Friday, January 10, 2025
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मास्टर मदन: सुरों की दुनिया का सम्राट जो बचपन में ही चल बसा

मास्टर मदन- जिनकी ज़िन्दगी ही मात्र साढ़े चौदह साल थीं और मौसिकी में अमर 1942 से आज भी एक ऐसी आवाज़ है कि जिनको एक बार सुन लिया जाए तो फिर बार-बार सुनाने को जी करे है! अपनी छोटी-सी आयु में उन्होनें संगीत सुननेवालों पर अमिट छाप छोड़ी है!
मास्टर मदन का जन्म 28 दिसम्बर, 1927 को पंजाब के जालंधर ज़िले के खानखाना गाँव में हुआ था, उनके जीवन में केवल 8 गाने ही रिकॉर्ड हो पाये जो आज उपलब्ध है। जिनमें से सार्वजनिक रूप से केवल दो ही गानों की रिकॉर्डिंग सब जगह मिल पाती है, तीन साल की उम्र में जब बोलियों की कोपलें फूटती हैं तब उनकी तान फूट गई थी. बच्चा बस दिखने में बच्चा था, उनकी आवाज अपनी प्रकृति में कच्ची थी लेकिन प्रस्तुति में प्रौढ़, नैसर्गिक प्रभा से प्रदीप्त. पांच साल की उम्र में एक बार उन्होंने गुरु तेग बहादुर का शबद गाया था, चेतना है तो चेत ले, विडंबना देखिए कि सुनने वाले अपनी सुध-बुध खो बैठे. तब उनकी दीदी ने कहा था कि मास्टर गुरु नानक की छवि सदैव अपने साथ लिए चलते थे.
1 यूँ न रह-रह कर हमें तरसाइये
2 हैरत से तक रहा है
अन्य छ: गाने बहुत ही कम मिल पाते है, जब वह एक युवा लड़का था तब मास्टर मदन ने राजाओं के दरबार में गायन शुरू कर दिया था, आठ साल की उम्र में उन्हें संगीत सम्राट कहा जाता था,
आज़ादी से पहले के एक प्रतिभाशाली ग़ज़ल और गीत गायक थे, मास्टर मदन के बारे में बहुत कम लोग जानते है, मास्टर मदन एक ऐसे कलाकार थे जो 1930 के दशक में एक किशोर के रूप में ख्याति प्राप्त करके मात्र 15 वर्ष की उम्र में 1940 के दशक में ही स्वर्गवासी हो गए, ऐसा माना जाता है कि मास्टर मदन को आकाशवाणी और अनेक रियासतों के दरबार में गाने के लिए बहुत ऊँची रकम दी जाती थी, मास्टर मदन उस समय के प्रसिद्ध गायक कुंदन लाल सहगल के बहुत क़रीब थे जिसका कारण दोनों का ही जालंधर का निवासी होना था।
सिर्फ साढ़े चौदह साल जीने वाले उस कलाकार की तान, टीस की एक टेर है, एक कोमल, बाल्यसुलभ स्वर जिसमें हर पहर की पीड़ा है, उफ! कैसा आलाप! कैसे सुर! कैसा अदभुत नियंत्रण!’ मास्टर मदन की ख्याति और लोकप्रियता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि 1940 में जब एक बार गांधीजी शिमला गए थे तो उनकी सभा में बहुत कम लोग उपस्थित हुए, बाद में पता चला कि ज्यादातर लोग मास्टर मदन की संगीत-सभा में गाना सुनने चले गए थे, ऐसी प्रसिद्धि थी मास्टर मदन की, तेरह-चौदह वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते मास्टर मदन का नाम और उनकी ख्याति भारत के कोने-कोने तक पहुँच चुकी थी, उनके जीवन का आखिरी संगीत-कार्यक्रम कोलकता में हुआ था।
उन्होंने राग बागेश्वरी में “विनती सुनो मोरी अवधपुर के बसैया” को भावविभोर और पूर्ण तन्मयता के साथ गाया, श्रोता मंत्र-मुग्ध हुए, उन्हें नकद पुरस्कार के अलावा शुद्ध सोने के नौ पदकों से सम्मानित किया गया। दिल्ली लौटने पर अगले तीन महीनों तक आकाशवाणी के लिए गाना जारी रखा, इस बीच उनकी तबीयत खराब रहने लगी, ज्वर टूट नहीं रहा था, 1942 की गर्मियों में वे शिमला लौटे और 5 जून को उनकी मृत्यु हो गई, कहते हैं कि उस दिन शिमला बंद रहा और श्मशान घाट तक की उनकी अंतिम-यात्रा में हजारों की संख्या में उनके प्रशंसक शामिल हुए, तेरह साल की उम्र तक आते-आते वे मशहूर हो चुके थे और इस प्रसिद्धि में चुपके से उन्हें एक बीमारी घेर रही थी. समृद्ध होते सुरों को सन्नाटे में संभालने वाला शरीर खाली हो रहा था. किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि उन्हें थकान रहने लगी थी और हल्का बुखार घेरे रहता था. बाद में नीम-हकीम और वैद्य अस्पताल कुछ काम नहीं आया, उनकी असमय मौत शक के घेरे में है.
लोगों का कहना है कि मास्टर को ईर्ष्या में ज़हर दिया गया> कहते हैं, कलकत्ता में एक मंत्रमुग्ध कर देने वाली ठुमरी, बिनती सुनो मेरी, सुनने के बाद उऩ्हें किसी ने धीमा जहर दे दिया. ऑल इंडिया रेडियो की कैंटीन से लेकर मास्टर मदन दूध पिया करते थे. सुगबुगाहटें रहीं कि एक दूसरे गायक ने उन्हें दूध में मर्करी मिलाकर दे दिया, इस बात का सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है कि अगर मास्टर मदन जवानी की उम्र तक भी जिंदा रहते, तो जाने उनकी गायिकी किस मुकाम तक उनको पहुंचा देती! अपनी अद्भुत और हृदयग्राही गायिकी की वजह से बालक मदन ‘मास्टर’ कहलाने लगा था।
मास्टर मदन के गाए दुर्लभ गाने
 
साभार https://www.facebook.com/sunilgajani के फेसबुक पेज से

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