वैवाहिक कार्यक्रमों में पारंपरिक कोहबर कला निखर उठती है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो कोहबर कला से सजे दीवार देखकर ही पता चल जाता है कि इस घर में वैवाहिक कार्यक्रम आयोजित हुआ है। विवाह कार्यक्रम के शुरू होते ही घर की दीवारों को कोहबर कला से सजाने का काम शुरू हो जाता है। यह कार्य महिलाओं के जिम्मे होती है, जो इसे बखूबी निभाती हैं।
इस कला में विविध रंगों का प्रयोग किया जाता है। घर की दीवारों के साथ दुल्हन के शयन कक्ष में भी कोहबर कला की विशेष आकृति बनाई जाती है। जिसकी विधिवत पूजा अर्चना की जाती है। महिलाएं बताती हैं, कि कोहबर कला के मंगल चिन्ह निर्विघ्न वैवाहिक कार्यक्रम संपन्न होने की कामना को लेकर बनाया जाता है। यह एक रस्म है, जो वैवाहिक कार्यक्रमों में आवश्यक रूप से निभाया जाता है।कोहबर कला एक पारंपरिक कला है। जिसमें पारंपरिक आकृति बनाई जाती है। इस कला में पशु पक्षी, जल जीव, फल फूल व वनस्पतियों को मुख्य रूप से स्थान दिया जाता है। इसके अलावा स्वास्तिक, कलश आदि को भी चित्र में उकेरा जाता है।पुरातात्विक विशेषज्ञ का कहना है कि कोहबर कला अत्यंत प्राचीन कला है। इस कला की शुरुआत गुफा और कंदराओं में रहने वाले जनजातियों के द्वारा की गई है। गुफा का ही दूसरा नाम कोहबर माना जाता है। जनजातीय महिलाएं गुफओं में ऐसे चित्र बनाया करती थी, जो आज भी किसी न किसी रूप में जीवित है। कोहबर शब्द दो शब्दों ‘ कोह है एवं ‘वर’ से वना माना जाता है। कोह या खोह का अर्थ गुफा होता है।
बर ‘दूल्हे’ को कहा जाता है अत : कोहबर का अर्थ दूल्हे का कमरा है। कोहबर आज भी इसी नाम से प्रचलित है और आज भी कोहबर विहार, मधुबनी/दरभंगा आदि स्थानों यर भव्य रूप से बनाया या लिखा जाता है।कोहबर के चित्रों का विषय सामान्यत: प्रजनन, स्त्री -पुरुष संबंध, जादू-टोना होता है, जिनका प्रतिनिधित्व पतियों,पशु -पक्षियों, टोने-टोटकै के ऐसे प्रतीक चिहों द्वारा किया जाता है, जो वंश बृद्धि के लिये प्रचलित एवं मान्य हैं जैशे-बांस, हाथी, कछुआ, मछली, मोर, सौप, कमल या अन्य फूल आदि। इनके अलावा शिव की विभिन्न आकृतियों और मानव आकृतियों का प्रयोग भी होता है ।
ये चित्र घर की बाहरी अथवा भीतरी दीवारों पर पूरे आकार में अंकित किये जाते हैँ।कोहबहर चित्र बनाने की दो शैलियाँ प्रचलित है। मिटूटी को दीवारों पर पृष्ठभूमि तैयार करने के लिये कानी मिटूटी (मैंगनीज) का लेप हाथ से या झाडू से किया जाता है । सूख जाने पर उसके उपर सफेद मिटूटो (कोऔलीन) का लेप चढाया जाता है। जिस पर गीली अवस्था में ही बास/प्लास्टिक के कंधे से विभिन्न आकृतियाँ” हस प्रकार बनाई जाती है कि उपर की सफेद मिटूटी हट जाती है और नीचे की काली मिटूटी में आकृतियाँ” स्पष्ट हो जाती हैं। कहीं-कहीं अंधी की जगह चार उ-गलियों का प्रयोग भी किया जाता है। दूसरी विधि में दीवारों यर मिटूटी की सतह तैयार कर कूचियों से आकृतियों” बनाई बनायी जाती है या टीहनी के कोर पर कपड़। बांध कर उससे चित्र अंकित किया जाता है। आकृतियों में सामान्यत: सफेद, गेरू, वाला, पीला, हरा आदि रंग का प्रयोग होता है।