अनेक सज्जनों को यह भ्रान्ति है कि “पितर” का अर्थ हमारे उन पूर्वज, माता पिता आदि सगे सम्बन्धियों से है जो अब मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं ; और इसी प्रकार
“पितृलोक” का अर्थ यह समझते हैं कि जहाँ मरने के बाद जहाँ हमारे सगे सम्बन्धी चले जाते हैं।
वास्तव में इस मिथ्या धारणा का कारण है -वेदादि ऋषि कृत ग्रन्थों को न पढ़ना।
स्वामी ब्रह्ममुनि जी परिव्राजक जी द्वारा लिखित पुस्तक
“यम पितृ परिचय ” से “पितर” और “पितरलोक” शब्दों के वास्तविक वैदिक अर्थ प्रस्तुत हैं ।
सुधिजन देखें और विचार करें कि इन अर्थों में कहीँ भी मृत्यु को प्राप्त हो चुके सगे सम्बन्धियों के लिए न तो पितर कहा है और न ही उन मृत्यु प्राप्त लोगों के लिए पितरलोक ।
इससे सिद्ध है कि पितरों के नाम पर श्राद्ध आदि की परम्परा वेदविरुद्ध है।
#पितरः-
(१) पिता = सूर्य
(शतपथ ब्राह्मण- १४ । १।४।१२)
(२) पिता = संवत्सर
(ऋग्वेद – १। १६४ । १२)
(निरुक्त – ४। २७)
(प्रश्नोपनिषद् -१/११)
(३) पिता = प्राण
“प्राणो वै पिता”
(ऐतरेय ब्राह्मण -२। ३८)
‘बहुवचने पितरः प्राणाः’ इति च विज्ञेयम ।
(४) पिता = पर्जन्य या पर्जन्ययुक्त द्युस्थान
( अथर्ववेद – १२।१।१२)
(ऋग्वेद -१।१६४।३३)
(निरुक्त – ४।२१)
(५) पिता = जनक- प्रसिद्ध है
(६) पितरौ = माता पिता
“पिता मात्रा”
(अष्टाध्यायी – १।२।७०)
दोनों एक विभक्ति में मिलकर ‘माता च पिता च पितरौ’ द्विवचन में होता है।
(७) पितरौ = द्यावा पृथिवी
(ऋग्वेद – १।१६४/३३)
(८) पितरः = जनक-उपनयनकर्ता-गुरु-अन्नदाता- भयत्राता
(चाणक्य नीति ६।२२)
(९) पितरः- पालक जन
“पिता पाता वा पालयिता वा” बहुवचने “पितरः पातारो वा पालायितारो वा”
(निरुक्त – ४।२१)
(१०) पितरः = ज्ञानी जन
(ऋग्वेद – १० । ८८ । १८)
(११) पितरः = सैनिक जन
(ऋग्वेद -६।७५।६)
प्रकरणवश इस मन्त्र में आया पितर शब्द सेनानायक जनों का अर्थ रखता है
(१२) पितरः = पूर्वज कुटुम्बी जन प्रसिद्ध हैं।
(१३) पितरः = सूर्य रश्मियां
( ऋग्वेद – ९/८३/३)
यहां सायण ने भी पितर का अर्थ सूर्य किरण किया है देखें – “पितरः पालका देवाः पितरो जगद्रक्षका रश्मयः”
(ऋग्वेद ९। ८३।३)
(१४) पितरः = ऋतुएं
“ऋतवः पितरः” (कौ० २७1) “ऋतयो वै पितरः” (श० २।६।१।३२) “षद् वा ऋतवः पितरः”
(श० ६१४।३।८)
(१५) पितरः = चन्द्र लोक निवासी (आर्यभट्ट ज्योतिष् ग्रन्थ)
गीतिका पाद (श्लोक १७)
(१६) पितरः = उत्पत्ति के निमित्त वा दुःख से बचाने वाले पदार्थ
विशेषण रूप में ही धातुज अर्थ आयुर्वेदिक प्रकरण में ।
(१७) पितरः = वसु
“वसून् वदन्ति तु पितॄन् रुद्रांश्चैव पितामहान् ।
प्रपितामहाँ- स्तथादित्यान्छ तिरेषा संनातनी ॥” (मनुः ३ । २८४)
#पितृलोक-
(१) पितृलोक = द्युलोक (सूर्य लोक) तृतीये वा इतो लोके पितरः”
(तैत्तिरीय ब्राह्मण- १।३।१०।५)
पृथिवी, अन्तरिक्ष, द्यौः इनमें तृतीय संख्या द्युलोक की होने से द्युलोक तृतीय लोक है ।
(२) पितृलोक = सोम
“पितृलोकः सोमः”
(कौषीतकि ब्राह्मण -१६।५)
३) पितृलोक = सूर्य
“संवत्सर का नाम पिता देखो
(पितर सं० २) अतः संवत्सर का लोक सूर्य होने से पितृलोक सूर्य है।” “पितर सूर्य रश्मियो का नाम है
(सं० १३) अतः रश्मियों का लोक सूर्य होने से पितृलोक सूर्य है।”
(४) पितृलोक = चन्द्र लोक
“चन्द्र लोक निवासी पितर कहलाते हैं (देखो सं० १५) अतः उनका लोक चन्द्र लोक पितृलोक हुआ ।
(५) पितृलोक = स्वपितृकुल
“माता, पिता तथा अन्य वृद्ध कुटुम्बी जन पितर हैं (सं० १२) उनका कुल या निवास पितृलोक है।
” यथा “उशतीः कम्पला इमाः पितृलोकान् पतिं यतीः ।
अवदीक्षामसृक्षत स्वाहा”
(अथर्ववेद -१४ । २ । ५२)