शृंगार आदि काल से मनुष्य को प्रिय है।मनुष्य की रागात्मक वृत्ति की सर्वोत्कृष्ट परिणति शृंगार में ही होती है। आज हमारी स्वस्थ शृंगार वृत्ति का हास हुआ है और उसके गर्हित पक्ष की ओर ही हमारा ध्यान है। स्वस्थ सात्त्विक शृंगार का भाव, जो अपने उत्कृष्ट स्वरूप में भक्ति एवं श्रद्धा में परिणत हो जाता है, आज के अति भौतिकवादी वातावरण से तिरोहित- सा हो गया है। कविता किंवा संपूर्ण साहित्य से इस रसराज की रसानुभूति तिरोहित हो गई है जिस से मनुष्य आज एक बंजरभूमि में भटकन की स्थिति में आ गया है।
वस्तुतः पारंपरिक शृंगार की जो रीतिकाल से प्राप्त सर्वमान्य संज्ञाएँ या भंगिमाएँ रही हैं और जिनकी पुनरावृत्ति छायावादोत्तर स्वच्छंद कविता में देखने को मिली, वे अधिकांशतः नारी के प्रति आकर्षण एवं उसके भोग्या स्वरूप पर ही केन्द्रित रहीं। भारत प्रारंभ से ही कला ,सौंदर्य ,अध्यात्म का देश रहा है । जहां उसके साहित्य चित्रकला ,मूर्ति कला ,शिल्प कला सभी में इस सौंदर्य को आसानी से देखा जा सकता है क्योंकि सौंदर्य का आधार है प्रेम। बिना प्रेम के जीवन हो नहीं सकता और जीवन का आधार है सौंदर्य।
इस संक्षिप्त रूप रेखा के साथ हम देखते हैं कि ऋग्वेद के नासदीय सूक्त, हिरण्य गर्भ सूक्त, और पुरुष सूक्त में यह वर्णन आता है कि जब परमपिता परमात्मा को यह इच्छा हुई कि मैं अकेला ही बहुत हो जाऊं, तो उसने इस संसार का सृजन किया। “एकोहम बहुष्याम:”
भगवान कृष्ण गीता के दसवें अध्याय के 10/ 28 में कहते हैं देवों में मैं कामदेव हूं। इसका तात्पर्य है। संसार के संचालन में प्रेम का बहुत बड़ा योगदान है। यदि इस विश्व में प्रेम ना होता तो निश्चय ही विश्व का संचालन संभव नहीं होता ।प्रेम का आधार है, आत्मीयता , उस आत्मीयता को रस रूप में परिणित करता है श्रृंगार। इसलिए नव विवाहिता जब पति के समीप जाती है, तब सोलह श्रृंगार करके जाती है। अभिसारिका नायिका भी प्रिय मिलन के लिये जाते समय आभूषणों से या पुष्पों से अलंकृत हो कर जाती है। ऐसा उल्लेख हमें कई प्राचीन ग्रंथों में देखने को मिलता है। संसार की प्रत्येक सुंदर वस्तु हर प्राणी को अपनी ओर आकर्षित करती है। संस्कृत साहित्य और हिंदी साहित्य में विस्तार से शृंगार प्रधान वर्णन पढ़ने की मिलता है।
समाज का मार्ग दर्शन :
साहित्य का कार्य जहां समाज का मार्गदर्शन करना है वहीं मनोरंजन करना भी है ।इसीलिए आनन्द वर्धन, और विश्वनाथ , मम्मट जैसे संस्कृत के आचार्यों ने काव्य के विषय में अपने अलग – अलग विचार प्रस्तुत किए हैं। साहित्य की परिभाषा देते हुए आचार्य विश्वनाथ ने कहा है –
” रसात्मकम वाक्यम काव्यां” । कहकर काव्य की परिभाषा दी है, वहीं आचार्य आनंदवर्धन ने
“शब्दार्थों साहित्य काव्यंम” ।
वस्तुत: प्रेम मनुष्य के हृदय का ऐसा भाव है , जिसमें संपूर्ण सृष्टि समाहित हो जाती हैं। इसके अनेक रूप हमारे सामने प्रकट होते हैं बड़ों के प्रति प्रेम श्रद्धा के रूप में, छोटों के प्रति प्रेम वात्सल्य के रूप में परन्तु नायक और नायिका का प्रेम ही साहित्य में विशेष रूप से कवियों की लेखनी का विषय रहा है।
जीवन की यथार्थ अभिव्यक्ति :समाज का यथार्थ चित्रण, उसके आचार- विचार , संकल्प विकल्प, रीति रिवाज़ो,परंपराओं , घटनाओं, आदर्शों, नीतिपरक उपदेशों और मानवीय क्षमताओं तथा मानव मन के विविध रूपों से परिचित कराना भी साहित्य का ही कार्य है। प्रत्येक काल का साहित्य अपनी समकालीन परिस्थितियों ,जीवन आदर्शों से प्रभावित होता है । इस आधार पर हिंदी के विद्वानों तत्कालीन परिस्थितियों के आधार पर उनका काल विभाजन आदिकाल ,भक्तिकाल , रीतिकाल और आधुनिक काल में किया है।
साहित्य में प्रयुक्त नौ रस:साहित्य में प्रयुक्त नौ रसों में श्रृंगार को कवियों ने सर्वाधिक प्राथमिकता दी है। इसे “रसराज” कहा गया है । इन विविध कालों में श्रृंगार का प्रयोग कवियों ने संयोग और वियोग दोनों ही रूपों में किया है ।
आदिकाल :
आदिकाल में चंदबरदाई कृत “पृथ्वीराज रासो” में सिंहल द्वीप की राजकुमारी पद्मावती का सौंदर्य वर्णन, जायसी कृत “पद्मावत”में बारहमासा नागमती वियोग वर्णन, भक्ति काल में तुलसीदास के “रामचरित मानस” में सीता के सौंदर्य का अद्भुत वर्णन देखते ही बनता है।
रीतिकाल:
रीतिकाल को हिंदी साहित्य का सर्वाधिक श्रृंगारिक काल कहते हैं। इसका दूसरा नाम “श्रृंगार काल” या “कलाकाल” भी है क्योंकि रीति काल के अधिकांश साहित्यकार दरबारी कवि थे ।केशव ,बिहारी ,देव ,घनानंद, आलम , बोधा, ठाकुर आदि का नाम प्रमुख श्रृंगारिक कवियों में आता है । जिन्होंने नायिका सौंदर्य का घोर श्रृंगारिक वर्णन किया है।
संस्कृत में श्रृंगार साहित्य :
राजा अमरुक द्वारा लिखित “अमरुक शतकं” में श्रृंगार वर्णन, भर्तृहरि का श्रृंगार शतकं, स्वप्नवासवदत्तम में वासवादत्ता का सौंदर्य वर्णन,नलोपाख्यान में “नल और दमयंती” का वर्णन, पुरुरवा- उर्वशी का सौंदर्य वर्णन, मेघदूतम में यक्षिणी का सौंदर्य वर्णन, अभिज्ञान शाकुन्तलम में शकुंतला का ऋषि कन्या के रुप मे अलौकिक सौंदर्य वर्णन, रघुवंशम में इंदुमति का सौंदर्य वर्णन,मृच्छकटिकम में गणिका वसंतसेना के श्रृंगार और सौंदर्य का वर्णन विस्तार से प्राप्त होता है।
हिंदी में जायसी का” नागमती वियोग वर्णन”, तुलसीकृत” रामचरित मानस “में सीता का अलौकिक सौंदर्य देखकर भगवान राम का हतप्रभ रह जाना , सूरदास द्वारा “गोपियों का वियोग वर्णन “, रीतिकाल में बिहारी ,केशव, घनानंद, आदि द्वारा नायिका नख़-शिख वर्णन जिस प्रकार किया गया है, अदभुत है। हालांकि रीतिकालीन कवियों द्वारा किया जाने वाला नायिकाओं का नख – शिख वर्णन कहीं – कहीं अश्लीलता की पराकाष्ठा पर पहुंच गया है, परंतु परवर्ती कवियों ने उनका आश्रय लेकर अनेक ग्रन्थ लिखे।
सूरदास का “सूर सागर” ,बिहारी का “बिहारी सतसई”, मतिराम का “रस राज”, “ललित ललाम”, देव का “शब्द रसायन” घनानंद,पद्माकर “हिम्मत बहादुर विरुदावली,” “प्रबोध पचासा”, जगन्नाथ दास रत्नाकर कृत”श्रृंगार लहरी “, रामधारी सिंह दिनकर कृत “उर्वशी “महाकाव्य आदि ।
संयोग श्रृंगार :
कहत, नटत, रीझत, खिझत, खिलत मिलत, लजियात।
भरे भौन में करत हैं नैननू, हीं सो बात।। (बिहारी सतसई)
कवि बिहारी इस दोहे के माध्यम से संयोग शृंगार का कितना सुंदर उद्धरण प्रस्तुत करते हैं – “नायक और नायिका परिजनों से भरे हुए भवन में इशारों – इशारों में ही बात कर लेते हैं । नायक आंखों से मिलने के लिए कहता है, नायिका (नटत) मना कर देती है। उसकी इस अदा पर नायक रीझ जाता है। नायिका इस बात पर (खिझत)चिढ़ जाती है, फ़िर दोनों के नेत्र मिलते हैं, दोनों रोमांचित(खिल)हो जाते हैं, नायिका लजा जाती है। यह बिहारी के सृजन का ही कमाल है कि वे दोहे जैसे छोटे से छंद में नायक- नायिका के हाव – भाव व्यक्त कर देते है। इसीलिए उन्हें रीतिकाल का रससिद्ध कवि कहा जाता है।
वियोग रस :
निसिदिन बरसत नयन हमारे ।
सदा रहति बरसा रितु हम पर ,जब तें स्याम सिधारे।। (भ्रमर गीत)
भक्तिकाल के अष्टछाप कवियों में अग्रगण्य सूरदास जी के भ्रमर गीत का यह पद अद्भुत है। भगवान कृष्ण के मथुरा चले जाने पर गोपियां उनके विरह में अत्यधिक बेचैन हैं और कहती हैं , कि जब से कृष्ण मथुरा गए हैं, तब से हमारे नेत्र रात – दिन आंसू बहाते रहते है। बर्षा ऋतु तो फ़िर भी चार महीने के लिए आती है , पर कृष्ण से बिछुड़ कर हम सदैव विरह में जलती रहती हैं।
सौंदर्य प्रसाधनों का उपयोग :
सौंदर्य प्रसाधनों का प्रयोग कर स्वयं का रूप निखारना हर स्त्री का शौक रहा है। दीपावली से पूर्व हमारे यहां रूप चौदस आती है , जिस में स्त्रियां उबटन आदि लगाकर स्वयं का रूप निखारती हैं। वर्तमान समय में ब्यूटीपार्लरों में जाकर अपना रूप निखारती हैं।विभिन्न अवसरों पर जब वह सुंदर वस्त्राभूषण धारण करती है तब उसका सौंदर्य अप्रतिम होता हैं। हमारे अनेक प्राचीन ग्रंथो में श्रृंगार प्रसाधनों और प्रसाधिकाओं का उल्लेख बड़े विस्तार से किया गया है। महारानी द्रौपदी ने अज्ञातवास में सैरंध्री बनकर महाराज विराट की पत्नी सुदेशना का शृंगार किया था ।
आज भी विवाह आदि मांगलिक अवसरों पर स्त्रियां श्रृंगार कर सजती संवरती है और कार्यक्रम को चार चाँद लगा देती हैं
सोलह शृंगार :
विभिन्न ग्रंथों में उल्लिखित स्त्रियों के सोलह श्रृंगार का वर्णन देखने को मिलता है। संस्कृत के अनेक प्राचीन ग्रंथों में स्त्रियों के सोलह श्रृंगारों का वर्णन विस्तार से मिलता है । बल्लभ देव ने अपनी पुस्तक “सुभाषित बाली” में जो 15वीं शताब्दी या 12वीं शताब्दी में लिखा गया है वर्णन इस प्रकार किया है – (1)मजजन (2) चीर (,3) हार (4)तिलक (5) अंजन (6 )कुंडल (7) नासामुक्ता (8) केश विन्यास (9 )चोली (10) नूपुर (11) अंगराग (12) कंकण (13) चरणराग( 14 )करधनी (15) तांबूल और (16) कर दर्पण =आरसी ।
रूप गोस्वामी के ग्रंथ “उज्जवल नीलमणि” में भी श्रृंगार को इस प्रकार उल्लेखित किया है (1) स्नान (2) नासामुकता ( 3) असित पट (4) कटि सूत्र या करधनी (5) वेणी विन्यास (6 )कर्णावतंस(7)अंगों को चर्चित करना अगरू धूम आदि से (“8)पुष्प माल (9 )हाथ में कमल (10) केश में फूल खोंसना (11 )तांबूल (12) चिबुक पर कस्तूरी से चित्रण करना या तिल बनाना (13 ) आलक्तक पैर में आलता लगाना (14 )काजल (15) शरीर पर पत्रावली चित्रण करना (16 )तिलक।
हिंदी के कवियों में मलिक मोहम्मद जायसी आदि ने भी सोलह श्रृंगारों का वर्णन किया है ।
आभूषणों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से
जीवनचर्या का अंग बनाना:
भारतीय संस्कृति में आचार- विचार, खान- पान, बनाव- श्रृंगार भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर दैनिक दिनचर्या में समाहित किए गए। जैसे आज्ञा चक्र या भाल के बीच में कुमकुम से तिलक लगाना आज्ञा चक्र को सक्रिय करता है। विचारों को एकाग्र रखता हैं और आज्ञा चक्र को सक्रिय करता है। कुमकुम में पारा होता है,जो तनाव को दूर करता है। शरीर में ऊर्जा का संचार करता है। ओज और तेज बढ़ाता है। सेराटोनिन, एंडोरफ़िन हार्मोन का स्राव तनाव कम करना, खुशी प्रदान करना,काम भाव की वृद्धि में सहायक हैं ।
ऐसे ही सधवा स्त्री द्वारा कलाई में चूड़ियां पहनना सौभाग्य के साथ साथ ऊर्जा संचरण और रक्त संचरण में वृद्धि करता है ।
सांस और दिल से जुड़ी बीमारियों का खतरा कम रहता है ।
स्वर्णाभूषण गर्मी और चांदी के आभूषण ठंडक प्रदान करते है। इसलिए सोने के आभूषण शरीर के ऊपर के अंगों में और चांदी के आभूषण नीचे के अंगों में धारण किए जाते हैं। दोनों पैरों में बिछिया पहनने से एक्यूप्रेरेशर पॉइंट के दबने से महिलाएं अनेक प्रकार की बीमारी से बच जाती है।
सारांश :
सार रूप में कहा जाए, तो श्रृंगार करना मनुष्य की स्वाभाविक सौंदर्योपासक अभिरुचि को ही प्रकट करता है। और इसीलिए हमारे यहां लेखन कला,चित्र कला, मूर्तिकला में बड़े सुंदर ढंग से इसे उकेरा गया है। परंतु यह मेरा व्यक्तिगत मानना है कि बाह्य आभूषणों की अपेक्षा आंतरिक सौंदर्य अधिक मायने रखता है। प्रेम , दया, करुणा ,उदारता , लज्जा, शालीनता ये स्त्री के स्वाभाविक गुण हैं। यदि स्त्री सहज, सरल, उदार , सेवा भावी, बड़ों बुजुर्गों का ध्यान रखने वाली है, अपने कर्तव्य का निर्वहन पूरी जिम्मेदारी से करने वाली है, तब बाह्य शृंगार उसके गुणों में सुंदरता में और चार चांद लगा देंगे।