अमूमन कोई जब अपने जीवन की यात्रा के संस्मरण लिखता है तो वह उसके अपनी घटित घटनाओं , प्रसंगों और कार्यों की कीर्ति की गाथा अधिक होती है। आज दिनांक 25 जुलाई 2024 को मन हुआ कि साहित्यकार जितेंद्र ‘ निर्मोही ‘ की कृति ” सफ़र दर सफ़र ” संस्मरण को क्यों न पढ़ लिया जाए और अपने दैनिक लेखन को स्थगित किया जाए। बस फिर क्या था ले कर बैठ गया उनकी यह कृति जो कभी उन्होंने मुझे पढ़ने को दी थी। सात खंडों में 85 पेज में समाहित जीवन के सफ़र को एक ही सिटिंग में पूरा पढ़ डाला। ऐसा महसूस हुआ की यह कृति केवल उनके जीवन की मात्र साहित्यिक यात्रा ही नहीं है वरन झालावाड़ और कोटा की साहित्य विकास की कहानी भी साथ – साथ चलती है। कह सकता हूं कि किसी भी जिज्ञासु को यहां के साहित्यिक विकास की जानकारी में रुचि है तो वह इस कृति को पढ़ ले। इस दृष्टि से यह एक अनिवार्य पठनीय दस्तावेज बन गया है।
झालावाड़ के साहित्यिक अदबी माहोल का सफ़र रियासत के कवि रामनिवास ‘ सौरभ ‘ के संपादन में निकाले जाने वाली पत्रिका ” सौरभ ” से शुरू होता है। राजराणा राजेंद्र सिंह ‘ सुधाकर ‘ उर्दू अदब में मखमूर के नाम से नजर आते हैं। झालावाड़ के नवरत्नों में गिरधर शर्मा ‘ नवरत्न, प.हरनाथ कविराज, मथुरालाल शास्त्री, जयदेव झा, कवि मणि शास्त्री,
फतह करण, जसवंत सिंह जस और महाराणा
बलभद्र सिंह थे। प .हरनाथ राज कवि के पुत्र ज्ञानेंद्र पथिक महफिल की शान हुआ करते थे।शकुंतला रेणु, कमला देवी ( लेखक की माता जी), स्व. माधो सिंह दीपक, सर्वेश्वर दत्त शर्मा,रघुनाथ सिंह हाड़ा काव्य गोष्ठियों की जान होते थे। झालावाड़ में 7 अप्रैल 1952 को जन्में जितेंद्र निर्मोही की कक्षा 2 की कविता इनके लिए गीत की पहली पाठशाला थी।
जिसकी अम्मा करती पूजा
उससे प्यार कोई न दूजा
जो आता है सब के काम
राम कृष्ण है उसके नाम।
यहां जो लिखना शुरू हुआ और पहला गीत लिखा…..
आज गहन निद्रा में किसने विध्न डाला है
किसने उन्मुक्त हो मुझे जगा डाला है।
लेखन परिपक्व होता गया, निखार आता गया और आज तक लिख रहे हैं। उनको भी नहीं भूले जो इनके साथ – साथ अन्य साहित्यकारों को गोष्ठियों में ले जाते थे। झालावाड़ में कृष्ण भक्ति की वजह से हिंदी, उर्दू और बृज तीनों भाषाओं में सृजन की त्रिवेणी बहती थी। कमला देवी का एक बृज छंद………
सब रोग समूह के नाशन की
अनुभूत सदा सुख मूल हूं मैं
सूर भूसुर भसन भाल लगी
जग जानत केसर फूल हूं मैं।
ये भी बृज में लिखने लगे थे। भवानी नाट्य शाला में भी साहित्यिक आयोजन और नाट्य मंचन होते थे। सांस्कृतिक और पुरातत्व वैभव को प्रकाश में लाने के लिए ललित शर्मा, गदाधर भट्ट और ग्यासी लाल सेन की कृतियां होती थी। झालावाड़ के साहित्यिक अदबी माहोल को जीते हुए ये 1977 में कोटा आ बसे। ये कवि सम्मेलनों में जाने लगे और देश के सुनामधन्य कवियों के संपर्क में आए।
” साहित्यिक सफ़र नामा ” में लिखते है साहित्यिक समारोहों में महिला रचनाकारों से खूब मिलते हैं, करें है आज भी इनको वह मन नहीं मिला जो इनका हक है। इस बारे में 2017 में कोटा में आयोजित रचनाकार सम्मेलन में इन्होंने इस विषय पर नासिरा शर्मा से भी बात की। प्रौत्नशील रहते हैं हाड़ोती की महिला रचनाकारों को उनका वाजिब सम्मान मिले जिसकी वे हकदार हैं। कोटा आ कर महसूस किया कि राजस्थानी में लिखने का माहोल बहुत ही निराशाजनक है।
इन्होंने इस दिशा में प्रयास शुरू किया और संतोष है कि आज स्थिति में अपेक्षाकृत काफी बदलाव आया है। रचनाकार राजस्थानी ( मायड़ और हाड़ोती ) में कविता, दोहे, छंद, सोरठा आदि पद्य विधा में लिखने लगे हैं और अनेक कृतियां भी प्रकाश में आई हैं। लघु कथा, कहानियां और उपन्यास भी लिखे जाने लगे हैं। राजस्थानी साहित्य का एक अच्छा माहोल संतोष प्रदान करता है। इन्होंने रचनाकारों के रचनाधर्म पर शोध के लिए भी शोधार्थियों को प्रेरित कर साहित्य में शोध का माहोल बनाया, जिसके सुपरिणाम भी सामने आए हैं। हाड़ोती के कई रचनाकारों के रचनाधर्म पर शोध किया जा चुका है और निरंतर जारी है।
“मेरा हिंदी साहित्य और उसकी अनवरत यात्रा” में हिंदी साहित्य के क्षेत्र में आपके अवदान को उल्लेखित किया गया है। वर्ष 1994 में आई इनकी पहली कृति ” जंगल से गुजरते हुए” के बाद अब तक एक दर्जन से अधिक कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं और कुछ प्रक्रिया में हैं। कृतियों की भूमिका, समीक्षा, टिप्पणियां लिखने वालों का जिक्र करते हुए क्रियों के बारे में उनके विचारों से अवगत कराते हुए संक्षिप्त में कृति परिचय भी दिया गया है। साथ ही प्रकाशन के अपने अनुभव को भी साझा किया है।
ऐसे ही इसी प्रकार की जानकारियां ” मेरी राजस्थानी भाषा साहित्य की अनवरत यात्रा ” में अपने राजस्थानी साहित्य सृजन कृतियों के बारे में देते हुए समकालीन अन्य रचनाकारों की राजस्थानी कृतियों का भी उल्लेख करते हुए हाड़ोती में राजस्थानी का माहोल बताने का प्रयास किया गया है। इनकी पहली कृति ” ई बगत रो मिजाज ” गीतों और समकालीन काव्य ले कर आई। इससे स्व. पूर्व प्रेम जी प्रेम की ” म्हारी कवितावां” सहित कुछ और रचनाकारों की राजस्थानी कृतियां आ चुकी थी।
दूसरी कृति ” बांदरवाल की लड़ियां” आई जिस पर डॉ., बद्री प्रसाद पंचोली ने कहा था ” राजस्थानी में निबंध और समीक्षा कर्म की शुरुआत इस से मानी जानी चाहिए “। इनकी उस समय के रचनाकारों ने खूब समीक्षा की थी और कृति में विविध विषयों पर 11 समीक्षात्मक लेख शामिल थे। आलोचना और समीक्षा की नीव बनी तीसरी कृति ” हाड़ोती अंचल को राजस्थानी काव्य” आई। इनकी चौथी कृति ” नुगरी” उपन्यास काफी चर्चित हुआ। अन्य राजस्थानी कृतियों में ” संस्मरण कृति ” या बणजारी जूण”, आई जिसमें इक्कीस आलेख हैं। जंगल, बन, वन्य जीव से प्रेम होने से रंगीन चित्रमय काव्य कृति ” जंगली जीवां की पछाण” आई जिसने इनकी काव्य धारा को बाल साहित्य की और मोड़ दिया। यह कृति इनके वन विभाग में काम करने के गहन अनुभव का प्रमाण कही जा सकती है। इस कृति से ही बाघ के पद्य का एक अंश लिखा है-
नर ही राजा कहलावै
नारी मार शिकारां लावै
इनकी एक और कृति ” गाधीसुत” खंड काव्य आई जिसमें 10 सर्ग हैं। इनका राजस्थानी लेखन का सफ़र निर्बाध जारी है। इनकी कुछ हिंदी और राजस्थानी कृतियों को विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत भी किया गया है, जिसका उल्लेख कृति में किया गया है।
अगस्त 2020 में प्रकाशित इस कृति के समय हिंदी और राजस्थानी में इनकी पांच कृतियां प्रकाशन में थी।
कृति में गीत से नवगीत की ओर आने, बाल साहित्य की ओर रुझान तथा अंत में हाड़ोती अंचल का राजस्थानी साहित्यिक परिवेश अध्याय भी शामिल हैं। वर्ष 2000 ओर इसके बाद के
47 रचनाकारों की 47 राजस्थानी कृतियों की सूची शामिल की गई है। कृति का समापन करते हुए लिखते हैं ” लेखन की प्रतिस्पर्धा ने यहां के युवा लेखकों में नव ऊर्जा का संचार किया है जिसके बेहतर परिणाम देखने को मिलेंगे।” युवा लेखक ओम नागर का उल्लेख करते हैं जो राजस्थानी भाषा के उन्नयन को समर्पित हैं और राष्ट्रीय युवा पुरस्कार से सम्मानित है। इनके प्रयासों में इनके साथ जुड़ने वाले समस्त रचनाकारों, समीक्षाकारों आदि का कृति में उल्लेख करना भी ये भूले नहीं है। इनकी कृति सफ़र दर सफ़र ” संस्मरण की यह समीक्षा तो एक छोटी सी बानगी मात्र है, विस्तार देना यहां संभव नहीं है, पूरी जानकारी के लिए पढ़े सफ़र दर सफ़र ”
1 पुस्तक का नाम : सफ़र दर सफ़र ” संस्मरण
2 लेखक : जितेंद्र निर्मोही
3 कवर : पेपर बैक
4 पृष्ठ : 85
5 प्रकाशक : जन चेतना प्रकाशन, कोटा
6 मूल्य : 120 ₹
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समीक्षक : डॉ.प्रभात कुमार सिंघल
लेखक एवं पत्रकार, कोटा