Monday, December 30, 2024
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रांगेय राघवः 39 साल में सौ साल जी गए

रांगेय राघव एक अदद ऐसे लेखक हैं, जिनके लिखने को लेकर अनेक किंवदंतियां हैं- वे सेर भर कागज रोज लिखते थे। वे चार-पांच किताबें एक साथ लिखते थे। वे गप्पें लड़ाते रहते थे और उनका लिखना चलता रहता था। वे सारे दिन अड्डेबाजी करते और सारी रात लिखते थे। यह भी कि सौ-दो-सौ पन्नों के उपन्यास एक-दो दिनों में और ‘मुर्दों का टीला’ या ‘कब तक पुकारूं’ जैसे उपन्यास दो से तीन सप्ताह के भीतर लिखे गयें।
वे जितने पन्नों का उपन्यास लिखना हो उतने `पृष्ठ लेकर, पहले एक दो बैठकों में हर पैराग्राफ की पहली पंक्ति लिख लेते थे, इसके बाद दूसरे एक-दो बैठकों में वो पैराग्राफ को भर डालते थे। याकि वे सीधे पन्ने लेकर उसमें शुरूआत, मध्य और अंत पहले लिख लेते हैं, फिर पूरी किताब की बारी आती है। एक बार तो उन्होंने महीने भर रोज़ एक कहानी लिखी। उनके बारे में यह भी कहा जाता है कि वो दोनो हाथों से रात दिन लिखते थे और उनके लिखे ढेर को देखकर समकालीन ये भी कयास लगाते थे कि शायद वो ‘तन्त्र सिद्ध’ हैं नहीं तो इतने कम समय में कोई भी इतना ज़्यादा और इतना बढिया कैसे लिख सकता है? उन्हें हिन्दी का पहला ‘मसिजीवी क़लमकार’ भी कहा जाता है, जिनकी जीविका का साधन सिर्फ़ लेखन था।’
इनमें से भले हीं कुछ बातें सच्ची हों और कुछ झूठी याकि अतिशयोक्तिपूर्ण। पर ये किंवदंतियां जो उनके जीते जी चल और निकल पड़ी थी, लेखन के प्रति उनके आस्था, उनकी जीजिविषा और उनके भीतर बसे अदम्य इच्छाशक्ति को ही दर्शाती हैं। जब उनसे इन किंवदंतियों को केंद्र में रखते हुये ये पूछा गया-‘ वे एक दिन में औसतन कितना लिख लेते हैं?’ तो उनका जबाब था-‘ सामान्य तौर पर मतलब बिना किसी अतिरिक्त श्रम के मैं एक दिन में तीस-चालीस पृष्ठ लिख लेता हूं। यों लिखने को मैंने साठ और अस्सी फुलस्केप भी लिखे हैं। पर वह अपवाद है। राघव हिंदी के बेहद लिक्खाड़ लेखकों में शुमार रहे हैं। उन्होंने क़रीब क़रीब हर विधा पर अपनी कलम चलाई और वह भी बेहद तीक्ष्ण दृष्टि के साथ।
अधिक लिखने वालों के लिखे पर एक प्रश्नचिन्ह उनके लेखन की गुणवत्ता को लेकर भी किया जाता रहा है। उनके सामने भी ये प्रश्न तरह-तरह से आते रहें-‘ यार पप्पू, तुम इतना अधिक लिखते हो…थोड़ा लिखो और जमकर लिखो!’
उनका आत्मविश्वास भरा प्रत्युत्तर जैसे कहीं तैयार ही धरा हुआ था-‘ जहां तक क्वालिटी का सवाल है, यह तो समय ही बतायेगा। इस पर राय देने वाले हम तुम कौन होते हैं? आपलोगों में न जाने कैसे यह मिथ्या धारणा भर गयी है कि कम लिखना और श्रेष्ठ लिखना एक हीं बात है। कभी आपने रवींद्रनाथ टैगोर की किताबें गिनी हैं? तोल्स्तोय, गोर्की, रोला, ह्यूगो, जोला, डिकेंस, स्कॉट, मॉम…कभी पता लगाना कि एक-एक ने कितना लिखा है? दोस्तोवयस्की के लिखे पन्ने गिनोगे? इनमें से किसी एक के भी साहित्य का वजन कोई अकेला आदमी नहीं उठा सकता।
रांगेय राघव की कृतियां ही सुंदर नहीं हैं। वे स्वयं भी विधाता की अनुपम कृति थे। पतली नुकीली नाक, बेहद बड़ी-बड़ी आंखें, कलात्मक रुप से पतले होंठ, लम्बी पतली पलक, चौड़ा माथा, रेशमी बाल और गौरवर्ण मुख। वर्णन करो तो बिलकुल किसी सुंदरी नायिका के नख-शिख वर्णन की तरह उपमाओं की शृंखला खत्म ही न हो। वह सुंदरता जो कहने वाले कहते हैं गंभीर बीमारी के चपेट में क्षीण तो हुई पर क्षीण होते हुये भी और मर्मांतक होती गयी थी। राजेंद्र यादव कहते थे- ‘जब-जब मैंने किसी सुंदर पुरुष चेहरे को देखा है तो निमिष भर के लिए रांगेय राघव का ध्यान जरूर आता है।
दो बड़ी बड़ी चमकदार आंखे, नुकीली सुती हुई नाक, लम्बी लम्बी उंगलियों के बीच में दबी सिगरेट। होंठो के कोनों से झांकती व्यंग्य और आत्मतुष्टि भरी परम आश्वस्त मुस्कान। और उसी मुस्कान के सहारे पलक मूंदकर किसी सुदूर लोक में खोते चले जाना। उनकी लेखकीय प्रतिभा का ही कमाल था कि सुबह यदि वे आद्यैतिहासिक विषय पर लिख रहे होते थे तो शाम को आप उन्हें उसी प्रवाह से आधुनिक इतिहास पर टिप्पणी लिखते देख सकते थे।’
‘‘दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक विभास चन्द्र वर्मा ने कहा कि आगरा के तीन ‘र‘ का हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान है और ये हैं रांगेय राघव, रामविलास शर्मा और राजेंद्र यादव।’ पर बाद में इन तीनों के सम्बंध उतने सहज और सरल नहीं रह गये थे। जिसके केंद्र में बस वही लेखकीय प्रतिस्पर्धा ही थी। रामविलास जी के रांगेय राघव पर लिखे गये और हंस में प्रकाशित एक लेख से जिसमें वे उनकी भाषा को ‘छायावादी और उन्हें छद्म प्रगतिशील’ कहे जाने से आहत थे, पर सामने से उन्होंने इस पर अपनी कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की।
उन्होंने अगले दिन राजेंद्र यादव के उनके घर आने पर उनसे पूछा था-‘ तुमने रामविलास का वो लेख पढा है?’
‘हां पढा तो है… और उसकी कुछ बातों से सहमत भी हूं…’
‘हां तुम तो कहोगे ही… तुम तो उसके हिज मास्टर वॉयस हो… राजेंद्र यादव ने आगे लिखा है-
‘कैसा था वह क्षण कि उनका यह कथन मुझे भीतर तक भेदे चला जा रहा था- ‘आचार्य जी, वे मेरे पड़ोसी मुहल्ले में रहते हैं इसके सिवा…
मैंने मन ही मन निश्चय किया कि अब मैं कभी अपनी तरफ से इस व्यक्ति से नहीं मिलूंगा… हालांकि हम बाद में कई बार मिले…पर बाहर-बाहर’
बाद इसके इन दोनों की अंतिम मुलाकात का जिक्र-
‘मैं हर क्षण यह सोच रहा था, रांगेय राघव से मिलकर मुझे कैसा लगेगा? किसी ऐसे व्यक्ति से मिलकर कैसा लग सकता है जिसे पता हो कि उसे मौत की सजा मिल चुकी है और अब बस तारीख तय होनी शेष है…उस दुर्बल आदमी से मिलकर मुझे धक्का सा लगा। वही यह आदमी है जो अपने सामने सारी दुनिया को तुच्छ समझता है और जिसके घर से निकलते समय एक दिन मैंने निश्चय किया था अब इस व्यक्ति से अपनी ओर से कभी मिलने नहीं आना।’
… ‘एक छोटी सी तिपाई पर कुछ शीशियां थीं, बिस्तर जमीन पर हीं था। वे दीवार का सहारा लेकर बैठे थे, चौड़ा माथा खोपड़ी तक फैल गया था। केवल कानों के ऊपर बालों की पट्टी बची रह गयी थी। कुर्ता और धोती शरीर पर बहुत ढीले लग रहे थे। मुझे देखते ही उन्होंने नितांत स्वाभाविक स्वर में कहा था – ‘ अरे राजेन्द्र , तुम हो, आओ … फिर वही दो चार बातें -मन्नू कैसी हैं? तुमने अपनी बच्ची का नाम क्या रखा है? फिर उन्होंने सिगरेट निकालकर मुझे बढाई थी…’
(राजेंद्र यादव लिखित संस्मरण ‘ऐ रे मेरे, मरण आया द्वार…’से)
सिगरेट पीने का उन्हें बेहद शौक़ था। वह सिगरेट पीते तो केवल जानपील ही, दूसरी सिगरेट को वह हाथ तक नहीं लगाते थे। एक दर्जन सिगरेट की डिब्बी उनकी लिखने की मेज पर रखी रहती थीं और ऐश-ट्रे के नाम पर रखा गया चीनी का प्याला दिन में तीन-चार बार साफ़ करना पड़ता। उनका कमरा था कि सिगरेट की गंध और धुएँ से भरा रहता था। किसी भी आगन्तुक ने आकर उनके कमरे का दरवाज़ा खोला तो सिगरेट का एक भभका उसे लगता, परन्तु हिन्दी साहित्य के इस साधक के लिये सिगरेट पीना एक आवश्यकता बन गई थी। बिना सिगरेट पिये वह कुछ भी कर सकने में असमर्थ थे। परन्तु शायद सिगरेट पीने की यह आदत ही उनकी मृत्यु का कारण बनी, जिसने 1962 में हिन्दी के इस अनुपम योद्धा को हमसे हमेशा के लिये छीन लिया। अपनी उसी अंतिम मुलाकात में जिसका जिक्र ऊपर आया है, जब राजेंद्र यादव ने मुम्बई में उन्हें सिगरेट पीते देखकर उन्हें रोकना चाहा- ‘क्या आचार्य जी अभी भी…
हंसकर वो दृढता से बोले थे- ‘कुछ नहीं यार मैंने डाक्टरों से पूछ लिया है। इनलोगों को अभी पता ही नहीं कि कैंसर होता काहे से है, कभी सिगरेट बताते हैं, कभी पान। बहरहाल सिगरेट से इसका कोई सम्बंध नहीं है। इन डाक्टरों के पास तो कोई ईलाज नहीं… मुझे एक बार आयुर्वेदिक इलाज कर लेने दो।’
रांगेय राघव का जन्म 17 जनवरी सन्‌ 1923 को आगरा में हुआ। रागेय राघव साहित्य के विलक्षण कथाकार, लेखक, कवि थे। वह मूल रूप से तमिल भाषी थे लेकिन उन्हें अंग्रेजी, हिंदी, ब्रज और संस्कृत के अलावे अन्य दक्षिण भारतीय भाषाओं का भी अच्छा-खासा ज्ञान था। बावजूद इसके उन्होंने हिंदी को अपने लेखन की भाषा के रूप में चुना। इनके परिवार के लोग काफ़ी पहले मथुरा में आकर बस ग़ए थे और भरतपुर के पास वैर नामक स्थान में जिनकी जमींदारी थी। आगरा विश्वविद्यालय से हिंदी में. एम.ए. करने के बाद वहीं से सन्‌ 1948 मे ‘श्री गुरु गोरखनाथ और उनका युग’ विषय पर आपने पीएचडी की।
उनके पिता का नाम रंगाचार्य और माता का नाम कनकवल्ली था। माता कन्नड़ और पिता तमिल थे। रांगेय राघव का मूल नाम तिरुमल्लै नंबाकम वीर राघव आचार्य था, लेकिन उन्होंने अपना साहित्यिक नाम ‘रांगेय राघव’ रखा। रांगेय राघव नाम के पीछे भी एक कहानी है। उन्होंने अपने पिता रंगाचार्य के नाम से रांगेय शब्द स्वीकार किया और अपने स्वयं के नाम राघवाचार्य से राघव शब्द लेकर अपना पेन नेम ‘रांगेय राघव’ बनाया। वो इसलिए क्योंकि अपने जीवन और साहित्य की तरह वे अपने नाम में भी एक सादगी और सहजता चाहते थे, उसका भारी भरकम होना या सुदीर्घ होना उनके लिए उतना माने नहीं रखता था।
उन्होंने 13 वर्ष की आयु में लिखना शुरू किया था। इनका विवाह सुलोचना से हुआ था। इन दोनों की एक इकलौती बिटिया हुई-सीमांतिनी। उन्हने उम्र बहुत कम पाई पर इतना प्रचुर लिखा कि कालजयी हो गए। हालांकि वह केवल 39 साल की उम्र तक जीये, पर इस बीच उन्होंने कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, रिपोर्ताज सहित आलोचना, संस्कृति और सभ्यता जैसे विषयों पर डेढ़ सौ से अधिक पुस्तकें लिख दी थीं। उनके बारे में कहा जाता था कि जितने समय में कोई एक किताब पढ़ता है, उतने में वह एक किताब लिख देते हैं।
रांगेय राघव के रचनाकर्म को देखें तो उन्होंने अपने अध्ययन से, हमारे दौर के इतिहास से, मानवीय जीवन की, मनुष्य के दुःख, दर्द, पीड़ा और उस चेतना की, जिसके भरोसे वह संघर्ष करता है, अंधकार से जूझता है, उसे ही सत्य माना; उसी को आधार बनाकर लिखा, उसे प्रेरणा दी। रांगेय राघव सामान्य जन के ऐसे रचनाकार थे जो समूचे जीवन न किसी वाद से बंधे, न विधा से, रांगेय राघव हिन्दी के प्रगतिशील विचारों के लेखक जरूर थे, किन्तु मार्क्स के दर्शन को उन्होंने संशोधित रूप में ही स्वीकार किया। उन्होंने खुद को मूलतः मानवीय सरोकारों का लेखक कहा और माना। प्रेमचंद के बाद वे हिन्दी साहित्य के युग प्रवर्तक लेखक माने गए। उन्हें अपने रचनाकर्म के लिए कई सम्मान मिले, जिनमें हिन्दुस्तानी अकादमी पुरस्कार, डालमिया पुरस्कार, उत्तरप्रदेश शासन, राजस्थान साहित्य अकादमी सम्मान शामिल है।
उन्होंने जर्मन और फ्रांसीसी के कई साहित्यकारों की रचनाओं का हिंदी में अनुवाद किया। ये सभी अनुवाद बेहद सरल और सुबोध थे। राघव द्वारा शेक्सपियर की रचनाओं का हिंदी अनुवाद इस कदर मूल सरीखा और अच्छा था कि उन्हें ‘हिंदी के शेक्सपीयर’ की संज्ञा दे दी गई। उन्होंने शेक्सपीयर’ के प्रायः सभी नाटकों का हिंदी में सरल और सुगम्य अनुवाद किया। लेकिन शेक्सपीयर के दुखांत नाटकों यथा हेमलेट, ओथेलो और मैकबेथ को तो जिस खूबी से डॉ.-रांगेय राघव ने हिन्दी के प्रांगण में उतारा वह उनके जीवन की विशेष उपलब्धियों में गिना जा सकता है। उनके अनुवाद की यह विशेषता थीं कि वह अनुवाद न लगकर मूल रचना ही प्रतीत होती है।
संस्कृत के अमर ग्रन्थों ‘ऋतु संहार’, ‘मेघदूत’, ‘दशकुमार चरित’, ‘मृच्छकटिकम्’ और ‘मुद्राराक्षस’ आदि को भी उन्होंने अनुवाद करके हिंदी पाठकों के लिए सुलभ बनाया। ‘गीत गोविंद” का भी उन्होंने बहुत सरस अनुवाद किया। इस तरह साहित्य को हिन्दी भाषा के माध्यम से हिन्दी भाषी जनता तक पहुँचाने का महान कार्य वे अपने लेखन के संग-संग करते रहे।
उनके बहुआयामी रचना संसार में कहानी संग्रह- देवदासी, समुद्र के फेन, जीवन के दाने, इंसान पैदा हुआ, पांच गधे, साम्राज्य का वैभव, अधूरी मूरत, ऐयाश मुर्दे, एक छोड़ एक, धर्म संकट आदि है तो उपन्यासो में मुर्दों का टीला, हुजूर, रत्न की बात, राई और पर्बत, भारती का सपूत, विषाद मठ, सीधा-सादा रास्ता, लखिमा की आंखें, प्रतिदान, काका, अंधेरे के जुगनू, लोई का ताना, उबाल, कब तक पुकारूं, पराया, आंधी की नावें, धरती मेरा घर, अंधेरे की भूख, छोटी-सी बात, बोलते खंडहर, पक्षी और आकाश, बौने और घायल फूल, राह न रुकी, जब आवेगी काली घटा, पथ का पाप, कल्पना, प्रोफ़ेसर, दायरे, मेरी भाव बाधा हरो, पतझड़, धूनी का धुआं, यशोधरा जीत गई, आखिरी आवाज़, देवकी का बेटा खास हैं।
इनकी ‘गदल” शीर्षक कहानी तो हिंदी की सर्वोत्तम कहानियों में से एक है। सर्वश्रेष्ठ प्रेम कहानियों में अग्रणी भी। जिसमें गदल का चरित्र जिस सबलता से उभरता है, वो श्लाघनीय है। रांगेय राघव के कहानी-लेखन का मुख्य दौर भारतीय इतिहास की दृष्टि से बहुत हलचल भरा विरल कालखंड है। कम मौकों पर भारतीय जनता ने इतने स्वप्न और दु:स्वप्न एक साथ देखे थे। आशा और हताशा ऐसे अड़ोस-पड़ोस में खड़ी देखी थी। रांगेय राघव की कहानियों की विशेषता यह है कि इस पूरे कालखंड की शायद ही कोई ऐसी घटना हो, जिसकी अनुगूँज इनमें न सुनी जा सकें। सच तो यह है कि रांगेय राघव ने हिंदी कहानी को भारतीय समाज के उन धूल-काँटों भरे रास्तों, आवारे-लफंडरों-परजीवियों की फक्कड़ ज़िंदगी, भारतीय गाँवों की कच्ची और कीचड़-भरी पगडंडियों की गश्त करवाई, जिनसे वह भले ही अब तक पूर्णत: अपरिचित न रही हो पर इस तरह हिली-मिली भी न थी। और इन ‘दुनियाओं’ में से जीवन से लबलबाते ऐसे-ऐसे कद्दावर चरित्र प्रकट किए जिन्हें हम विस्मृत नहीं कर सकेंगे। ‘गदल’ भी एक ऐसा ही अविस्मरणीय चरित्र बन जाती है।
मोअन-जो-दड़ो पर आधारित उनका काल्पनिक उपन्यास ‘मुर्दों का टीला‘ से लेकर उनके अन्य उपन्यासों और कहानियों तक में स्त्री-पात्र उनके कथा संसार की धुरी होते थे। सन्‌ 1946 में जब उनका पहला उपन्यास ‘घरौंदे’ प्रकाशित हुआ तो उसने भी लेखन-शैली और कथावस्तु के कारण हिंदी के पाठकों और अध्येताओं को अपनी ओर आकृष्ट किया। ‘कब तक पुकारूँ’ जो कि उनका बहु-प्रसिद्ध उपन्यास है, जिसमें राजस्थान और उत्तर प्रदेश की सीमा से जुड़े ‘बैर’ नामक ग्रामीण क्षेत्र जोकि नटों की बस्ती है, की कथा-वर्णित है। यह जरायम पेशा लोगों यानी नटों की संस्कृति पर आधारित पहला और बेहद सफल आँचलिक उपन्यास है। इस उपन्यास की कहानी 1920 से लेकर 1950 के बीच की है। जिसपर आधारित वर्ष 1985 में दूरदर्शन पर इसी नाम से आनेवाला धारावाहिक भी बेहद लोकप्रिय रहा।उनके अन्य प्रमुख उपन्यासों में ‘मु्दों का टीला’, ‘सीधा-सादा रास्ता’ और ‘कब तक पुकारूँ’ हैं।
कहा जाता है कि कई बार उन्होंने लेखकों की कृतियों के जबाब में उनकी प्रति-कृतियां भी लिखीं। आनंद मठ की धरती को उन्होंने ‘विषाद-मठ’ में विपन्न, अकालग्रस्त और गत-वैभव बताया तो ‘सीधा-सादा रास्ता’’ में भगवतीचरण वर्मा के ‘टेढ़े मेढे रास्ते’ के पात्रों और परिस्थितियों को ही लेकर उनके समानांतर हीं एक दूसरा और नया संसार खड़ा कर दिया। पर यहां उनका मकसद किसी की नकल करना नहीं बल्कि यह घोषित करना था- ये वंदनीय कृतियां भी अधूरी हैं, अपूर्ण है, सच्चाई तो कुछ और है।
रांगेय राघव ने 1950 ई. के पश्चात् कई जीवनीपरक उपन्यास लिखे हैं। इनका उपन्यास ‘भारती का सपूत’ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की जीवनी पर आधारित है। ‘लखिमा की आंखें’ विद्यापति के जीवन पर आधारित है। ‘मेरी भव बाधा हरो’ जो बिहारी के जीवन पर आधारित है। ‘रत्ना की बात’ जो तुलसी के जीवन पर आधारित है। ‘लोई का ताना’ जो कबीर- जीवन पर आधारित है। ‘धूनी का धुंआं’ जो गोरखनाथ के जीवन पर आधारित कृति है। ‘यशोधरा जीत गई’ जो गौतम बुद्ध पर लिखा गया है। ‘देवकी का बेटा’ जो कृष्ण के जीवन पर आधारित है। ऐतिहासिक और मिथकीय चरित्रों पर आधारित उनकीी ये किताबें सच कहे तो पात्रों को, खासकर स्त्री-पात्रों को एक खास संपूर्णता में देखने का एक सबल और सतर्क प्रयास थीं।
उनकी रचनाओं में स्त्री पात्र अत्यंत मजबूत होती थीं और लगभग पूरा कथानक उनके इर्द-गिर्द घूमता था। इस संदर्भ में उनका ये कथन बहुत महत्वपूर्ण है कि- ‘ भारत की पुरातन कहानियों में हमें अनेक परम्परओं के प्रभाव मिलते हैं। महाभारत के युद्ध के बाद हिन्दू धर्म में वैष्णव और शिव चिन्तन की धारा बही और इन दोनों सम्प्रदायों ने पुरातन ब्राह्मण परम्पराओं को अपनी-अपनी तरह स्वीकार किया। जिस कारण से वेद और उपनिषद में वर्णित पौराणिक चरित्रों के वर्णन में बदलाव देखने को मिलता है। और बाद के लेखन में हमें अधिक मानवीय भावों की छाया देखने को मिलती है। मैं ये महसूस करता हूँ कि मेरे से पहले के लेखकों ने अपने विश्वास और धारणाओं के आलोक में मुख्य पात्रो का वर्णन किया है और ऊँचे मानवीय आदर्श खडे किये हैं और अपने पात्रों को साम्प्रदायिकता से बचाये रखा है इसलिये मैंने पुरातन भारतीय चिन्तन को पाठकों तक पहुचाने का प्रयास किया है।”
सन 1942 में बंगाल के अकाल पर लिखी उनकी रिपोर्ट ‘तूफानों के बीच’ काफी चर्चित रही। बंगाल के अकाल के दिनों में भयंकर विभीषिका से आक्रांत प्रदेश की पैदल यात्रा करके उन्होंने ये रिपोर्ताज लिखे, सर्वप्रथम इन्हीं से हिंदी के अनेक साहित्यकारों का ध्यान डॉ. राघव की ओर गया था और जब वे ‘हंस’ में प्रकाशित होने प्रारंभ हुए तो साहित्यिक क्षेत्र में जैसे तहलका सा मच गया। यहीं से ‘रिपोर्ताज-लेखन की परंपरा-सी भी चल पड़ी।
रांगेय राघव का तूफानों के बीच रिपोर्ताज हिन्दी साहित्य का ऐसा अमूल्य संग्रह है जिसने बंगाल के भीषण अकाल से उत्पन्न वहाँ के जनजीवन को हर प्रकार से छिन्न-भिन्न कर देने वाली परिस्थितियों का अत्यन्त संवेदनात्मक वर्णन किया है। रांगेय राघव ने सच्ची पत्रकारिता का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए उस संकट की स्थिति में प्रशासन की स्वार्थपरता, गरीब मजदूरों, किसानों और जनजीवन के प्रति असंवेदनशीलता को उजागर किया है।तब उन्होंने वहाँ के जनमानस से सम्पर्क किया तथा उनके दुखों और कष्टों को आत्मीयता से सुना। इन रिपोर्टों की स्पष्ट और सीधी सहज भाषा को पढते हुये ये कौन कहेगा कि ये वही लेखक है, जिसकी कृतियों पर छायावादी भाषा में लिखे जाने का आरोप है? दरअसल भाषा कैसी हों, अक्सर यह रचनाएँ याकि विधा तय करती हैं, न कि स्वयं कोई लेखक?
इस रिपोर्ताज में लेखक का प्रशासन द्वारा कुछ ना किये जाने का आक्रोश दिखाई देता है। वो लिखते हैं कि-‘ बंगाल की टैक्सटाइल मिल कोयले की कमी के कारण बन्द हो गई, जिसके कारण 3500 मजदूर बेकार हो गए। परन्तु सरकार ने इस बात की कुछ चिन्ता नहीं की।’ शिद्धिरगंज में अकाल से हुई भयावहता की पराकाष्ठा थी। बस्ती में कोई घर नहीं बचे थे। घरों के स्थान पर वहाँ पर घास के बीच केवल मिट्टी के ढूह रह गये थे। एक पेड़ की छाया में चौदह कब्रें थीं, वहाँ की परिस्थितियों से अभ्यस्त हो चुका एक लड़का विरक्त भाव से चिल्लाया “बाबू, एक-एक में दो-दो, तीन-तीन हैं। एक-एक में दो-दो तीन -तीन।’” (अदम्य जीवन )’
‘तीस-चालीस लोग रोज मरते थे। ढाका की मलमल बनाने वाले जुलाहे मर रहे थे। केवल दो-चार घरों में ही ढाका की साड़ियाँ बुनी जा रही थीं। कपड़े बनाने वालों के पास स्वयं के लिए कपड़े नहीं थे। भूख के कारण तीन-साढ़े तीन सौ लोग गाँव छोड़ कर चले गये। चावल मह्ंगे होने के कारण कुछ लोग एक वक्त केवल शकरकंद खाकर निर्वाह करते थे। हिन्दू और मुसलमानों के अलग-अलग लंगरखाने थे लेकिन उनमें पर्याप्त खाना नहीं मिलता था। अब शिद्धिरगंज में सन्नाटा था। अधिकांश घरों की टीन की छतें उड़ गईं थीं या लोगों ने भूख मिटाने के लिए बेच दी थीं।‘
‘एक जगह मिट्टी की लगभग पाच सौ के करीब कच्ची कब्रें थीं और यह भी निश्चित नहीं था कि एक-एक में एक ही आदमी दफ़नाया गया हो। वो भी कपड़ा ना होने से बिना कफ़न के दफ़नाए गए। गाँव में इतनी कब्रें हो गई कि चलने की जगह नहीं थी। लोगों को कब्रों पर चलकर जाना पड़ता था।“
-‘बीमार लोगों के लिए जो सरकारी दवाखाना था, वहाँ न तो दवाई ठीक से थी और न मरीजों पर ठीक ध्यान दिया जाता था लेकिन फिर भी प्रशासन ने दावा किया कि‘”हमने 75 फीसदी आदमियों की हालत सुधार दी है।’” (अदम्य जीवन )
इस विषम परिस्थिति में रांगेय राघव बंगाल के लोगों की जिजीविषा से बहुत प्रभावित थे। उन्हें गर्व था कि लोग अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहते थे। उस कब्रों से घिरे गाँव में लोग चेतनाशून्य नहीं हो गए थे, अपितु अभी भी उनमें जीने की लालसा थी। संकट का सामना करने का साहस था। जिसका उन्होंने अनेक स्थान पर वर्णन किया है- “यह अकाल जो गुलामी है, जो एक भीषण आक्रमण है, उसे हमें आस्तीन के साँप की तरह कुचलकर खत्म कर देना होगा। ”
बाँध भाँगे दाओ रिपोर्ताज के प्रारम्भ में रांगेय राघव ने नदिया जिले के एक कस्बे, कुष्टिया की अकाल प्रभावित भयावह स्थिति का वर्णन किया है। अकाल के समय में कुष्टिया गाँव में लोगों को खाना दुर्लभ था। परिवारों में असहायता के कारण अपराध बढ़ गए थे। अनेक पुरुष अपने परिवारों को उनके हाल पर छोड़ कर चले गए। भूख के कारण बच्चे मर गये। औरतों को पैसों के लिए अपने शरीर का सौदा करना पड़ा।
लेखक को लगता है मानो वे औरतें उससे पूछ रही हैं कि, “क्या हमें मर जाना चाहिये था? ”वो लिखते हैं- ‘लोग घर में मरते थे। बाज़ार में मरते थे। राह में मरते थे। जैसे जीवन का अन्तिम ध्येय मुट्ठी भर अन्न के लिए तड़प-तड़पकर मर जाना ही हो । बंगाल का सामाजिक जीवन कच्चे कगार पर खड़ा होकर काँप रहा था। और वही लोग जो अकाल के ग्रास बन रहे थे, मरने के बाद पथों पर भीषणता के पगचिन्ह बने सभ्यता पर, मानवता पर भयानक अट्टहास-सा कर उठते थे।”
बंगाल में उस समय फैल रही बीमारियों के बारे में भी रांगेय राघव ने विस्तार से लिखा है। मलेरिया, चेचक और चर्मरोग आदि बीमारियों से लोग मर रहे थे परन्तु प्रशासन की तरफ से कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा था। लोगों को सरकारी दवाईयाँ नहीं मिल रहीं थीं। इंजेक्शन लगने थे परन्तु फौज के आदमी पैसे देने के बाद भी इलाज नहीं करते थे। बहुत लोग बिना इलाज के मर गए। चिकित्सक दल जब दवाईयाँ और इंजेक्शन लेकर पहुँचा तो बंगाल के निराशा में डूबे लोग आशान्वित हुए। आरम्भ में वहाँ के हताश लोग चिकित्सक दल से टीका लगवाने के लिए तैयार नहीं होते थे क्योंकि उनके बहुत से लोग मर चुके थे। सबको यह शिकायत थी कि डॉक्टर पहले आ जाते तो इतने लोग नहीं मरते।
किसानों के प्रति प्रशासन की असंवेदनशीलता और अन्याय को भी लेखक ने इस रिपोर्ताज में दर्शाया है। गाँव-कमेटी और यूनियन-बोर्ड के मेम्बर अपने रिश्तेदारों को और जान-पहचान के लोगों को ही कार्ड देते थे। चावल का दाम बढ़ गया था और वह भी चोरी से मजदूरों की पहुँच से दूर ले जाया जा रहा था। रांगेय राघव समाज के प्रत्येक वर्ग के संघर्ष से प्रभावित थे। इन परिस्थितियों में वह समाज की स्वार्थपरता से उद्विग्न हो जाते हैं। ‘
एक रात’ में वह लिखते हैं -“क्यों नहीं समझता मनुष्य कि अपना स्वार्थ जो सबका स्वार्थ हो? क्यों वह परम्परा से स्वार्थ को व्यक्ति के संकुचित रूप में बाँधता रहा है?” वहाँ के लोग अफसरों से नाराज थे व प्रशासन और महाजनों के शोषण से त्रस्त। वे एक होकर अन्याय के खिलाफ़ लड़ना चाह्ते थे, वे झुकना नहीं जानते थे और उनको अपने संघर्ष का फल भी मिला। रांगेय राघव एक संघर्षशील युवक के कथन का रिपोर्ताज ‘बाँध भाँगे दाओ में उल्लेख करते हैं- “टेक दिये घुटने नौकरशाही ने, झुका दिया सर जनबल के आगे। कौन है जो हमें झुका सकेगा। हम बंगाली कभी भी साम्राज्यवाद की तड़क-भड़क से रोब में नहीं आये। हमें गर्व है बाबू हम भूखे रहकर भी अभी मरे नहीं हैं।”
कहीं-कहीं’ उनके इन चित्रणों में बंगाल के दु:ख के साथ प्रकृति-चित्रण का समन्वय भी मिल जाता है। कभी-कभी ऐसा भी लगता है जैसे बंगाल के दु:ख से व्यथित लेखक को प्राकृतिक सौन्दर्य और उसकी स्थिरता में आत्मिक शान्ति प्राप्त होती है और जब भी वह बंगाल के प्राकृतिक सौन्दर्य पर मुग्ध होता है तो प्रत्येक बार उसे प्रकृति में वेदना का आभास होने लगता है। जैसा कि ‘बाँध भाँगे दाओ’ के इस चित्रण में देखा जा सकता है- “साँझ घिर चली थी। बादल झूम उठते थे जैसे लुढ़कने के अतिरिक्त और कोई काम ही न था। घास फरफरा रही थी। समस्त वातावरण में एक कल्लोल लहरा रहा था जैसे वेदना से भरे श्वास बंशी में गूँज उठते हैं।” ऐसे में लेखक का मन बार-बार प्रकृति की ओर जाता तो है, परन्तु ‘बंगाल का दु:ख’ उसे प्र्कृति में सुनाई देने लगता है- “ग्राम के सघन वृक्षों में अंधेरा छिपा बैठा है। धुंधली चाँदनी अपने पंख फैला्ये जैसे अनन्त आकाश में उड़ जाने के लिये तैयार बैठी है।” (एक रात ) लेखक अंधेरे में चाँदनी रूपी पक्षी के उड़ने की कल्पना से कुछ अच्छा होने की संभावना ढूँढता है।
रांगेय राघव को प्रकृति भी ऐसे में उदास प्रतीत होती है। वो लिखते हैं- “ हरीपुर गाँव जो घनी छाया में ऊँघता-सा, मचलता-सा धूप और छाया में, अल्हड़-सा, आज सु,नसान पड़ा था; अपने आप पर लज्जित एक व्याकुल विधवा की आह-सा।” (एक रात ) दूर से बंगाल में हरियाली और ताल दिखने पर भी लेखक को वहाँ की प्रकृति में दु:ख का ही अनुभव होता है। ‘बाँध भाँगे दाओ’ रिपोर्ताज में कुष्टिया गाँव के वर्णन के संदर्भ में वह लिखते हैं- “कितना-कितना विश्राम। कितनी-कितनी शान्ति, जीवन का अपनापन उस नीरवता में बार-बार जैसे सुबक रहा हो, भीख माँग रहा हो, जहाँ प्यार, प्यार रह कर भी दुराशा था, अलगाव था, हाहाकार था… शान्त घर चाँदनी में सो रहे थे, लेकिन मानव को इतना अवकाश, इतना समय ही नहीं था कि वह भी पानी पर बहती चाँदी सोने की झिलमिल चादरों से आह्लादित होता।”(बाँध भाँगे दाओ ) कवि हृदय, संवेदनशील और बंगाल की इस त्रासदी से संतप्त लेखक दुख से बोझिल होकर प्राकृतिक सौन्दर्य में शान्ति ढूँढ़ने का प्रयास करते तो दिखाई देते हैं।
लेकिन सम्पूर्ण वातावरण का विरोधाभास उनको चैन नहीं लेने देता। कहीं प्रकृति की सुन्दरता में वेदना, तो कहीं विद्यार्थियों की हँसी परन्तु आँखों में एक भय और उदासी… और कहीं भी दीपक बिना निश्शंक न जलता हुआ। डॉ० रागेय राघव एक उत्कृष्ट चित्रकार भी थे। इन रिपोर्ताजों में से पेंटिंग के से दृश्य उभरकर सामने आते हैं। ये अलग बात है कि कहीं भी इनके रंग शोख और चटख नहीं, सब जगह धूसर और उदास हैं। जैसे दुखो ने सोख्ते की तरह जीवन और प्रकृति के सारे सुंदर रंग सोख लिए हों।
यूं तो अपनी सृजन-यात्रा के बारे में रांगेय राघव ने स्वयं कोई ख़ास टिप्पणी कभी नहीं की। ख़ासकर अपने प्रारंभिक रचनाकाल के बारे में, लेकिन एक जगह लिखा मिल ही जाता है-‘‘चित्रकला का अभ्यास कुछ छूट गया था। 1938 ई. की बात है, तब ही मैंने कविता लिखना शुरू किया। संध्या-भ्रमण का व्यसन था। एक दिन रंगीन आकाश को देखकर कुछ लिखा था। वह सब खो गया है … और तब से संकोच से मन ने स्वीकार किया कि मैं कविता कर सकता हूँ। ‘ इतना ही कह सकता हूँ कि चित्रों से ही कविता प्रारंभ हुई थी और एक प्रत्रकार की बेचैनी उसके मूल में थी। ‘
रांगेय राघव की एक कविता है-
जब मयकदे से निकला मैं राह के किनारे
मुझ से पुकार बोला प्याला वहां पड़ा था,
है कुछ दिनों की गर्दिश, धोखा नहीं है लेकिन
इस धूल से न डरना, इसमें सदा सहारा।
मैं हार देखता था वीरान आसमाँ को
बोले तभी नजूमी मुझसे; नहीं भटक तू
है कुछ दिनों की गर्दिश, धोखा नहीं है लेकिन
जो आँधियों ने फिर से अपना जुनूँ उभारा।
मैं पूछता हूँ सब से गर्दिश कहाँ थमें
जब मौत आज की है, दिकल है ज़िन्दग़ी
धोखे का डर करूँ, क्या रुकना न जब कहीं है
कोई मुझे बता दो, मुझ को मिले सहारा!
जिंदगी की क्षणभंगुरता के प्रति जो भाव इस कविता में व्यक्त है वो उनके जीवन और जीवन- दर्शन में सम्पूर्णता में मिल जाता है। शायद इसीलिए वो टूटकर जीये, टूटकर और डूबकर लिखा और इतना कुछ लिख सके जोकि एक भरे-पूरे और लंबे जीवन को जीनेवाले व्यक्ति के लिहाज से भी अविश्वसनीय है, लेकिन उन्होंने अपने छोटे से जीवनकाल में इसे संभव और सच कर दिखाया।
उनकी पत्नी सुलोचना रांगेय राघव ने अपने संस्मरण में लिखा है कि कैसे उन्होंने जिद करके शादी के तुरंत बाद उन्हें आगे की शिक्षा के लिए खुद से दूर शहर भेज दिया था। नयी -नयी शादी थी, सो उन्हें पति से दूर रहना बिलकुल भी नहीं भाता था, पर मन मारकर वो यह करती रहीं कि यह उनके पति की इच्छा थी। उनके गुज़र जाने के बाद यही शिक्षा उनके जीवन-यापन, स्वाबलंबन और नन्हीं सी बिटिया के पालन-पोषण का सबब बनी।
जैसे उन्हें यह सबकुछ पहले से ज्ञात था..और इसीलिए…? क्या अपने जीवन, लेखन और अपने नाम की तरह मौत को भी उन्होने खुद से ही चुना था? जीवन का सुदीर्घ होना उनके लिए उतना मायने नहीं रखता था, जितना सार्थक होना?
उन्होंने अपनी सारी किताबें पूरी की, सिवाय एक उपन्यास, अपने अंतिम उपन्यास ‘आखिरी आवाज़’ को छोड़कर। वह भी कुछ इस कारण कि वे कई महीनों तक मौत से जूझते रहे और…रांगेय राघव का निधन 12 सितंबर सन्1962 को बंबई के ‘टाटा मेमोरियल अस्पताल’ में ब्लड-कैंसर की वजह से हुआ था, जहाँ रहकर वे अपनी अस्वस्थत्ता का इलाज करा रहे थे।
वे अकेले लेखक थे जिन्होंने लेखन में कभी किसी से समझौता नहीं किया। जिंदगी में कभी किसी से कोई अहसान लेना चाहा हो। दुख और सुख की चाहे जिन भी स्थितियों से गुजरे हों वे पर कहते हैं- उनके होंठो की वह मुस्कान कभी नहीं गयी ।

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