Friday, April 18, 2025
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भाई चारा वालों ने ईरान से पारसियों को कैसे भगाया ?

पारसियों का इतिहास प्राचीन फारस (आधुनिक ईरान) से शुरू होता है, जहाँ वे जोरोस्ट्रियन धर्म के अनुयायी थे। यह धर्म, जिसकी स्थापना पैगंबर जरथुस्त्र (ज़ोरोस्टर) ने लगभग 1500-1200 ईसा पूर्व की थी, एक समय फारस का प्रमुख धर्म था, खासकर अकेमेनिद और सासानी साम्राज्यों के दौरान। जोरोस्ट्रियन धर्म एकेश्वरवाद पर आधारित था, जिसमें अहुरा मज़्दा को सर्वोच्च ईश्वर माना जाता था और अग्नि पूजा इसका महत्वपूर्ण हिस्सा थी।

7वीं शताब्दी में अरबों के इस्लामी आक्रमण ने फारस के इतिहास को बदल दिया। 636 ईस्वी में कादिसिया के युद्ध और 642 ईस्वी में नहावंद के युद्ध में सासानी साम्राज्य की हार के बाद, इस्लाम ने फारस पर अपना प्रभुत्व जमा लिया। नए मुस्लिम शासकों ने जोरोस्ट्रियनों पर कठोर नीतियाँ लागू कीं। इनमें शामिल था:
जजिया कर: गैर-मुस्लिमों पर लगाया जाने वाला विशेष कर, जो उनकी आर्थिक स्थिति को कमजोर करता था।
धर्मांतरण का दबाव: जोरोस्ट्रियनों को इस्लाम अपनाने के लिए मजबूर किया गया। मना करने वालों को उत्पीड़न, संपत्ति जब्ती, या मृत्युदंड का सामना करना पड़ा।
सांस्कृतिक दमन: जोरोस्ट्रियन मंदिरों और अग्नि स्थलों को नष्ट किया गया, और उनकी धार्मिक प्रथाओं पर प्रतिबंध लगाया गया।

इस उत्पीड़न के कारण कई जोरोस्ट्रियन अपने धर्म और जान बचाने के लिए फारस छोड़कर भाग गए। “किस्सा-ए-संजान” नामक पारसी ग्रंथ में वर्णित है कि कैसे एक समूह ने अपनी मातृभूमि छोड़ी। यह ग्रंथ, जो 16वीं शताब्दी में पारसी पुजारी बहमन के कोबाद संजाना द्वारा लिखा गया, इस ऐतिहासिक पलायन का प्राथमिक स्रोत है। इसमें बताया गया है कि इस्लामी शासन के तहत पारसियों को अपनी पहचान और आस्था को बनाए रखना असंभव हो गया था।

पारसियों का इतिहास क्या है?
पारसी समुदाय जोरोस्ट्रियन धर्म से जुड़ा है, जिसे विश्व के सबसे पुराने एकेश्वरवादी धर्मों में से एक माना जाता है। इसकी उत्पत्ति प्राचीन आर्य (ईरानी) संस्कृति से हुई, जो वैदिक धर्म से भी कुछ समानताएँ रखती है। जोरोस्ट्रियन धर्म में अच्छाई (अहुरा मज़्दा) और बुराई (अंग्रा मैन्यू) के बीच संघर्ष पर जोर दिया जाता है। यह धर्म सासानी काल (224-651 ईस्वी) तक फारस में फला-फूला, लेकिन इस्लामी विजय के बाद इसका पतन शुरू हुआ।

फारस में इस्लामी शासन के बाद, जोरोस्ट्रियनों की संख्या तेजी से घटी। जो इस्लाम में परिवर्तित नहीं हुए, वे या तो मारे गए या देश छोड़कर भाग गए। आज ईरान में उनकी आबादी बेहद कम (लगभग 25,000) रह गई है, जबकि एक समय यह वहाँ का राज्य धर्म था। भागने वालों में से एक समूह भारत की ओर बढ़ा, जो आगे के इतिहास का महत्वपूर्ण हिस्सा है।

पारसी भारत कैसे आए?
पारसियों का भारत आगमन 8वीं से 10वीं शताब्दी के बीच माना जाता है, हालाँकि सटीक तारीख पर विद्वानों में मतभेद है। “किस्सा-ए-संजान” के अनुसार, इस्लामी आक्रमण के बाद एक छोटा समूह जहाजों में सवार होकर फारस से भागा। लगभग 19 वर्षों तक समुद्र में भटकने के बाद, वे भारत के पश्चिमी तट पर गुजरात के संजन (संजान) नामक स्थान पर पहुँचे। यह घटना संभवतः 716 ईस्वी या उसके आसपास की है।

हिंदू राजा द्वारा शरण: संजन पहुँचने पर, स्थानीय हिंदू राजा जादी राणा ने उन्हें शरण देने का फैसला किया। एक प्रसिद्ध कथा के अनुसार, पारसी नेताओं ने राजा को दूध से भरा गिलास दिखाकर समझाया कि वे “दूध में शक्कर” की तरह घुल जाएँगे—अर्थात् वे स्थानीय संस्कृति में समाहित हो जाएँगे, बिना बोझ बने। राजा ने उन्हें पाँच शर्तों (जैसे स्थानीय भाषा सीखना, हथियार न रखना) के साथ रहने की अनुमति दी।

संजन में बसने के बाद, पारसियों ने अपनी अग्नि मंदिर (आतश बहराम) स्थापित की, जिसे बाद में ईरानशाह के नाम से जाना गया। यह अग्नि आज भी उदवाड़ा (गुजरात) में जल रही है। धीरे-धीरे वे गुजरात के अन्य हिस्सों जैसे सूरत, नवसारी और दीव में फैले।
16वीं शताब्दी में जब अंग्रेजों ने सूरत में व्यापार शुरू किया, पारसियों ने कारीगरों और व्यापारियों के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बाद में, वे बॉम्बे (मुंबई) में बस गए और वहाँ उद्योग, शिक्षा और व्यापार में योगदान दिया। टाटा, गोदरेज और वाडिया जैसे परिवार इसका उदाहरण हैं।

ईरान से पारसियों को इस्लामी आक्रमण और उत्पीड़न ने भगाया। उनका इतिहास जोरोस्ट्रियन धर्म के गौरव और पतन की कहानी है। भारत में, हिंदू शासकों की उदारता और बाद में ब्रिटिश अवसरों ने उन्हें नया जीवन दिया। आज भारत में उनकी आबादी लगभग 60,000 है, जिनमें से अधिकांश मुंबई में रहते हैं, और वे अपनी सांस्कृतिक पहचान को संजोए हुए हैं।

9चित्र  गुजरात में संजान के पास नारगोल में समुद्र तट पर स्थापित स्तंभ जो पारसियों ने भारत में शरण मिलने की स्मृति में स्थापित किया था 0

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