अपनी पीड़ा को हे भगवन, कैसे किसे दिखाऊँ मैं।
पग-पग नारी सोच रही है, राह कौन सी जाऊँ मैं।।
मोहल्ले बाजारों में भी, अस्मत लूटी जाती है।
अत्याचारी के हाथों से, गहरी पीड़ा पाती है।।
काम वासना की नजरों से, कैसे कब बच पाऊँ मैं।
पग-पग नारी सोच रही है, राह कौन सी जाऊँ मैं।।
दुखी बहुत ही मन होता है, नारी जब पीसी जाती।
अंतर्मन तब विचलित होकर, बन आँसू धार बहाती।।
कलुष वासना हृदय मिटे नर, शुभ-शुभ आस लगाऊँ मैं।
पग-पग नारी सोच रही है, राह कौन सी जाऊँ मैं।।
क्रूर कल्पना दहला देता, विचलित मन को कर जाता।
कब तक व्यथा सहेगी भारी, प्रश्न हृदय में उठ आता।।
नारी के शुभ दामन से है, कैसे दाग मिटाऊँ मैं।
पग-पग नारी सोच रही है, राह कौन सी जाऊँ मैं।।
अखबारों के पन्ने पढ़कर, टूट रहा धीरज सारा।
अब तो भगवन! राह दिखा दो, ‘सुषमा’ जीवन हो प्यारा।।
आस लिए वह जगती हर दिन, खबर सुखद बतलाऊँ मैं।
पग-पग नारी सोच रही है, राह कौन सी जाऊँ मैं।।
पग-पग नारी सोच रही है, राह कौन सी जाऊँ मैं।।