परिवारवादी शासन-प्रणाली के पक्षधर कभी-कभी यह तर्क भी देते हैं कि डॉक्टर का बेटा जब डॉक्टर बन सकता है, ऐक्टर का बेटा ऐक्टर बन सकता है, बिजनेसमैन का बेटा बिजनेस संभालता है, तो राजनेता का बेटा या बेटी राजनीति में भाग क्यों न ले?—भाग ले सकते हैं । मगर बात यहाँ पर हो रही है एक ही वंश के ‘भद्रजनों’ का पीढ़ी-दर-पीढ़ी सत्ता पर काबिज होने की ‘जुगत’ से।
कहने की आवश्यकता नहीं है कि राजनीति में गहराती जा रही इस परिवारवादी प्रवृत्ति को अगर रोका नहीं गया तो वह दिन दूर नहीं जब हमारे लोकतंत्र की मूल-भावना का अवसान हो जाएगा और एक बार फिर लोकशाही के भीतर ही राजशाही के बीज पनपने शुरू हो जाएंगे।
कल तक परिवारवाद को कोसने वाले नेता भी आज अपने बच्चों को परिवारवाद की ओर उन्मुख कर रहे हैं।सभी पार्टियां ऐसा कर रही हैं। दरअसल,”हमाम में सभी नंगे है”। लोककल्याण की अवधारणा अब परिवार-कल्याण की अवधारणा में बदल रही है। ये अवधारणा संवैधानिक भावना के खिलाफ है, संविधान के विपरीत है। एक पार्टी जिसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक ही परिवार चलाता रहे, पार्टी की सारी व्यवस्था परिवारों के पास ही रहे, यह व्यवस्था स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी कतई नहीं है।
दरअसल,भारतीय राजनीति में परिवारवाद एवं वंशवाद का बोलबाला तब तक रहेगा जब तक कि इसका विरोध भीतर से न किया जाए। भारतीय जनता को चाहिए कि वह सामाजिक एवं शैक्षिक दृष्टि से जागरूक बने जिससे कि वह राजनीतिक दलों के नीतियों को समझते हुए गलत नीतियों का विरोध करे।राजनीतिक दलों के नेता नैतिक रूप से परिवार के सदस्यों का निष्पक्ष मूल्यांकन कर फैसला करें कि संबंधित सदस्य क्या राजनीति के योग्य है या नहीं? अगर योग्य है तो उसे प्रोत्साहित करें अन्यथा नहीं। परिवार-पोषित राजनेताओं को भी यह समझना चाहिए कि परिवारवाद का लोकतंत्र में तब तक कोई स्थान नहीं हो सकता जब तक कि इसे चलाने वाली आम जनता की निगाहों में उस परिवार की साख शंका के घेरे से परे न हो।भारतीय मतदाता अब उत्तरोत्तर जागरूक होता जा रहा है।
डॉ. शिबन कृष्ण रैणा
+918209074186