं हूँ…उन्होंने फिर एक इंजेक्शन लगा दिया। शरीर इतनी सुइयों से छलनी हो गया है न कि अब दर्द भी नहीं होता…यहाँ के डॉक्टर को धीरे-धीरे समझ में आने लगा कि मैं सामान्य हूँ।
– यह तो अच्छा हुआ
– सामान्य हूँ पर यहाँ से जा नहीं सकती…बाहर सुरक्षित नहीं…वे फिर मुझे यहाँ धकेल देंगे।
– मैं कुछ मदद करूँ…मैं कुछ सोचती हूँ। तुम्हारे भाई को पता नहीं चला, वो मिलने नहीं आया?
– आया था लेकिन उसे भी लगने लगा कि मैं पागल हूँ। मैंने उसे बताया भी कि मैं पागल नहीं…वो बोला मैं विश्वास कर लूँगा पर दुनिया को क्या बताऊँगा…तुम घर पर रहोगी तो छुटकी की शादी में भी दिक्कतें आ जाएँगी…तुम्हें ससुराल भेजा तो उनकी माँगें पूरी नहीं कर पाएँगे और अब वे भी तुम्हें नहीं रखेंगे…तुम भी सबकुछ भूलाकर वहाँ नहीं रह पाओगी।
–  तो क्या और रास्ता नहीं है।
– अब कहाँ जाऊँगी…जब तक साँस है…यहीं जीते रहूँगी..मरने की प्रतीक्षा में
– नहीं, नहीं ऐसा मत बोलो…तुम खुद पर ध्यान दो…अच्छे से रहो…मैं कुछ कोशिश करती हूँ। यहाँ के डाक्टर का सर्टिफिकेट मदद करेगा। तुम्हारे लिए पहचान में से किसी के यहाँ पहले नौकरी देखती हूँ..भले ही छोटी-मोटी मिल जाए लेकिन तुम्हारे लिए कुछ शुरुआत तो होगी…किसी वर्किंग वूमन होस्टल में भी तुम्हारे लिए जगह देखती हूँ। तुम्हें न तो ससुराल जाने की जरूरत है, न मायके…अपने लिए अपनी जगह खुद बनाओ।
– प्रिया क्या सच ऐसा हो सकता है।
– हो सकता है….
प्रिया यह जवाब देकर लौट पड़ी और वह बार-बार दोहराने लगी कि यह हो सकता है, उसे माधवी के लिए यह करना ही होगा…हर असाइंटमेंट स्टोरी नहीं होता….यह असाइंटमेंट लार्जर दैन लाइफ़ होने वाला था…प्रिया अपने नए असाइंटमेंट पर लग गई।
(लेखिका दैनिक भास्कर पुणे में हैं और पत्रकारिता के सा़थ सृजनात्मक लेखन भी करती ह)

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