दयानंद पांडेय से प्रदीप श्रीवास्तव की बातचीत
लेखक की आवाज़ को नक्कारखाने में तूती की आवाज़ मानने वाले दयानन्द पांडेय बावजूद इसके लिखते ही रहते हैं। वह अब तक हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं,विषयों में पिचहत्तर से अधिक किताबें लिख चुके हैं। शीघ्र ही उन की कुछ और पुस्तकें भी प्रकाशित होने वाली हैं। वह एक सजग तेज़ तर्रार निर्भीक पत्रकार रहे हैं, उनके लम्बे पत्रकारीय जीवन,अनुभव की छाया स्वाभाविकता उनके साहित्य पर भी खूब पड़ती रहती है। बिना लागलपेट सीधे-सीधे बात कहने की प्रवृत्ति है इस लिए विवाद भी उनके साथ-साथ चलता है। हाईकोर्ट में कंटेम्प्ट का मुकदमा भी झेल चुके हैं। कोर्ट में माफ़ी नहीं मांगी। बेरोजगारी,भूख तमाम दुश्वारियों का सामना किया लेकिन अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया , आगे बढ़ते रहे और अब तक हिंदी साहित्य के अनेक महत्वपूर्ण पुरस्कारों से पुरस्कृत , सम्मानित हो चुके हैं। बीते दिनों उन से उनके समग्र व्यक्तित्व कृतित्व एवं अन्य विभिन्न बिंदुओं पर जो विस्तृत बातचीत की, वह प्रस्तुत है। जिस में संभवतः आप यह ध्वनि भी सुन लें कि कुछ बिंदु ऐसे हैं जिस पर वह भी कुछ लिखने बोलने कि अपेक्षा किनारे से निकल लेना श्रेयस्कर समझते हैं। आखिर सबकी अपनी-अपनी एक सीमा होती ही है, उनकी भी है।
- नैतिकतावादियों के आरोप ही अश्लील हैं। मेरा स्पष्ट मानना है कि दुनिया में अश्लीलता नाम की कोई चीज़ नहीं है। हां, अगर आप भ्रष्ट हैं, शोषक हैं , अत्याचारी हैं तो अश्लील हैं: दयानंद पांडेय
- सूर्य प्रसाद दीक्षित आचार्यों के आचार्य हैं। उन का अध्ययन विशद है: दयानंद पांडेय
- लखनऊ अब हमारी आदत में शुमार है। हमारी सांस में शुमार है: दयानंद पांडेय
- यह वामपंथी न तो ख़ुद स्वस्थ ढंग से सोचते हैं , न किसी को सोचने का अवकाश देते हैं: दयानंद पांडेय
- जीवन में बहुत कठिनाइयां, अपमान और दुश्वारियां भुगती हैं। बेरोजगारी भुगती है, भूख और परेशानियां देखी हैं: दयानंद पांडेय
- शिक्षा और चिकित्सा अब डकैती के अड्डे हैं: दयानंद पांडेय
- ग़नीमत बस यही थी कि हम कभी पत्रकारिता में दलाली की आंधी में दलाल नहीं बने। चाटुकार नहीं बने। किसी सूरत नहीं बने: दयानंद पांडेय
- फ़िल्में भी खेमेबाजी का शिकार हैं पर साहित्य में सिर्फ़ खेमेबाजी ही शेष रह गई है। सिनेमा से टकराने या सिनेमा के बरक्स साहित्य खड़ा होने की भी नहीं सोच सकता: दयानंद पांडेय
- पूरे मुग़लिया इतिहास में जोधाबाई नाम का कोई चरित्र नहीं है। पर कमाल अमरोही की क़लम ने गढ़ दिया। इतना कि जोधा अकबर नाम से दूसरी फिल्म बनी। फिर धारावाहिक भी: दयानंद पांडेय
- हरिचरन प्रकाश बड़े कथाकार हैं। हरिचरन प्रकाश को लोगों ने अंडररेटेड लेखक बना कर रखा है: दयानंद पांडेय
- अमिता दुबे तो जैसे कोई निर्मल नदी हैं। कल – कल बहती हुई। खुद को साफ़ करती हुई और सब को साथ ले कर चलती हुई: दयानंद पांडेय
- अश्लीलता का आरोप अश्लील लोगों ने ही लगाया। अपनी खीझ और हताशा में: दयानंद पांडेय
- ऐसे लेखकों और फिल्मकारों को भय लगा रहता है कि अगर वह इस्लामिक हिंसा के विरोध में खड़े हुए तो सांप्रदायिक घोषित हो जाएंगे : दयानंद पांडेय
प्रश्न – आपकी बातचीत से लेकर लेखन तक में बैदौली गांव, गोरखपुर शहर ऐसे समाए रहते हैं जैसे फूलों में खुश्बू,महानगरों में लोग, शर्बत में मिठास, भक्ति में भाव, जबकि शिक्षा-दीक्षा पूरी होते-होते आप लखनऊ, दिल्ली आदि शहरों में पहुंचे तो वहीं का होकर रह गए ,बैदौली छूट गया, गोरखपुर छूट गया। क्या कारण रहे, क्या शहरों की चकाचौंध से आप भी स्वयं को बचा नहीं पाए ?
उत्तर – सच तो यही है कि गांव ही नहीं छूटा हम से, शहरों की भूलभुलैया में हम ख़ुद ही कहीं छूट गए हैं। पर वास्तव में छूटता कहां कुछ है भला। कुछ भी कभी भी नहीं छूटता। फूल की ख़ुशबू एक शाश्वत सत्य है। जन्मभूमि है मेरी बैदौली। गोरखपुर मेरा शहर है। जो भी बना – बिगड़ा गोरखपुर में ही। आधार कहिए, बुनियाद कहिए सब कुछ वहीं तो है। परिस्थितियां हैं, सुविधाएं हैं, ज़रूरतें हैं जो लखनऊ, दिल्ली कर देती हैं। मेरा वश चले तो आज भी अपनी जन्मभूमि और अपने गांव बैदौली में रहूं। जैसे कि मेरे पड़ पितामह , पितामह और पिता रिटायर होने के बाद गांव में ही रहे। याद आता है कि पिता उस समय मेरे साथ नोएडा में थे। छोटे भाई के साथ लखनऊ लौटे। दो-चार दिन लखनऊ में रहने के बाद गांव जाने की ज़िद पर आ गए। भाई कहता रहा कि दो-तीन दिन बाद एक काम से चलना है, गोरखपुर तब चलिएगा। लेकिन पिता तो पिता। कहने लगे नहीं ले चलोगे, तो अकेले चला जाऊंगा। परेशान हो कर छोटे भाई ने मुझे फ़ोन किया। सारी बात बताई। कहा कि मैं समझा दूं। मैं जानता था कि वह समझाने से मानने वाले व्यक्ति नहीं हैं। इस लिए भाई से कहा कि जैसे भी हो आज उन्हें गांव ले जा कर छोड़ आएं। नहीं कहीं अकेले निकल गए तो बहुत मुश्किल हो जाएगी।
एक तो उम्र हो गई थी दूसरे, वह कई बार चीज़ों को भूल जाते थे। ऐसे में कहीं खो गए तो बहुत मुश्किल हो जाएगी। भाई उसी दिन पिता जी को गांव ले गया। आख़िर गांव पहुंचने के दूसरे ही दिन वह सर्वदा-सर्वदा के लिए खो गए। दुनिया को विदा कह गए। तो क्या वह अपनी जन्मभूमि पर ही प्राण छोड़ना चाहते थे ? आकुल – व्याकुल थे कि कैसे भी हो जन्मभूमि पर चलना है , गांव चलना है। उम्र के अलावा उस वक़्त कोई बीमारी नहीं थी। बात करते-करते विदा हो गए। रही बात शहरों की तो गोरखपुर से निकल कर पहला लक्ष्य मुंबई जाने का था। फ़िल्मी दुनिया में क़िस्मत आजमानी थी। लखनऊ तो कभी सोचा भी नहीं था। गया भी तो दिल्ली। कोई पांच साल रहा दिल्ली। ”सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट” और ”जनसत्ता” में रहा। फिर ”स्वतंत्र भारत”, लखनऊ आया था सिर्फ़ एक साल के लिए। लेकिन सरकारी घर मिल गया। भाइयों, पत्नी को नौकरी। बच्चों को अच्छा स्कूल। शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ का एक शेर है :
इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी क़द्र-ए-सुख़न
कौन जाए ‘ज़ौक़’ पर दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर
तो यह शेर मेरे लिए लखनऊ के लिए बन गया। लखनऊ की गलियां छोड़ कर नहीं जा पाया। कई बार अवसर भी मिला। ”स्वतंत्र भारत” में कानपुर और ”राष्ट्रीय सहारा” में दिल्ली ट्रांसफर हुआ। बारी-बारी। दिल्ली में ”आज तक” में नौकरी की बात हुई। लेकिन लौट – लौट आया। बात वही कि कौन जाए पर लखनऊ की गलियां छोड़ कर। लखनऊ शानदार शहर है। मुंबई , दिल्ली के मुक़ाबले छोटा और आरामदेह। अब नोएडा में भी घर है। पर अधिकतर लखनऊ में ही रहता हूं। नोएडा आता – जाता रहता हूं। जैसे गोरखपुर और गांव आता – जाता रहता हूं। हमारे कई पत्रकार साथी लखनऊ से यहां-वहां गए। पद -प्रलोभन में, अधिक पैसे की मोह में, या बेरोजगारी दूर करने के लिए। ज़्यादातर लोग तबाह हो गए। कोई कई बीमारियों से घिर गए। किसी को लकवा मार गया। किसी को हार्ट प्रॉब्लम और जाने क्या – क्या। कई साथी लोग विदा हो गए। बार – बार शहर बदलना हर पत्रकार को सूट नहीं करता। कभी इस शहर , कभी उस शहर। परिवार बिखर जाता है। बच्चों की पढ़ाई गड़बड़ा जाती है। और मुझे सब से ज़्यादा शांति से रहना अच्छा लगता है। दो पैसा कम मिले , दो रोटी कम मिले , बड़ा पद न मिले कोई बात नहीं। शांति , सुख और नींद ज़्यादा ज़रूरी है।
परिवार सुखी रहे , परिवार का साथ रहे , यह ज़्यादा महत्वपूर्ण है। पत्रकारिता में क्या है कि आज आप उत्कर्ष पर हैं , कल पता नहीं क्या हो। आज आप स्टार हैं , पचास लोग आगे – पीछे हैं। सत्ता पक्ष , प्रतिपक्ष सब के दुलारे हैं। कल को बेरोजगार हैं। या मुख्य धारा में नहीं हैं तो कोई पूछने और पहचानने वाला नहीं। तो बहुत उतार – चढ़ाव है पत्रकारिता की ज़िंदगी में। हम ने बहुत उतार – चढ़ाव देखे हैं। भुगते हैं बार – बार। एक समय था कि हवाई जहाज या हेलीकाप्टर से चलना होता था। नियमित। पर ऐसा भी हुआ कई बार कि स्कूटर या कार में पेट्रोल के लिए भी पैसे नहीं थे। लेकिन लखनऊ ने मुझे हमेशा संभाल लिया। हर दुःख – सुख में। अभी भी संभाले हुए है। चार दशक होने जा रहे , लखनऊ की बाहों में। लखनऊ की गलियों में। लखनऊ वैसे भी चकाचौंध का शहर नहीं है। व्यर्थ की दौड़भाग नहीं है। सुकून और संतोष का शहर है। सब कुछ तो है लखनऊ में। शहर भी एक आदत होते हैं। लखनऊ अब हमारी आदत में शुमार है। हमारी सांस में शुमार है। यहां अच्छे लोग भी हैं , कमीने लोग भी। हर जगह होते हैं। लेकिन अच्छे लोग ज़्यादा हैं। बहुत ज़्यादा।
प्रश्न – आप हिंदी विषय लेकर स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर रहे थे, फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि पढ़ाई पूरी होने से पहले ही पत्रकारिता जगत में आ गए। यह आपका अपना निर्णय था या घर का दबाव कि अब कुछ करो।
उत्तर – पत्रकारिता में तो बी ए प्रथम वर्ष में ही आ गए। बीस बरस की उम्र में। अचानक ही आ गए। पत्रकारिता की ज़िंदगी पहले शुरू हो गई। शायद यही प्रारब्ध था। एम ए तो बाद में किया। बस जैसे तैसे किया था। करनी तो पी एच डी भी थी। पिता जी की इच्छा यही थी। वह चाहते थे कि आई ए एस बनूं या अध्यापक बनूं। किसी यूनिवर्सिटी में पढ़ाऊं। अध्यापक की परंपरा थी घर में। मेरे पड़ पितामह और पितामह दोनों ही हेड मास्टर से रिटायर हुए थे। हुआ यह कि तब के दिनों कविता – कहानी लिखने लगा था। हमारे एक मित्र थे जयप्रकाश शाही। हम से चार – पांच साल बड़े थे। हमारे गांव के पास उन का भी गांव था। वह एम ए कर चुके थे। हम बी ए कर रहे थे। शाही जी कविताएं लिखते थे। कवि गोष्ठियों में मिलते थे। पत्रकार भी थे। एक दिन वह मुझे समझाने लगे कि , ‘लेख भी लिखिए। ‘ मैं ने कहा कि , ‘कविता कहानी ही बहुत है। ‘ वह समझाने लगे कि , ‘ कविता लिख कर कहीं छपिएगा तो कितनी जगह मिलेगी ?’ बित्ता से नाप कर बोले , ‘ इतनी ? ‘ फिर बित्ता थोड़ा और बढ़ा कर बोले , ‘ इतनी ? ‘ मैं ने कहा , ‘ कहानी में तो ज़्यादा जगह मिलती है। ‘ वह बोले , ‘ कहानी या कविता तो फिर रोज – रोज कोई लिख भी नहीं सकता।’ फिर अख़बार का पूरा पेज दिखाते हुए बोले , ‘ लेख तो पूरे पेज का हो सकता है। ‘ वह बोले , ‘ रोज न सही , हफ़्ते में दो – तीन लेख तो लिख ही सकते हैं। ‘ वह बोले , ‘ फिर देखिए अख़बार में कितनी ज़्यादा जगह मिलेगी आप के लिखे को। और अकसर मिलेगी। कविता , कहानी में तो कभी – कभी। वह भी ऊंट के मुंह में जीरा। ‘ मैं टालता रहा पर जय प्रकाश शाही पीछे पड़े रहे। अंतत : लेख लिखने लगा। रिपोर्ट लिखने लगा। राष्ट्रीय पत्रिकाओं में कविताएं , कहानियां तो छपती ही थीं , लेख भी छपने लगे। उन दिनों सारा कम्युनिकेशन चिट्ठियों के भरोसे था। नेट , और सोशल मीडिया तो सपने में भी नहीं थे। लैंड लाइन फ़ोन तो थे पर हमारे जैसों की पहुंच से बहुत दूर। तो मैं अपनी डाक का इंतज़ार शाम तक करने के बजाए सीधे दस बजे सुबह डाकखाने पहुंच जाता था।
रचनाओं की स्वीकृति , अस्वीकृति , चेक , मनीआर्डर , पत्रिकाएं , अख़बार , जो भी था मिल जाता था। एक दिन अचानक ख़ूब सफ़ेद खद्दर का कुरता पायजामा पहने , सिगरेट फूंकते एक व्यक्ति ने पूछा , ‘ आप दयानंद पांडेय हो ? ‘ मैं ने हामी में सिर हिलाया। तब पूछा , ‘ मुझे जानते हैं ? ‘ मैं ने न में सिर हिला दिया। उन्हों ने पूछा , ‘ पूर्वी संदेश का नाम सुना है ? ‘ मैं ने कहा , ‘ हां ! ‘ वह बोले , ‘ मुझे ज़की कहते हैं। मोहम्मद ज़की ! ‘ वह भी अपनी डाक देखने आए थे। मैं ने उन्हें हाथ जोड़ कर नमस्कार किया। सिगरेट हाथ में लिए हुए ज़की साहब ने भी नमस्कार किया और बोले , ‘ सारिका में प्रेमचंद पर लेख आप का ही है ? ‘ हाथ जोड़ कर मैं ने हामी भरी। तब टाइम्स आफ इण्डिया की पत्रिका सारिका के अक्टूबर , 1978 के अंक में प्रेमचंद पर एक मेरा लिखा एक दो पेज का रिपोर्ताज छपा था जिस में प्रेमचंद की प्रतिमा के बगल में खड़े मेरी फ़ोटो भी छपी थी। उस फ़ोटो से ही मोहम्मद ज़की ने मुझे पहचाना था। मेरे लिखे के प्रति उन के मन और ज़ुबान पर मेरे लिए प्रशंसा के भाव थे। यह दिसंबर , 1978 की बात है। तब मैं बीस बरस का था। मोहम्मद ज़की पिता की उम्र के। बात करते – करते मोहम्मद ज़की ने अचानक मुझ से पूछा , ‘ मेरे साथ काम करेंगे ? ‘
‘ कहां ? ‘
‘ पूर्वी संदेश में। ‘
‘ लेकिन मैं तो अभी बी ए में हूं। पढ़ रहा हूं। ‘
‘ कोई बात नहीं। ‘ ज़की बोले , ‘ पढ़ाई छोड़ने को कहां कह रहा हूं। ‘ वह बोले , ‘ पढ़ाई जारी रखें। ‘ कह कर उन्हों ने अपने साथ रिक्शे पर बैठने को कहा। ‘ मेरे पास साइकिल है। ‘ संकोच में आ कर कहा।
‘ साइकिल बाद में आ कर ले लीजिएगा । ‘ कहते हुए मेरा हाथ पकड़ कर रिक्शे पर खींच कर बैठा लिया। सिविल लाइंस में अपने दफ्तर ले गए। और अपनी कुर्सी पर मुझे बैठा दिया। प्रेस के सारे स्टाफ को बुलाया। मेरा परिचय करवाया और बताया कि आज से ‘पूर्वी संदेश’ के संपादक यही हैं। ‘ मैं हकबका गया। इतना ही नहीं इस हफ़्ते छपने वाले पूर्वी संदेश अख़बार की प्रिंट लाइन में बतौर संपादक मेरा नाम भी छपा। आगे भी छपता रहा। ज़की साहब ने मुझे पूरी छूट दे रखी थी कि क्लास ख़त्म होने के बाद दफ़्तर आऊं। शर्त बस यह थी कि अख़बार छपने में देरी न हो। सोमवार की तारीख में छपने वाला अख़बार शुक्रवार की शाम हर हाल छप जाना चाहिए। जैसे भी हो। पंद्रह दिन तक ज़की साहब ने काम सिखाया और समझाया। फिर फ्री हैंड दे दिया। घर में पिता जी नाराज़ थे कि बीच पढ़ाई नौकरी की क्या ज़रूरत है। ज़की साहब को यह बात बताई तो कहने लगे , ‘ बरखुरदार आप को तो अख़बार में काम मिला है। मैं ने तो बीड़ी बनाते हुए पढ़ाई की है। ‘ सुन कर मैं अकबका गया। क्यों कि ज़की साहब की लाइफ स्टाइल बड़ी एरिस्ट्रोकेटिक थी। नफ़ासत और नज़ाकत भरी।
अपर मिडिल क्लास वाली लाइफ थी। शानदार बंगला। हरदम कलफ लगे साफ़ शफ्फाक कपड़े। लगता ही नहीं था कि यह आदमी कभी बीड़ी बनाने की मज़दूरी भी किया होगा। ज़की साहब ने चुनाव भी दो बार लड़े और हारे। उस की अलग कहानी है। पर तब के दिनों देश के बड़े – बड़े राजनीतिज्ञों से उन का मिलना – जुलना और दोस्ती थी। कभी मिनिस्टर विदाऊट पोर्टफोलियो कहे जाते थे। हिंदी , अंगरेजी और ऊर्दू पर ज़बरदस्त पकड़। दो घंटे में पूरा अख़बार फाइनल कर देते थे। ”पूर्वी संदेश” के अलावा देश की सभी पत्रिकाओं में भी तब छपता रहता था कुछ न कुछ। निरंतर। लिखने का , छपने का जैसे नशा सा हो गया था। जिस हफ़्ते कुछ कहीं न छपे तो शहर में कहीं निकलने का , किसी से मिलने का मन नहीं होता था। नहीं मिलता था। नहीं जाता था कहीं। छपास की जैसे बीमारी थी तब।
कुछ महीने बाद दूसरे प्रतिद्वंद्वी अख़बार ”जनस्वर” के मालिक सरदार देवेंद्र सिंह मिल गए। पूछा , ‘ पूर्वी संदेश में कितना मिलता है ? ‘ बताया , ‘ डेढ़ सौ रुपए। ‘ देवेंद्र सिंह बोले , ‘ दो सौ रुपए दूंगा , जनस्वर आ जाइए।’ देवेंद्र सिंह बड़े ट्रांसपोर्टर व्यवसाई थे। जनता पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर से उन की गहरी दोस्ती थी। चंद्रशेखर गोरखपुर आते तो देवेंद्र सिंह के घर ही रुकते थे। खैर ”जनस्वर” चला गया। ज़की साहब को बताने गया तो पता चला कि वह दिल्ली गए हैं। उन की पत्नी को बताया तो वह कुछ बोली नहीं। कोई तीन – चार महीने बाद एक कार्यक्रम में ज़की साहब मिल गए। पूछा , ‘ कहां हैं बरखुरदार ? ‘ उन्हें बताया , ‘ जनस्वर में। दो सौ रुपए मिलते हैं। ‘ वह किंचित नाराज हुए नालमेरी पीठ ठोंकते हुए बोले , ‘ ढाई सौ दूंगा। कल से आ जाइए। ‘ फिर ”पूर्वी संदेश” वापस आ गया। ज़की साहब से बहुत कुछ सीखने को मिलता। 1981 में दिल्ली घूमने गया। घूमने क्या गया हमारे एक चचेरे भाई बैंक का इम्तहान देने जा रहे थे। रेलवे पास था तो उन के साथ हम भी दिल्ली चले गए। वह बैंक इम्तहान की तैयारियों में लग गए। हम अख़बारों और पत्रिकाओं के दफ़्तर घूमने लगे। लोगों से मिलने लगे। ”सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट” पत्रिका तब बस शुरू ही हुई थी। रीडर्स डाइजेस्ट का हिंदी संस्करण था सर्वोत्तम। सर्वोत्तम के संपादक तब अरविंद कुमार थे। कनॉट प्लेस में हिंदुस्तान टाइम्स बिल्डिंग के सामने सूर्यकिरन बिल्डिंग में सर्वोत्तम का आफिस था। ”साप्तहिक हिंदुस्तान” में हिमांशु जोशी ने अरविंद कुमार से भी मिलने की सलाह दी। हिमांशु जी तब तक मुझे कई बार ”साप्तहिक हिंदुस्तान” में छाप चुके थे। तो अरविंद कुमार से मिला। कोई दस मिनट अरविंद जी इधर – उधर की बात पूछते रहे। अचानक बोले , ‘ भइया रे , मेरे साथ काम करोगे ? ‘ मैं हकबका गया। कुछ समझ नहीं पाया। पूछा , ‘ कहां ? ‘ अरविंद जी हंसते हुए बोले , ‘ इसी सर्वोत्तम में। ‘ गूंगे के गुड़ वाली बात हो गई। मैं कुछ बोल नहीं पाया। अरविंद जी बोले , ‘ अपना बायोडाटा लिख कर दे दो। कल तक सारी फ़ार्मेल्टीज पूरी करवा दूंगा। कल से ही ज्वाइन भी कर लो। ‘ मैं ”सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट” में नौकरी करने लगा। मोहम्मद ज़की को चिट्ठी लिख कर यह सूचना भेज दी। वह बहुत खुश हुए। जवाबी चिट्ठी में मेरी तारीफ़ में क्या – क्या नहीं लिख दिया। वह दिल्ली आते तो पहले ही चिट्ठी लिख कर अपने होटल का पता लिख भेजते। मैं मिलता रहा। वह जब भी आते। सर्वोत्तम में अरविंद जी से सरलता , सहजता और काम करने की लगन सीखी। अरविंद जी से सीखने और जीने के बेहिसाब क़िस्से हैं। आगे कभी विस्तार से बताऊंगा। दिल्ली से जब ” जनसत्ता ” शुरू हुआ तो ”जनसत्ता” आ गया। पहली टीम में था। प्रभाष जोशी जी से भी बहुत कुछ सीखा। फिर लखनऊ ”स्वतंत्र भारत” में संपादक थे वीरेंद्र सिंह। ”इंडियन एक्सप्रेस”, दिल्ली में राजीव सक्सेना थे। लखनऊ, ”पायनियर” से गए थे। वीरेंद्र सिंह से परिचय करवाया। वीरेंद्र सिंह ”स्वतंत्र भारत” , लखनऊ लाए। फ़रवरी , 1985 की यह बात है। वीरेंद्र सिंह जैसा अध्ययनशील और कड़ियल संपादक मैं ने अभी तक दूसरा नहीं देखा। उन के जैसा जीनियस नहीं देखा। सितंबर, 1991 में ”नवभारत टाइम्स” ले आए राम कृपाल सिंह। राष्ट्रीय समाचार फीचर्स में संपादक बना 1994 में। इस फीचर एजेंसी को मैं ने लांच किया और देश की नंबर वन फीचर एजेंसी बनाया। फिर ”राष्ट्रीय सहारा” आया जुलाई 1996 में। फिर तो लंबा किस्सा है। बहुत से नामी गिरामी संपादक, लेखक और राजनीतिक लोग मेरी ज़िंदगी में बड़ा आधार और संबल रहे हैं। इन सब से आत्मीय संबंध रहे हैं। सब का स्नेहभाजन रहा हूं।
फिर भी मुझे इतना बताने की कृपया अनुमति दीजिए कि जय प्रकाश शाही, मोहम्मद ज़की , अरविंद कुमार और वीरेंद्र सिंह मेरी पत्रकारीय ज़िंदगी की बुनियाद हैं। बहुत ज़रूरी बुनियाद। यह लोग न होते तो शायद मैं पत्रकारिता में नहीं होता। ऐसे और इस तरह तो नहीं ही होता। ख़ास कर अरविंद कुमार और वीरेंद्र सिंह से बहुत कुछ सीखा। ख़ास तौर पर यह सीखा कि भूखों मर जाएंगे पर पत्रकारिता में कभी दलाली नहीं करेंगे। चाटुकारिता और चमचई नहीं करेंगे। जो आज की तारीख़ में पत्रकारिता में बड़ी अनिवार्यता बन चुका है। जो जितना बड़ा दलाल , उतना बड़ा पत्रकार। जीवन में बहुत कठिनाइयां, अपमान और दुश्वारियां भुगती हैं। बेरोजगारी भुगती है, भूख और परेशानियां देखी हैं। लड़ – लड़ गया हूं। टूट – टूट गया हूं। टूट कर चकनाचूर हो गया हूं पर ग़लत के आगे कभी झुका नहीं। स्वाभिमान से कभी समझौता नहीं किया। कोई गलत काम नहीं किया। कभी किसी क़िस्म की दलाली नहीं की। सीना तान कर सर्वदा रहा हूं। रह रहा हूं। रहूंगा। लेखन में भी , पत्रकारिता में भी