मैं किस्म किस्म के गीत बेचता हूं, बोलो जी कौन सा खरीदोगे, गीत की यह पंक्तियां जब पढ़ते थे तो हंसा करते थे। तब मालूम ना था कि यह गीत की यह दो पंक्तियां भविष्य की मीडिया की कहानी का सच बन कर सामने खड़ा कर दिया जाएगा। आज यही सच है कि मीडिया का कारोबार बढ़ रहा है और सरोकार की पत्रकारिता हाशिए पर है। या यूं कहें कि अब साम्राज्य मीडिया का ही रहेगा तो कुछ गलत नहीं है। नई पीढ़ी संभावनाओं से लबरेज़ है, वह जानना और समझना चाहती है। वह पत्रकारिता करना चाहती है लेकिन हम ही उन्हें मीडिया का हिस्सा बना देते हैं। एक जवान को जिंदगी में हम जैसी तंगहाली थोड़े चाहिए। उसे थोड़े समय में आसमां छू लेना है। एयरकंडीशन केबिन, बड़ी गाड़ी और ज्ञान के नाम पर कान में फूंके गए मंत्र के बूते रातों रात स्टार बन जाते हैं। आज की पत्रकारिता का सच यही है।
अब जब इस राह से गुजरना हो तो कुछ अपने अनुभव पुराने और नए साथियों के अनुभव को साझा करना ज़रूरी हो जाता है। उम्र के 6 दशक में इतना तो पा लिया कि सम्मान के साथ अपनी बात कह सकने का साहस रखूं। हां, एक बात से हमेशा भी खाता हूं कि कोई नया साथी मुझे गुरु संबोधित करे। मैं इस शब्द से बेजार ही रहना चाहता हूं और अब तक यक़ीन है। खैर, मुद्दा यह है कि मीडिया का नए वर्ष में क्या स्वरूप होगा? यक़ीन के साथ कह सकता हूं कि मीडिया का स्वरूप पहले से बेहतर होगा और होना भी चाहिए। आज का नौजवान लाखों खर्च कर जब पढ़ाई पूरी करता है तो उसे इसका भी हकदार मानने में कोई हर्ज नहीं। खर्च किया है तो वापस लेगा भी। मीडिया की यही खासियत उसे दिनों दिन आगे बढ़ा रही है। इसलिए मुझे निजी तौर पर लगता है कि सब ठीक है। व्यापार की समझ ना पहले थी और अब क्या होगी। हां लिखने का जो सुख मिलता है, वह मेरी अपनी पूंजी है।
मीडिया शब्द ही आरम्भ से मेरे लिए एक पहेली बना रहा। संभव है कि जानकार इसके व्यापक प्रकार से परिचित हों और मैं ग़ाफ़िल। यह शब्द भारतीय हिंदी पत्रकारिता का तो ना है और ना होगा। हम गांधी बाबा की पत्रकारिता से जुड़े हैं। हमारे पुरुखों में शान से पराड़कर, विद्यार्थी और अनेक नाम हैं, जिन्हें पढ़ कर हमने दो शब्द लिखना सीखा है। इस थाती को मीडिया के नाम करने का कोई इरादा नहीं। हां, इक इल्तज़ा नए साथियों से ज़रूर रहती है कि मीडिया में भविष्य ज़रूर बनाएं लेकिन आत्मा में हमारे पुरुखों को भी सहेज कर रख लें। जब आप बीमार होते हैं तब रसोगुल्ला ठीक नहीं करता, वैसे ही मीडिया की चकाचौंध से ऊब जाने पर पुरखा पत्रकार आपको स्ट्रेस से बचा सकते हैं।
मीडिया और पत्रकारिता के बीच एक महीन सी दरार है और यह सहमति है कि दोनों के रास्ते जुदा जुदा हैं। मीडिया कहता है कि राजा ने कहा रात है, मंत्री ने कहा रात है, सबने कहा रात है, यह सुबह सुबह की बात है। पत्रकारिता की रीत इससे उलटी है। वह हां में हां करने और लिखने से अलग रखता है। मेहनत कम, मॉल में दम मीडिया के लिए कारगर संबोधन है। अब फ्यूचर मीडिया का ही होगा, कोई शक नहीं। अब हम बाज़ार हैं, उपभोक्ता हैं और हमारा मूल्य मीडिया चुकाता है।
बरबस मुझे अपने बचपन के उन दिनों की याद आ जाती है जब पूरे अख़बार को धूप में फ़ैला कर हिज्जा कर अपनी हिंदी ठीक करते थे। पांच पैसों का उस दौर में क्या मोल था, मेरे अपने दौर के दोस्त जानते हैं। अब जरूरत हिंदी की नहीं, हिंदी को हाशिए पर रख देने की है और वह बाज़ार के इशारे पर हो रहा है। आपके मेरे बच्चे अंग्रेजी स्कूलों से शिक्षित हैं और अपना भविष्य अंग्रेज़ी में तलाशते हैं तो इसमें उनकी नहीं, हमारी गलती है। इन सब के बीच हमने क्या खोया, इसकी मीमांसा करने बैठ गए तो लज्जा से ख़ुद का चेहरा भी आईना में देख नहीं पाएंगे। एक दूसरे की पीड़ा, रिश्तों की गर्माहट अब सिक्कों की खनक में दबा दिया गया। मीडिया सुविधा देता है और पत्रकारिता सुकून। तय नौजवान पीढ़ी को करना है कि उसे क्या चुनना है। मेरी समझ में सुकून के ऊपर सुविधा बैठेगी।
अब अख़बारों को भी ताज़ा चेहरा चाहिए। अगर ठीक हूं तो 35 पार के लिए कपाट बंद है। यह भी बाजार की रणनीति है। लेकिन ठीक उलट टेलीविजन की दुनियां है जहां उम्रदराज लोगों की बड़ी टीम का जमावड़ा है। इस विरोधाभास को भी समझने की कोशिश कर रहा हूं। यकीनन यह भी बाजार की ही रणनीति होगी लेकिन समझना होगा कि इसके बाद भी कारगर कौन है?
आख़िर जिस दौर में हम यह तय कर रहे हैं कि कौन सा अखबार किस वर्ग का होगा, उस दौर में यह सब बेमानी है। मुद्दा यह है कि वक्त अभी बीता नहीं कि हम लालटेन बन कर रास्ता ना दिखा सकें। पत्रकारिता के बाद एक शिक्षक के नाते पूरा भरोसा है कि एक लालटेन की रोशनी पूरा खेल बदल देगी। आपको उनकी भाषा, बोली में बात करना सीखना होगा। कितने को याद है कि शशिकपूर अभिनीत न्यू डेल्ही टाइम्स नाम की कोई फिल्म आई थी। ऐसे अनेक उदाहरण है जिसे लालटेन की महीन रोशनी से उन भावनाओं को ज़िंदा रखा जा सकता है, जिसकी हमारे पास शिकायतों का अंबार है। हां, ध्यान रखिए किसी को सिखाने के पहले ख़ुद को शिक्षित करना होगा।
(एम सी यू में एकजंट प्रोफेसर रहे वरिष्ठ पत्रकार कम्युनिटी रेडियो के जानकार हैं। मध्य प्रदेश शासन में 8 कम्युनिटी एवं रेडियो कर्मवीर की स्थापना के पहले रेडियो सलाहकार भी रहे। दस अन्य किताबों के साथ हिंदी में कम्युनिटी रेडियो पर किताब भी है। 25 वर्ष से नियमित प्रकाशित रिसर्च जर्नल “समागम” के संपादक हैं)