Sunday, November 24, 2024
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“मैला आँचल” के सत्तर साल

फणीश्वरनाथ रेणु जी की यह अमर कृति “मैला आँचल” आज  से 70 साल पहले, 9 अगस्त 1954 ही के दिन पहली बार प्रकाशित हुई थी।

यह उपन्यास मुझे इतना प्रिय है कि लगभग हमेशा ही सिरहाने या फिर एक हाथ की दूरी पर ही रहता है। जिससे जब चाहूँ, उठाकर कहीं से भी पढ़ना शुरू कर दूँ। और हर बार उतना ही आनन्द आता है। इसे धीरे-धीरे पढता हूँ, बचपन में मिलने वाली किसी मिठाई की तरह। धीरे-धीरे चुभलाते हुए। इस डर के साथ कि कहीं जल्दी से ख़त्म न हो जाए।

जब-जब पढ़ो तो हर बार यही लगता है कि अगर इसकी ऑब्जेक्टिविटी को छोड़ दिया जाए तो आज सत्तर सालों बाद भी कुछ नहीं बदला।
वही कोलाज, कैनवस व पृष्ठभूमि।
इसका मेरीगंज गाँव, वहाँ की राजनीति, कमला मैया, गाँव के ताल-तलैया, नदी-नाले, पोखर सब कुछ अपने से लगते हैं।
मठ के सेवादास, रामदास, लक्ष्मी ब्राह्मणटोली के जोतखी काका, सहदेव मिसर, नामलरैन मिसर, राजपूत टोली या सिपाहियाटोली’के ठाकुर रामकृपाल सिंघ, शिवशक्कर सिंघ, हरगौरी कायस्थ टोली या कैथ टोली’ के मुखिया तहसीलदार विश्वनाथप्रसाद मल्लिक और उनकी बेटी कमली यादव टोली के खेलावन सिंह यादव, कालीचरण इसके अलावा चन्ननपट्टी से अपनी मौसी के यहाँ आया बालदेव डॉक्टर प्रशांत कुमार, ममता, प्यारू, लबड़ा सुमरितदास, बावनदास, बिरंचीदास, खलासी जी…..इत्यादि सब

एक-एक किरदार सब अपने से लगते हैं। जैसे लगता है अभी किवाड़ खोलकर कोई किरदार इनमें से सामने आ खड़ा होगा। नजर दौड़ाएंगे तो अपने आसपास इन्हीं में से किसी ने किसी को किसी ने किसी रूप में पाएंगे।  पगले मार्टिन और उसकी परी सी मेम, गन्ही महातमा से लेकर जमहिर लाल, जयपरगास बाबू से लेकर फटाक से बम फोड़ देना वाला मस्ताना भगत सिंह तक…सब अंदर तक रच बस गए हैं। भाषा, नाद, बिंब, शिल्प, ध्वनि सब कुछ ऐसा है कि जैसे लोक जीवन का कोई चलचित्र चल रहा हो और उसके मुख्य पात्र हम ही हैं।

सुरंगा-सदाबृज की कथा..विदापत की नाच…आह ! अखाड़े में शोभन मोची की ताल काटती हुई ढोल…ढाक-ढिन्ना, ढाक-ढिन्ना..या फिर संथाल टोली में बजता हुआ डिग्गा डा-डिग्गा, डा-डिग्गा…और मादल का स्वर रिं-रिग्गा, रिं-रिग्गा…कहीं पर परिष्कृत भाषा मनमोहक लगेगी तो कहीं पर बिल्कुल ठेठ गँवईं भाषा पर मंत्र मुग्ध हो जाएंगे।
हालांकि कहा तो इसे रेणु का आंचलिक उपन्यास जाता है, लेकिन इसका फलक इतना विस्तृत है कि आप आश्चर्यचकित रह जाएंगे। रेणु जी का दृष्टिकोण इतना सूक्ष्म और विस्तारवादी है कि इन्होंने उसमें क्या-क्या नहीं समाहित कर दिया है। इसमें उन्होंने इतिहास विज्ञान, मनोविज्ञान सब कुछ तो कवर किया ही है।
जब विज्ञान की बात करेंगे तो एक तरफ तो थायराइड, थाइमस, प्युटिटरी ग्लैंड्स के हॉर्मओन के हेर-फेर और दूसरी तरफ कालाआजार के ब्रह्मचारी टेस्ट की बात करते हैं। तो कहीं एक एंटीबॉडी टेस्ट डब्ल्यू. आर. (W.R.) वॉशरमैन टेस्ट या वॉशरमैन रिएक्शन के बारे में बताते हैं। तो कहीं, वेदांत भौतिकवाद सापेक्षवाद और मानवतावाद की बात करते हैं। इसमें वे एटॉमिक या न्यूक्लियर एक्सप्लोजन की बात करते हैं, उसके बाद होने वाले ‘न्यूक्लियर विंटर’ की और सभी जीवित प्राणियों की वाष्प बनकर उड़ जाने की भी बात।
कहीं टेस्ट ट्यूब बेबी की और लैब में प्रयोग में आने वाले गिनी पिग की भी।
जब मनोविज्ञान की बात आएगी तो हिस्टीरिया, फोबिया, काम-विकृति, हठ-प्रवृत्ति का भी जिक्र आएगा।  सोशलिज्म या कम्युनिज्म की बात होगी तो रिएक्शनरी, डिमोरलाइज़्ड, और मार्क्स के दर्शन डायलेक्टिकल मˈटिअरिअलिज़म्‌ (द्वंद्वात्मक भौतिकवाद) के साथ-साथ लाल सलाम कामरेड की भी बात होगी।  मिट्टी और मनुष्य से इतनी गहरी मोहब्बत किसी लेबोरेटरी में नहीं बनती। सोचता हूँ कि रेणूजी का फलक कितना विस्तृत रहा होगा।
इसी बात को उन्होंने इस किताब की भूमिका में लिख रखा है:
“इसमें फूल भी हैं शूल भी, धूल भी है, गुलाब भी है, कीचड़ भी है, चन्दन भी, सुन्दरता भी है, कुरूपता भी- मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया।”
हम भी इसके दामन से बढ़ नहीं पाए और आज इसके प्रकाशन के 70 सालों बाद भी हम जैसे पाठकगण “मैला आँचल” के उसी दमन में लिपटे हुए खुद को खेलते-कूदते, पलते-बढ़ते हुए पाते हैं।आईआईटी कानपुर के छात्रों द्वारा निर्मित हिंदी साहित्य सभा (https://hindisahityasabha.in/) में मैला आंचल के बारे में कहा गया है

सुमित्रानंदन पंत जी की कविता थी ‘भारत माता’ जिसकी प्रारंभिक पंक्तियाँ थीं
“भारत माता ग्रामवासिनी।
खेतों में फैला है श्यामल
धूल भरा मैला सा आँचल…”फणीश्वरनाथ रेणु की मैला आँचल भारत माता के उसी धूल भरे आँचल की कहानी है। मैला आँचल को ‘गोदान’ के बाद हिंदी साहित्य का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास भी माना जाता है। सन् १९५४ में प्रकाशित इस उपन्यास ने आँचलिकता की नयी विधा को जन्म दिया। रेणु एक गांव की कहानी के माध्यम से स्वातंत्र्योत्तर भारत के गांवों में जन्मे राजनैतिक चेतना व अंतर्विरोध को दर्शाते हैं। भारत की स्वतंत्रता इस उपन्यास को दो खंडो में बांट देती है और गांधीजी की हत्या के साथ ही उपन्यास अपने अंत की ओर पहुंचता है, और साथ ही पतन होता है उस आदर्श राजनीति का जिसका उन्होंने कभी स्वप्न देखा था। सामान्य लोगों में राजनीति पहुंचती तो है पर उसमें निष्ठा, आचरण, गंभीरता सब समाप्त हो जाती है।

कहानी उत्तर पूर्वी बिहार के कोसी नदी के शोक से ग्रसित पूर्णिया जिले के एक छोटे से गांव मेरीगंज में अस्पताल खुलने और उसके पश्चात यहाँ के लोगों और उनके साथ होती घटनाओं पर आधारित है। गांव के लोग अंधविश्वासी हैं, उनमें जातिगत भेदभाव अत्यधिक है,उनकी शिक्षा, मानसिकता और बुनियादी सुविधाओं पर पिछड़ेपन की छाप है।

“गाँव के लोग बड़े सीधे दीखते हैं; सीधे का अर्थ यदि अनपढ़, अज्ञानी और अंधविश्वासी हो तो वास्तव में सीधे हैं वे।”

प्रारम्भ में तीन किरदार प्रमुख रूप से सामने आते हैं। बालदेव, डॉक्टर प्रशान्त, दासी लक्ष्मी। बालदेव जी कांग्रेस के कार्यकर्ता है, जो जेल भी जा चुके है। गांव में उनका बहुत मान सम्मान है और ऐसा माना जाता है कि वो हर बात सोच समझ के करते है। लक्ष्मी महंत सेवादास की दासी है। कम उम्र में अनाथ होने के बाद से ही मठ पर उसका शोषण होता रहा। किन्तु इन सब के बावजूद वो एक बेहद समझदार और व्यवहार कुशल महिला है। बालदेव जी लक्ष्मी की मदद करते है, जो मन ही मन लक्ष्मी के लिए आकृष्ट होते है और दोनों का प्रेम बेहद पवित्र होता है।

डॉक्टर प्रशांत कुमार भी एक अनाथ बच्चा था लेकिन उसे एक आश्रम में संरक्षण मिला । वह डॉक्टरी पूरी कर विदेश में संभावनाएं तलाशने के स्थान पर अपने देश मे रहकर पिछड़े गांववालों की मलेरिया, काला अज़ार और हैज़ा जैसी बीमारियों का इलाज ढूंढने का निर्णय लेता है। पर गांव वालों की असल बीमारी तो गरीबी और जहालत है। निर्धन और विवश किसानों की स्थिति जानवरों से भिन्न नहीं है।

“बैलों के मुँह मे जाली का ‘जाब’ लगा दिया जाता है। गरीब और बेजमीन लोगों की हालत भी खम्हार के बैलों जैसी है- मूँह में जाली का ‘जाब’… लेकिन खम्हार का मोह! यह नहीं टूट सकता।”

परन्तु समय के साथ किसानों में जागरण होना प्रारंभ होता है और स्थिति में परिवर्तन की आशाएं जाग जाती हैं। भिन्न-भिन्न विचारधाराओं का आगमन होता है। बालदेव विरोध के लिए गांधीजी के चरखा कर्घा के माध्यम से आत्मनिर्भरता लाने के प्रयास करता है तो कालीचरण सोशलिस्ट क्रान्ति की राह अपनाता है। इसी प्रकार अन्य दल भी प्रवेश करते हैं।

“गाँव में तो रोज़ नया-नया सेंटर खुल रहा है- मलेरिया सेंटर, काली टोपी सेंटर, लाल झंडा सेंटर, और अब एक चरखा सेंटर!”

परन्तु स्वतंत्रता के पश्चात यह सब उलझ कर रह जाता है। वामनदास की कहानी इसी उलझन को दर्शाती है। वह व्यथित है, गांधीजी से अपने प्रश्नों के उत्तर चाहता है। उसने अपना पूरा जीवन जिस कांग्रेस के लिए कार्य करते हुए जिनका विरोध किया, अंततः वह पार्टी उन्हीं सब कुरीतियों और षड्यंत्रों का शिकार बन कर रह जाती है।

बाकी राजनैतिक दल भी मात्र सत्ता के लोभी बनकर रह जाते हैं, और जातिगत जोड़ घटाव शेष रह जाता है।

बावनदास सोचता है, अब लोगों को चाहिए की अपनी अपनी टोपी पे लिखवा लें – भूमिहार, राजपूत, कायस्थ, यादव, हरिजन!… कौन काजकर्ता किस पार्टी का है, समझ में नहीं आता। इन सब द्वंद में उलझे प्रत्येक किरदार की अपनी समस्याएँ हैं अपनी उलझने हैं अपनी कहानी है जो सब कभी एक दूसरे से विपरीत हैं तो कभी साथ साथ चलती हैं। सभी मिलकर अंततः आँचल को उपन्यास का मुख्य नायक बना देती हैं।

रेणु की भाषा लेखन के बिल्कुल नये रूप को जन्म देती है। उसमें चित्र है, लोक गीत हैं, कविताएँ है, ढोलक और अन्य वाद्य यंत्रों की झंकार है, चिड़ियों की चहचहाहट है और गाँवों की मिठास है। रेणु ने संथाल और मैथिल परगना के जिस लोक का निर्माण किया है वहाँ शब्दों को जैसे बोला जाता है वैसे ही कथानक में उतारा है।

इस उपन्यास के द्वारा ‘रेणु’ जी ने पूरे भारत के ग्रामीण जीवन का चित्रण करने की कोशिश की है। इस उपन्यास की सबसे बड़ी खासियत इसका सहज, सरल और उसी परिवेश का होना है | उन लोकगीतों ने इस उपन्यास को अमर कर दिया है, जो आज के परिवेश में कहीं खो गए है। भारत को जानने के लिये यह उपन्यास बहुत अहम स्थान रखता है।

कवि! तुम्हारे विद्यापति के गान हमारी टूटी झोपड़िया में मधुरस बरसा रहे हैं…

यह उपन्यास को पढ़के आप इसके पात्रों के साथ डूबने उतरने लगते है और स्वयं को उसी ग्रामीण परिवेश में महसूस करने लगते है, जो हम में से बहुत कम लोगों ने जिया है और यही कारण है जो इस उपन्यास को एक असीम कृति बना देता है।

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