जन्म दिवस 25 जनवरी के अवसर पर
पंडित बलराम प्रसाद मिश्र द्विजेश हिन्दी साहित्य के रीति काल के अंतिम प्रतिनिधि कवि थे। वह काव्य धारा की सारी शक्तियों को उत्कर्ष पर पहुंचाते हुए बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक साहित्य सृजन करते रहे। उनके शरीर छोड़ने तक हिन्दी साहित्य में तीसरा सप्तक आ चुका था। उन्होंने अपनी काव्य रचना में देव और पद्माकर का ही रंग बनाए रखा। अपनी हिन्दी की रचनाओं के अलावा द्विजेश ने उर्दू और फारसी में शेरो-शायरी और गजलें भी लिखीं।
प्रतिष्ठितसरयूपारीण जमींदार परिवार में द्विजेश का जन्म माघ कृष्ण 11, संवत 1929 विक्रमी तदनुसार 25 जनवरी 1886 ई. को बस्ती उत्तर प्रदेश के निकट मिश्रौलिया नामक ग्राम में हुआ था। बस्ती राज परिवार से इनका निकट का नाता था। संस्कृत, संगीत और साहित्य की खुशबू मानो इनके रग-रग में बसी थी। औपचारिक स्कूली शिक्षा का चलन उन दिनों बहुत कम होने के बावजूद तत्कालीन प्रथा के अनुसार उन्होंने हिन्दी, संस्कृत, उर्दू, फारसी तथा सामान्य गणित की शिक्षा ग्रहण की थी। नगर पालिका बस्ती रोडवेज चौराहे से पुरानी बस्ती जाने वाले मार्ग को उनके नाम पर द्विजेश मार्ग का नामकरण भी किया है। पाण्डेय स्कूल के समाने द्विजेश भवन भी उनके शुभ चिन्तकों ने बनवा रखा है। यहां कभी कभार साहित्यिक कार्यक्रम भी होते रहे हैं।
प्रमुख कृतियां:-
1. अप्रकाशित गजल संग्रह हस्ती:-
शेरो-शायरी से जुड़ा संग्रह ‘हस्ती’ आज तक नहीं छप सका है।
2.द्विजेश दर्शन:-
काव्य रचना संग्रह द्विजेश दर्शन उनका एक मात्र संग्रह रहा है। किशोरावस्था से ही द्विजेश ने काव्य रचना शुरू कर दी। ब्रजभाषा कविता की मुख्य धारा में थी। रचनाओं में वह एक सिद्धहस्त कवि के रूप में दिखाई देते हैं। वे रचनाएं लिखते गए लेकिन उनके संयोजन और प्रकाशन की ओर द्विजेश का ध्यान कभी नहीं रहा। वह प्रकाशन के प्रति बहुत लापरवाह रहे। उनके पुत्र प्रेमशंकर मिश्र ने प्रयास करके ब्रजभाषा में रचित कविताओं का संग्रह द्विजेश दर्शन का कुछ अंश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सौजन्य से प्रकाशित कराया है। जो कुछ द्विजेश दर्शन में छप सका वह रचनाओं का मात्र एक चौथाई हिस्सा ही है।
द्विजेश दर्शन की भूमिका में श्री नारायण चतुर्वेदी ने लिखा है कि इनके लेखन की बात ही कुछ और है। अपने व्यक्तिगत काव्य प्रेम के कारण अपने आसपास के बहुसंख्य लोगों को साहित्य से जोड़ने का काम द्विजेश ने किया है। डा.रसाल ने द्विजेश के बारे में कहा था कि, शब्द उनके दास थे। जबकि डा. संपूर्णानंद ने लिखा कि, ब्रजभाषा के बुझते दीपक के इन पतंगों के प्रयत्न मेरे मन में आदर का भाव उत्पन्न करते हैं। मेरा ऐसा विश्वास है कि द्विजेश की काव्य रचनाओं में पाठक को तृप्ति का एहसास होता है। चेहरे मोहरे से किसी मुगल बादशाह की झलक देने वाले द्विजेश वेशभूषा और खानपान की शैली के नाते भी मशहूर थे। वह भारत की सभ्यता यात्रा में एक पड़ाव के प्रतिनिधि थे।
साहित्यकारों द्वारा प्रशंसाः- डा.संपूर्णानंद, डा.वागीश शुक्ल, डा. अरुणेश नीरन, श्रीनारायण चतुर्वेदी सहित तमाम लोगों ने अपने संस्मरणों में द्विजेश द्वारा रचित ब्रजभाषा काव्य को शब्द चमत्कार, ऊंची उड़ानों वाले अलंकार और अक्षर मैत्री का अद्भुत संयोजन करने वाला काव्य साहित्य बताया है। भक्ति भाव की प्रधानता वाले काव्य में उन्होंने अनूठी कल्पनाओं के साथ एक खास तरह के रंगारंग संयोजन को पिरोया है।
द्विजेश दर्शन की भूमिका में श्रीनारायण चतुर्वेदी ने लिखा है कि इनके लेखन की बात ही कुछ और है। अपने व्यक्तिगत काव्य प्रेम के कारण अपने आसपास के बहुसंख्य लोगों को साहित्य से जोड़ने का काम द्विजेश ने किया है। डा.रसाल ने द्विजेश के बारे में कहा था कि, शब्द उनके दास थे। जबकि डा.संपूर्णानंद ने लिखा कि, ब्रज भाषा के बुझते दीपक के इन पतंगों के प्रयत्न मेरे मन में आदर का भाव उत्पन्न करते हैं। विश्वास है कि द्विजेश की काव्य रचनाओं में पाठक को तृप्ति का एहसास होता है। चेहरे मोहरे से किसी मुगल बादशाह की झलक देने वाले द्विजेश वेशभूषा और खानपान की शैली के नाते भी मशहूर थे। वह भारत की सभ्यता यात्रा में एक पड़ाव के प्रतिनिधि थे।
प्रेमशंकर मिश्र काअभिमत संस्मरण:-
पं. बलराम प्रसाद मिश्र द्विजेश के लिए उन दिनों देश के जाने माने दिग्गज कवि कलावंत महीनों मेरे यहाँ ठहरते। सुबह- शाम अखंड काव्य और संगीत गोष्ठियाँ हुआ करती थीं। महाकवि जगन्नाथदास रत्नाकर पं. अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध, पं. रमा शंकर शुक्ल रसाल के अतिरिक्त रीवां के महाकवि ब्रजेश, पं. बालदत्त, यज्ञराज, विचित्र मित्र ऐसे आचार्य कवि, अजीम खाँ, झंडे खाँ ऐसे उस्ताद यनायत खाँ ऐसे सितारवादक, उनके पुत्र उस्ताद अजीम खाँ साहब ऐसे संगीतज्ञों की सन्निधि मुझे बचपन से प्राप्त हुई है। आज के आफताबे गजल उस्ताद मेहंदी हसन और सितार नवाज उस्ताद शाहिद परवेज ऐसे आज के विश्व विश्रुत कलाकारों का बचपना अपने पिताओं के साथ मेरे साथ गिल्ली गोली खेलते बीता है। इस तरह साहित्य और संगीत मेरी घुट्टी में रहा। विरासत में मुझे काव्य रचना और मेरे अग्रज और उनके पुत्र को सितार वादन मिला। सन 1959 में पिता का तिरोभाव हुआ।
डॉ. मुनिलाल उपाध्याय ‘सरस’ जी द्वारा मूल्यांकन:-
बस्ती जनपद के स्वनामधन्य साहित्यकार डा. मुनिलाल उपाध्याय ‘सरस’ ने बस्ती के छन्दकारों का साहित्यिक योगदान भाग 1 में पृष्ठ 91 से 111 तक द्विजेश जी का परिचय काव्य तथा शैली का वैज्ञानिक विवरण प्रस्तुत किया है। उन्होंने वन्दना, भक्ति दर्शन, गंगा गरिमा वर्णन, श्रृंगार खण्ड, नखशिख वर्णन, विविध प्रकरण तथा द्विजेशजी के रहन सहन को बड़े मार्मिक ढ़ंग से प्रस्तुत किया है। अपने विवरण के अन्त में डा. सरस जी ने लिखा है- ‘द्विजेशजी ब्रज भाषा श्रृंखला के अन्तिम सशक्त कवि थे। केशव व पद्माकर की परम्परा जिसे रंगपाल जी ने बस्ती के मंच पर स्थापित किया था द्विजेशजी ने अपने पाण्डित्य से गौरव दिया।….श्रृंगार के साथ साथ मानव जीवन के व्यवहारिक पक्ष पर लेखनी चलाकर द्विजेश जी ने यदि कविता की भाव भूमि को मानवीय चेतना दिया तो राष्ट्रीयता का मंत्र फूंक करके परतंत्र देश वासियों को स्वतंत्रता का संदेश भी दिया। द्विजेश जी की काव्यधारा वह मन्दाकिनी है जहां सन्त समागम का संगम और त्रिवेणी के पावनत्व का उद्गम है। 85 वर्षों तक द्विजेश जी ने बस्ती की धरती को निहारा और अन्ततः मनीषी साहित्य सूर्य अस्ताचल पहुंच साहित्य से विराम लिया।‘
द्विजेश दर्शन कविता संग्रह :-
भक्ति भाव की प्रधानता वाले काव्य में उन्होंने अनूठी कल्पनाओं के साथ एक खास तरह के रंगारंग संयोजन को पिरोया है। अपनी कविता में भगवान शिव को उलाहना देते हुए उन्होंने लिखा है कि यदि भोलनाथ ने उनका उद्धार नहीं किया तो वे पार्वती की अदालत में भक्ति को अपना वकील बनाकर मुकदमा लड़ेगें।
डिगरी इजराई में न तारिहौं दिगंबर तौं,
कोष करुना को कम कुरक करावैंगे।।
कुछ और छन्द नमूना स्वरूप प्रस्तुत है-
हाजिर हैं रावरे हजूर मजबूर ह्वै के,
मुक्ति- जुक्ति आपनी सु याही मन मौंजैंगे।।
चरन-सरोजैं जगदीस के धरेंगे सीस,
ऐसो ईस पाय आपदा मैं कहा ओजैंगे?
खातिर जमा हो खूब खातिर करेंगे हम,
रावरे जी खातिर अखातिरी न जोजैंगे।।
आप रोज रोजैं चहो और दीन खोजैं,
पै-‘द्विजेश’ दीनबंधु अब दूसरो न खोजैंगे।।
ए हो नाथ हौं तो कछु रोज तें सुनी है ऐसी,
दान असनान के कितेक फल पाए हैं।।
सोई जिस जानि मानि रावरे दया को ढ़ग,
दान-पात्र सो तेहिं ‘द्विजेश’ ठहराए हैं।।
कुस है कुकर्म, अघ अच्छत विपत्ति वारि,
दान द्रव्य दीरघ दिनाई दरसाए हैं।।
लागो प्रन पर्व को सुनी है कृपा सिंधु बीच,
कृपा सिंधु यातें हौं अन्हान आजु आए हैं।।
वंदना
धन्य तू प्रसिद्ध सब सिद्धिनि की सिद्धि, नबौ निद्धिनि की निद्वि तातें तौ सनिद्ध थामी मैं
परम पवित्र इष्ट मित्र तू त्रिदेवन की,
पेखि तेरो चित्र औ चरित्र चार धामी मैं।।
तोहिं जानि जाह्वी जननि जग-जीवन की,
पीवन मैं ज्यों पियूष पेखि अभिरामी मैं।।
भोसों के कुपथ गामी कीनी तैं सुपथगामी,
तातेंहे विपथ गामी। करत नमामी मैं।।
अवतरण
गेरी गिरापति की गिरी है जो गिरीस सीस,
हल सों हिमंचल के हिय मैं हली गई।।
ह्वाँते चलि मचलि मचावति जु घोर सोर,
तोरि फोरि ढोकनि को ढाँकति ढली गई।।
पहुँची प्रयाग कै ‘द्विजेश’ कल-कौतुक यों,
विंध्य-कासिका के प्रेम पथ यों पली गई।।
फेटति फवनि सीम मेटति सरस्वति को,
भानुजा को भेंटति समेटति चली गई।।
गुण-गान
जेतेआदिबसतअसाघ बसुधा मैं ब्याधि,
होते ते सुसाध देती जो पराग मूठी तैं।।
जाख से जलोदर कराल कमलोदर पै,
काठ से कठोदर पै कालिका सी रूठी तैं।।
अधम अधंगे मति भंगे जो अपंगे गंगे,
होत चट चंगेयामैं सत्य है न झूठी तैं।।
पातक पितज्वर विपत्तिविपमज्वर की,
काल से कफज्वर की औपधि अनूठी तैं।।
2
भक्ति पै भगीरथ के आई भगी रथ संग,
धाम-नृप तीरथ के धाई धन्य धारती।।
विधि के कमंडल कीं हरि पौं प्रचंड ल की,
ईस-सीस मंडल की सुषमा सँवारती।।
जोम जम जारती उजारती पुरीजम की,
चित्रगुप्त पै ‘द्विजेश’ गजब गुजारती।।
आरति उतारती तु पापिनैं पखारती, न
अम्बा जिन्हैं तारती तु गंगा तिन्हें तारती।।
3
आई भूमि भुपति भगीरथ की ल्यायी हुती,
छाई हुती देखि तोहिं देबैं तरसत है।।
छीर-छबि देखि तौ छकित छीर सागर हू,
छार लखि आपनो पछार परसत है।।
रोज तौ ‘द्विजेश’ रोजगार रंगरेजी देखि,
राव रंक तातें लै सरोज सरसत है ।।
कैसहू कुरंगे अति पापन सों रंगे सोऊ,
गंगे रंगे रावरे सुरंगे दरसत है।।
4
कोऊ अंध अधीन ह्वै अधोमति के,
अध जल देत ही जु आधो सांस हुँचिगो।।
जम-गनजान्यो पै न जान्यो जाह्वी को उत,
चट-जम जातन की चाहना उमुचिगो।।
ज्यों ही चल्यो त्यों ही उत गेरत ही गंग गरे,
सिगरे सरीर सक्ति सक्ति मैं समुचिगो।।
जौलों जम-प्रेम पातकी लौं पहुँचन चाह्यो,
तौलों वह पापी संभु पुर मैं पहुँचिगो।।
5
आचमन कीने आँच मन की समन होत,
साँच मन तौ ‘द्विजेश’ जाँचमन कीने तें।।
कीनें तें सँकल्प करै गंग तू तो काया कल्प,
जीवै अल्प जीवी सदा कलपन कीने तें।।
तेरे दरसन जम दरस न होत फेरि,
परसि न पावै पाप परसन कीने तें।।
अरपन कीने दरपन सों दिखात ब्रह्म,
नरपन जात तोमैं तरपन कीने तें।।
6
द्रुम मैं जु देखी कला कल्प कलपद्रुम की,
सब सबके जी अनुमान ऐसो भरिगो।।
कोऊ कहै वासन विरंचि तें गिरयो है बुन्द,
कोऊ यों कहै ‘द्विजेश’ जन्हु जंघा दरिगो।।
हरि-पद-पंकज को परिबो पराग कोऊ,
कोऊ कहै यों जटा गिरीस जू को गरिगो।।
मेरे जान गंग तेरे तारे काहू पातकी को,
भीनो चार पद को पसीनो कहूँ परिगो।।
7
होती जो न रंचिभरि तू विरंचि वासन मैं,
तो वे जग सासन को आसनै क्यों परते।।
तैसोई तहाँतें जो न गिरती गिरीस सीस,
वेऊ ईस मुक्ति वकसीस कैसे करते।।
लाल -काज द्रौपदी केकूल के दुकूल ही मैं,
श्रुति द्रुति सों ‘द्विजेश’ सूल कैसे हरते।।
काज यों कुविंद को गोविंद करिपाते कहा,
जो तौ बिंदु पग अरविंद मैं न धरते।।
8
आते ही जु प्रथमैं उदेसकेस मुंडन को,
जोयों मरयो मानो पाप अंगी जौन अंगा मैं।।
तापै पुनि न्हाइबे कों पूजा विधि पाइबे कों,
प्रोहितैं दिवाइबे को दान देन दंगा मैं।।
माह के महत्व ही तैं आपनो हू दै महत्व,
जो ‘द्विजेश’ चारहू पदारथ प्रसंगा मैं।।
मकर-अमा के मिस पाप ताप लूटिवे कों,
मानों इमि मकर भरयो है मातु गंगा मैं।।
9.
दीननि की संगी दीनता जो अरधंगी रूप,
तैसो पतितान पतिताहू संग धरती।।
जाते जब तेरे तीर न्हाते तौ ‘द्विजेश’ नीर,
तू तिन्हें सपतनीक प्रन सों पखारती।।
एकैं अति मोही एकैंअति निरमोही रूप,
मातु-सासु धर्म यों दुहूँ पै निरधारती।।
जातें धन्य धिक दोऊ किन मातु गंगे तोंहि,
पुत्रैं जो दुलारती पतोहुनि को मारती।।
10.
जैसी तूजननि जग जान्हबी ह्वै जात्रिन की,
लाल आरोहावरोह जगजाकी यहीखेती है।
जाको जीव जातरूपजायारूपजीवनी त्यों,
सो तातें जनित धर्म कर्म सों सचेती है।।
पुत्र सों अधिक प्रिय होते जो पितामही के,
सोई दृश्य गंग मातु चार फल देती है।।
होते जबै गोते पातकीन के जु पोते रूप,
लैलै अंक ताको गंग चूमि चूमि लेती है।।
11
जाको आदि नाम गोसुपद हीतें धाम- ग्राम,
जो ‘द्विजेश’ अति अमिरामी ह्वै अनिंद के।।
जो गोलोकनाथ गोकुलेस तिमि गोपीनाथ,
त्यों गोपाल गोबरधनैं सों सुर-वृंद के।।
जद्यपि इतै गो वृंद ज्यों रविन्दैं अरविंद,
तौहूँ हरि प्यासे गंग तेरे बारि-विंद के।।
यानें केवलै गोविंद इमि करि पाते कहा,
होतो जो न तौ गो बिंदु पद मैं गोविंद के।।
12
जिन बसि तेरे तीस रेह कैसी लै सरीर,
वीर-वीर सेना से ‘द्विजेश’ जो सजक से।।
घाट वो कुघाट जो बिलोकते बटोही बाट,
जो विराट ठाट ठाटते ह्वै बेधरक से।।
देखते दुंखी जो दीन पेखते जु पापी पीन,
मलि मलि धोइ मन होते स्वच्छ बक से।।
धन्य ऐसे तेरे रज रजत समूह से जो,
तेरे राज तीरथ मैं राजते रजक से।।
13
ओममयी प्रकृति सुकृति सीमा सोममयी,
जोम मयी जम पै तू होम की अँगारा है।।
तेरो चित्र जो विचित्र सो ताको चरित्र ऐसो,
चित्र-चित्रगुप्त काटिबे को तौ किनारा है।।
चार पद देनी स्वर्ग वर्ग की निसेनी तुही,
देनी जो ‘द्विजेशी’ ऐसी तेरो आरपारा है।।
एक धारा अघ पै दुधारा दोप दारिद पै,
तैसो तिहूँ तापन पै त्रिविधि त्रिधाराहै।।
14
तू ही एक नद्द अनहद्द ऐसी आनंद की,
जो ह्वै के सनद्व प्रनवद्ध विरमैया तैं।।
मातु धर्म धारन तें अधम उधारन तें,
सब की सुधारन तें मरन समैया तैं।।
सो याको प्रतच्छ लच्छ सगर सपूतन लौं,
कीनी तिन्हैं पूतन सों पुनि जनमैया तैं।।
धन्य वे भगीरथ कि जाके रथ संग भागी,
भई धन्य-भाग भागी भागीरथी मैया तैं।।
15
जोग को जगावति भगावति विषय भोग,
विष वगरावति भुजंग विपधर की।।
जोवति न सोवति भिजोवति जरनि ज्वाल,
खोबति खराबी है ‘द्विजेश’ गर-गर की।।
काम को नआने देति क्रोधजी नजाने देति,
देतिना सतानेलोभ मोह के लहर की।।
हर हरि विघ्न सबै हर-हर बैन बोलि,
हर – हरजाम पाहरू है हरहर की।।
16
होती जो न विधि जल जंत्र मैं स्वतंत्र तो तू,
नृप-तप तंत्र पै गिरीस सीस जाती ना।।
होते जो जरे न सूनु सिगरे सगर के तौ,
सागर लौं जाय तिन्हैं बिगरै बनाती ना।।
जद्यपि भई यों जस भागी तू त्रिपथ भागी,
पै ‘द्विजेश’ भगीरथी तबहूँ कहाती ना।।
प्रेमनि पगी पगी सु माता सी सगी सगी,
भगीभगी भागीरथी के संग मैं जुआती ना।
17
दार नृप सांतनु की चारो फल देन दार,
नद सरदार देवदारन सी ज्वै गई।।
सोनभद्र सरजू व सालिग्राम नामी नदी,
गोई सब तोमैं तैं न काहू संग ग्वै गई।।
जैसो तब तरल तरंग त्यों सरल ढंग,
सत्रु सरनागती पै रंग निज ख्बै गई।।
काल की सहोदरी कलिंदी वह काली नदी,
तोमैं मिलि गंगे सोऊ गंगा आज ह्वै गई।।
18
सान्तुन के अंगज न थे क्या चित्रअंगदवे,
गंगज जो होते केहरी सों प्रान खोते ना।।
एक तेरे गर्भ मैं न होतो गुन-बर्व तो यों,
सर्व-गर्व-हारी द्वै प्रभू की धाक धोते ना।।
हरि प्रन तोरि त्यों परसुरामैं मुख मोरि,
मैन को मरोरिजोरि सेज-सर सोते ना।।
सांतनै-तनय होते होते कहा भीपम यों,
मैया गंग तू तैं जनमें जो आज होते ना।।
19
धन्य तेरी महिमा मही मैं आज मातु गंग,
जानते हैं देव वो ‘द्विजेश’ जन जेते हैं।।
धन्य तव पण्डे जो प्रचण्डे जम दूत हूँ लौं,
झण्डे गाड़ि पापिनैं जु पुन्य पथ देते हैं।
धन्यतो हजाम जिन जूमिजूमि आठो जाम,
करिकै हजूम ऐसो इन्तजाम चेते हैं।।
कूढ़न को मूढ़न को जबा-बाल-बूढ़न को,
मूढ़न को मूढि़ पाप हूँ को मूढि़ लेते हैं।।
20
जेते नाम नीर के जु नद-सर के सरीर,
पैना गुनीते तिन्है जिन्हें यों आप ज्वै रही।।
आप नामैं आपदारि वारि सों उबारि दोष,
पर्व जलसे को जस-जल से भिज्वै रही।।
पानीसोंसुपानी पोस,त्योंद्विजेश’ नीर हू यों,
ज्यों तुनीरतीर जासों जम ख्याति ख्वै रही।
जीवन तें जीवनैं पियूष पय पीवन सों,
अम्बु नामैं अम्बा जगदम्बा रूप ह्वै रही।।
21
जिन मुख तें ना सपने हूँ केहूँ राम-नाम,
पुन्य परिनाम हू न जाके नाम जद्दी को।।
केवलै जो अपकर्म ही को मानि पर्म धर्म,
खोये जीवनी को सोये नींद अनहद्दी को।।
पै जिन्हैं न तेरो आप जानतो न पापजातें-
जम चित्रगुप्त किया कैयों रूप रद्दी को।
नीर बिनु ज्यों सर सरोज रोज रद्दी, तिमि-
तैसी जमगद्दी रोजनामचा मुसद्दी को।।
22
अद्भुत अंग सों अनूप है जो तेरो रूप,
तो ह्वै कृपा कूप विश्व भूपैं मनोहारी तैं।।
सारद सहेली मनमेली लक्ष लक्ष्मी की,
खेली गिरिजा के संग प्रेम लेनहारी तैं।।
षटऋतु वारो मास रैन दिन के समास,
जाचकैं से जाबिन को चैन देनवारी ते।।
पापहारी तापहारी जब को प्रतापहारी,
बलि बलिहारी जु यों विश्व की बिहारी नैं।।
23
जो पै तब तीनै तीन विधि सों प्रसंग गंग,
प्रथमैं त्रिदेवैं संग तीन गुन लेनी नैं।।
तीन जल तीन रंग तीनहूँ के तीन ढंग,
उज्जवल वो कज्जलऽरुनंजल कीश्रेनी तैं।
त्यों ‘द्विजेशी’ तीनोंलोक तीनपथ सों बिलोकि,
तीनों ताप तीनों पाप आप ही की देनी तैं।।
धन्य तेरो तीनै तीन विधि को तरंग गंग,
जातें ह्वैं रही यों तीन रंग की त्रिवेनी तैं।।
24
जिमि पद वाचक प्रसिद्ध तेरी चार नाम,
तिमि पद लक्षकैं दुलक्षणा विधानी सों।।
जातिनामजान्हवी,जद्दच्छा-गं
गुन सों त्रिवेनी क्रिया त्रिपथ प्रधानी सों।।
रूढ़ीकेवलैं सों त्योंप्रयोजनी जोशुद्धा गौनि,
उपादानि लक्षणी सारोप साध्यौऽसानी सों।
धोतेपाप गोते, गंग वासी सुख सोते, तिमि-
जम गन रोते जम होते बिना पानी सों।।
25
पीके आप भंग मति भंग किन होते आप,
जारते अनंगै कहा आपै क्यों न जरते।।
विपधर कंठ मैं एकंठ करि ब्याल माल,
कह त्रिपुरा को मारि आपै क्यों न मरतें।।
धन्य तेरो आप पाप-ताप हारी तौ प्रताप,
सो जाको ‘द्विजेश’ कोऊ देव ना बिसरतै।
धीर किमि धरते उधरते अधम कहाँ,
मंगधर तोहिं जो न सीस गंग धरनै।।
मुंडन पर उक्ति
जनमति संगी अंग जाको मम अंग ही तैं,
चल्यों गंग न्हान जातें संग यों विगारिगो।।
चलतहिं आदि ही तें अनमन होन लारयो,
जान्योना ‘द्विजेश’ कौनब्याधि कोपकरिगो।
कैकै किते जत्न सो प्रयाग लौं पहुँचि केहूँ,
अन्त मों पैं मुंडन को यो असौंच परिगो।।
मेरो मित्र पाप जो परम प्रिय मोको हाय,
पहुँच्यों न गंग पौर पंथ ही मैं मरिगो।।
यम के नाम
श्री जमराज जू। ‘द्विजेश’ को प्रनाम, हैं-
अराम, आठो जाम तौ कुशल नेक चहियो।
आज हौं अह्नाए गंग पाए विश्वनाथ पद,
होत फल याको जो सोजानि जिय लहियो।
जानते हो जैसो संभु, गंग की तरंग जैसी,
तूहूँ चित्रगुप्त बैठे चुपैचाप रहियो।।
देत हूँ चेताई भाई बनि न परैगी मोसों,
अब फेरि कोऊ मोहिं पातकी जु कहियो
यमदूत की विवशता
जम गन भाख्यो गति गंगजम सों ‘द्विजेश’,
कहि जम कोपि ”गंग सोंहै तोहिंका प्रसंग।
कह्यों,”स्वामि। गंग तें तो नितहम होते तंग,
सोई गंग कै रही तिहारी प्रभुता को भंग।
पूँछयोपुनिकौनगंग?कैसी गंग’कह्यो, नाथ-
जाके अंग मिली हैं तिहारी भगिनी हूँ-संग”
”गंगै कहा गुन-ढ़ंग”कह्यो,”पीनपापिन कों,
गंग गंग कहे गंगधर सों मिलानी गंग”।
यमराज का उलाहना
1
आय जम शिवहिं जवाब दीनी चाकरी सों,
”या अनीति हौं तो अब कब लौं सहा करैं।
पुन्य बारे स्वत ही सिधारैं सुरलोक सबै,
जोगकारे चाहैं जितै तितही रहा करैं।।
ज्ञान-बारे गुनहिं न पाप पुन्य एकौ कछू,
मग्न ह्वै ‘द्विजेश’ मुक्ति मार गचहा करैं।।
पतित कतारैं तिन्हें गंगैं देति तारे, हम-
झूठे जम-द्वारे बीच बैठि कै कहा करैं।।
2
अज्ञापैजोआपी के प्रतिज्ञा सों प्रबंध न्याय,
कन्धि हम राखे पापी दंड के प्रसंगा मैं।।
जो न करि पातेअब हम जम ह्वै के तिन्हे,
जो अन्हाते पाते स्वर्ग गंग के तरंगा मैं।।
यातेंआप हैं बिधी तो कीजै द्वैविधी मैं एक,
भेजे सन्निधी सों गंग जोमों मान भंगा मैं।।
या तो पुनि गंग ही को गोपिए कमंडल मैं,
यामों न्याय मंडलै को गुप्त कीजै गंगा मैं।।
ब्रह्मा का पश्चाताप
जम को उराहनो सुनत बोले यों बिरंचि,
‘तू तैं मोंहिं दूनो है ‘द्विजेश’ दुख दाहे को।।
हूँ जो दये गंग तो सगर सूनु के प्रसंग,
नहिं कछु सारे पीन पातकी पनाहे को।।
भूलि परे नाहक भगीरथ की भूमिका मैं,
आपनो न तौ प्रबंध चेते चित चाहे को।।
काह कहैं जो पै कहूँ ऐसो जानते तो भला,
जीतेजान जाह्नवी को जान देते काहे को”।
कामना
1
अति दुख सों मैं दौरि गंग मैया तेरे पौर,
आयों जानि हानि तातें मोंयों बिनै बानीतैं।।
ह्वै के दीन अनाधीन अति पातकी जु पीन,
जान्यों हौं ‘द्विजेश’ है प्रवीन दया दानी तैं।।
मानै जु तो मानै नहिं मानै तो सुनै मों यह,
विनय ‘द्विजेश’ हठ सठ ज्ञान हानी तैं।।
प्रिय तौ जु करुना कसम करुनैं की सोई,
करु ना जु मों पै अब करुनानिधानी तैं।।
2
आज अति वेदन सों मेरो है निवेदन यों,
मेरो तेरो मातु पूत नात कबौं टूटे ना।।
मेरे पास चार विषै धन रूप ऐसो जाहि,
जो अविद्या अपकर्म इन्हें आनि लूटै ना।।
छोन कैसो मेरो छोह मातु कैसो तेरो मोह, मेरो तेरो कोह केहूँ कबौं आनि कूटैं ना।।
यातें मातु मेरी बिनै बस अब एकै यही,
तेरो नीर – तीर छीर मोसों कबौं छूटै ना।।
3
मों हित न ऐबो तोहिं पुनि विधि वासन सों,
ना तो भगीरथ रथ संग की जवैया तैं।।
मों सँग न सगर सपूतनि सी मंडली हू,
जो जरे मरे को करै पुनि जनमैया तैं।।
मों सुभाग सोंजो आज कासी बीच तौ विराज,
तो मों एकै काज करि होवै सुख दैया तैं।।
बस एक ऐसो जरा अंग पंगु पद पेखि,
लै ले सरनागती मैं मोंको गंग मैया तैं।
लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।
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