कवि अज्ञेय ने पाँच दशक पहले ही आगाह किया था: रोमन लिपि में हिन्दी लिखना इस के खात्मे की दिशा में पहला कदम है। वह कदम उठाया जा चुका है। पूरे देश में रोमन लिपि का प्रयोग तेजी से बढ़ रहा है।… हिन्दी को दिखावटी राजभाषा पद से मुक्त कर देने में सब का हित है। हमारे नेता और नीति-नियंता इस बात को जितना जल्द समझ लें, उतना ही हिन्दी का सम्मान बचेगा।
अब भारत में हिन्दी भाषा और समाज के हित में आवश्यक है कि इसे झूठे, दिखावटी राजत्व की अपमानजनक स्थिति से मुक्त कर दिया जाए। इस भाषा का अब उतना सम्मान भी नहीं जो आखिरी मुगल बादशाहों का था, जिन का राज बस ‘दिल्ली से पालम’ तक सिमट गया था। उलटे, कथित राजभाषा होने के नाम पर हिन्दी को सालो भर अन्य भारतीय भाषाओं के बुद्धिजीवियों, लेखकों, कर्मचारियों, आदि की नाराजगी का नाहक सामना करता पड़ता है।
इस तरह, आज भारत में हिन्दी मानो किसी राजा की ऐसी पटरानी है जिसे दरबार में कोई पूछता, देखता तक नहीं। न राजा को उस की परवाह हो, जिस की प्रेयसी कोई और हो। पर उसी पटरानी से रनिवास की अन्य सभी रानियाँ जलती, खार खाती, रोज जली-कटी सुनाती हों। बेचारी पटरानी असहाय यह सब झेलने को लाचार हो। क्या उस के लिए यह अधिक अच्छा न होगा कि उसे भी पटरानी की पदवी से मुक्त कर सामान्य रानी बना दिया जाए? ताकि वह अन्य रानियों के सहज बहनापे की तो पात्र हो सके! राजा और दरबारी तंत्र बेशक उस की उपेक्षा करता रहे।
यही स्थिति आज भारत में हिन्दी भाषा की बन चुकी। अतः सचमुच उपयुक्त होगा कि हिन्दी को झूठे राजत्व की दोहरी प्रवंचना से मुक्ति मिले। तब कालगति में वह अपना जो भी सही स्थान पा लेगी। अन्य भारतीय भाषाओं के बौद्धिकों, कर्मचारियों की नाहक कटूक्तियों से हिन्दी को छुटकारा मिलेगा तो उसे धीरे-धीरे स्वत: वह सदभाव पुनः मिल जाएगा, जो ब्रिटिश शासन काल में था। स्मरणीय है कि ब्रिटिश राज में हिन्दी को राष्ट्रीय कामकाज की भाषा बनाने के सभी प्रयत्न गुजराती, तमिल, बंगाली, आदि नेताओं, ज्ञानियों ने किए थे। गाँधीजी, राजगोपालाचारी, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, रवीन्द्रनाथ टैगोर, आदि नाम सभी जानते हैं जिन्होंने तब हिन्दी की वह क्षमता और भूमिका पहचानी थी। किन्तु तब देश में हिन्दी वैसी ही एक भाषा थी जैसी तमिल या मराठी थी, जबकि देश के शासन और शिक्षितों की भाषा अंग्रेजी थी। आज हिन्दी को वही सामान्य स्थान, सभी भारतीय भाषाओं में एक – न कि राजभाषा – पुनः दे देना चाहिए।
ठंडे दिमाग से सोचें तो यह एक कल्याणकारी और राष्ट्रीय एकता बढ़ाने वाला काम होगा। वैसे भी, एकता को छिन्न-भिन्न करने, देशवासियों के बीच ईर्ष्या-द्वेष बढ़ाने के लिए अब काफी मुद्दे, विषय आ चुके हैं। इस के लिए हिन्दी का जो उपयोग हमारे नेतागण विगत छः दशकों से कर रहे हैं, वह अब खत्म किया जा सकता है। इस में किसी अहिन्दी भाषी नेता या बौद्धिक को आपत्ति न होगी।
वास्तव में, शिक्षा, बौद्धिक विमर्श, नीति-निर्माण और प्रशासन के क्षेत्र में केवल अंग्रेजी का औपचारिक स्थान बना देना हर तरह से ठीक रहेगा। यह व्यवहार में बहुत पहले स्थापित हो चुका, और अबाध बढ़ रहा है। हमारे नेता-प्रशासक भी इसे मानते हैं। यदि शंका हो, तो 1963 और 1976 के राजभाषा कानून और नियम की तुलना करके देख लें। 1976 के राजभाषा नियम का फिर 1986 , 2007 और 2011 में संशोधन भी किया गया है। क्रमशः सभी वास्तविक व्यवहार दिखाते हैं कि भारत गणतंत्र के सात दशक में अंग्रेजी और हिन्दी की स्थिति में उँच और नीच की खाई लगातार बढ़ती गई है। तब गिरी हुई पटरानी को एक अन्य रानी की तरह सामान्य स्थान दे देना अधिक मानवीय होगा।
उस से देश को कई लाभ भी होंगे। एक, दोहरी राजभाषा का नकली आडंबर सँभालने में होने वाले भारी खर्च, समय और ऊर्जा की बचत होगी। हर कर्मचारी और छात्र भी जानता है कि किसी भी नियम, नीति, दस्तावेज, आदि को प्रमाणिक रूप में जानना हो तो मूल अंग्रेजी वाला दस्तावेज ही पढ़ना ठीक है। वरना, ऊटपटाँग या यांत्रिक हिन्दी अनुवादों से कुछ भी समझने, करने में दोहरी-तेहरी मेहनत और झमेला उठाना पड़ता है।
दूसरा लाभ, केवल अंग्रेजी की औपचारिक प्रमुखता बना देने के बाद सभी विद्यार्थी अपनी भाषाई प्रवीणता पर निरुद्वेग ध्यान दे सकेंगे। केंद्रीय सेवाओं में केवल अंग्रेजी माध्यम से परीक्षा और इंटरव्यू होने से भाषाई भेद-भाव और बढ़ा-चढ़ाकर नंबर देने का प्रपंच खत्म हो सकेगा। इस से गुणवत्ता बढ़ेगी, तथा छात्रों, उम्मीदवारों और निरीक्षकों में अच्छी भाषा के महत्व के प्रति गंभीरता भी।
तीसरे, सभी भारतवासियों में इस विषय पर सदभावना बनेगी। तब जिस मलयाली, कन्नड़, या तेलुगू भाषी को हिन्दी साहित्य या समाज में रुचि होगी, वह सहजता से उसे प्राप्त करेगा। हिन्दी भाषी बड़बोले भी लफ्फाजी और झूठे घमंड से हिन्दी को चोट पहुँचाने से बाज आएंगे।
चौथे, हिन्दी भाषी लेखकों, कवियों, प्रकाशकों में अच्छे और सच्चे साहित्य के प्रति चिन्ता होगी। सजगता और निष्ठा उभरेगी। अभी, राजभाषा के नाम पर सालाना करोड़ों रूपयों की जैसी-तैसी पुस्तकों की खरीद के धंधे में बेकार, सतही, और घटिया पुस्तकें छापकर और थोक राजकीय खरीद में ठिकाने लगाकर आसान और मोटी कमाई व कमीशन का धंधा बन्द होगा। यह बंद होने पर ही सच्चे और अच्छे लेखन-प्रकाशन का मार्ग खुलेगा, जो अभी थोक घटिया छापने-बेचने में अवरुद्ध हो गया है। आज हिन्दी प्रकाशन में सब से उपेक्षित स्थान लेखक और पाठक का है। सारा महत्व धंधेबाज प्रकाशकों, बिचौलियों, और राजकीय कारकूनों का है – जो आपसी सहयोग से नियमित रूप से लाखों के वारे-न्यारे करते हैं। न उन्हें पाठक की परवाह है, न लेखक की। यह दयनीय स्थिति एकबारगी सुधर सकती है, यदि राजभाषा के नाम पर वैध लूट का यह जाली धंधा बन्द हो।
अंततः, यह भी अच्छा होगा कि केंद्रीय राजकीय संस्थानों में अहिन्दी भाषी अधिकारियों, कर्मचारियों में हिन्दी भाषी सहकर्मियों के प्रति एक खिंची नजर सीधी हो सकेगी। अभी स्थिति यह है कि यदि कोई सहकर्मी हिन्दी में कोई लेख, टिप्पणी साझा करे, तो अन्य भाषा-भाषी सहकर्मी इसे अपनी हेठी समझते हैं! मानो, उन्हें कष्ट देने या उपेक्षित करने के लिए ऐसा किया जाता है। यह भोली जलन खत्म हो तो सब का भला हो। अभी हमारी स्थिति समवेत रूप से यह है कि अंग्रेजी चाहे तमिल, असमिया, मणिपुरी, आदि सभी को आमूल समाप्त कर दे तो ठीक, किन्तु हिन्दी नहीं ‘थोपी’ जानी चाहिए। यह माँग और भावना बिलकुल सामान्य है, जिस का सम्मान होना ही चाहिए। तभी हिन्दी भी सम्मानित रह सकेगी। वरना, इस की स्थिति दिनों-दिन पतली भी हो रही है, और ऊपर से अपमान और तानाकशी भी झेलनी पड़ती है।
अब यूपी, बिहार, मप्र, आदि के सुदूर गाँव से भी ग्रामीण अपने हिन्दी संदेश रोमन में लिखकर जैसै-तैसे संप्रेषित करते हैं। आपस में भी। सब जानते हैं कि कामचलाऊ अंग्रेजी तो ठेला चलाने, सब्जी बेचने, कूरियर पहुँचाने वाले गरीब लडकों को भी जाननी ही है – वरना वे सड़क पर स्थान का नाम, ट्रैफिक निर्देश, पते, आदि नहीं पढ़ सकेंगे जो अब प्रायः केवल अंग्रेजी में रहते हैं। इसलिए जब कैसी भी अंग्रेजी जानना अपरिहार्य है, तो दो लिपियाँ सीखना क्या जरूरी!
लिहाजा, कथित हिन्दी क्षेत्र में भी हिन्दी धीमी परन्तु निश्चित मृत्यु की ओर बढ़ रही है। जैसे अन्य भारतीय भाषाएं भी। कवि अज्ञेय ने पाँच दशक पहले ही आगाह किया था: रोमन लिपि में हिन्दी लिखना इस के खात्मे की दिशा में पहला कदम है। वह कदम उठाया जा चुका है। पूरे देश में रोमन लिपि का प्रयोग तेजी से बढ़ रहा है।
यह ऐतिहासिक गति जैसी है, जिस से हमारे नेता चाहें तो अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ सकते हैं। कि उन्होंने कुछ नहीं किया है, सब स्वत: हुआ, उन का कोई दोष नहीं, आदि। किन्तु उन का यह दोष निश्चित रूप से है कि वे छीजती, मरती हिन्दी भाषा को अपने ही देशवासियों से नाहक अपमानित भी होने दे रहे हैं। हिन्दी को दिखावटी राजभाषा पद से मुक्त कर देने में सब का हित है। हमारे नेता और नीति-नियंता इस बात को जितना जल्द समझ लें, उतना ही हिन्दी का सम्मान बचेगा। आगे, हरि इच्छा!