सिनेमा मनोरंजन का एक प्रभावी साधन है ! मानवीय प्रवृत्तियों को प्रभावित करने की ताकत भी सिनेमा में है ! मनोरंजन के साथ-साथ संवेदना का सजीव वर्णन सिनेमा में मिलता है! समाज की मानवीय भावनाओं का जो महत्व है वही सिनेमा की असल बुनियाद है ! इसी समाज का अभिन्न अंग नारी है और इसी कारण भारतीय नारी का प्रतिनिधित्व सिनेमा में नारी पात्र करते रहे हैं ! इस सिनेमा ने नारी का जो चित्रण किया है उससे पता चलता है कि जो सिनेमा पुरुष केंद्रित हुआ करती थी वह अब नारी की समस्या ,नारी का शोषण, नारी का अस्तित्व , नारी का अधिकार, नारी का विद्रोह तथा नारी के विविध रूपों को लेकर बनने लगा है ! आज नारी को केंद्र में रखकर बन रही फिल्म नारी जीवन की सार्थकता को नए अर्थों में तलाशती रही है जो महिला सशक्तिकरण की दिशा में सफलतम प्रयास है!
महिला सशक्तिकरण महिलाओं को सामाजिक, आर्थिक , राजनीतिक और व्यक्तिगत स्तर पर सशक्त बनाने की प्रक्रिया है! इसका उद्देश्य महिलाओं को अपने जीवन के सभी पहलुओं पर नियंत्रण प्रदान करना तथा उन्हें पुरुषों के समान अवसर प्रदान करना है!
महिला सशक्तिकरण को अभिव्यक्ति देने की दिशा में “मदर इंडिया “और “बंदिनी “जैसी फिल्मों के माध्यम से हिंदी सिनेमा ने अपना योगदान देने की पहल की थी किंतु अंतर्राष्ट्रीय महिला दशक ( 1976 से 1985) के उपलक्ष में गुलजार निर्मित फिल्म “मीरा” में नायिका एक स्वतंत्र मन, मस्तिष्क के साथ आगे बढ़ने की इच्छा रखने वाली स्त्री का प्रतिनिधित्व करती प्रतीत होती है ! जब वह कहती है-‘ मैं आत्मा हूं शरीर नहीं, मैं भावना हूं किसी समाज का विचार नहीं!’ ओज, अस्तित्व और महिला शक्ति का जो रूप एवं मुखर व्यक्तित्व दिखाई देता है समस्त रोम- रोम स्त्री शक्ति का जागृत हो उठता है! उसमें निहित दुर्गा और काली की संपूर्ण शक्तियां अपने स्वातंत्र्य के साथ नायकत्व को ग्रहण कर बढ़ने लगती हैं !
बाद के वर्षों में अर्थ ,अस्तित्व, मिर्च-मसाला,एवं लज्ज’ सहित ऐसी अनेक फिल्में बनी ! इस वर्ष प्रदर्शित ‘आर्टिकल 370 ‘में यामी गौतम सशक्त पात्र निभाती दिखीं ! कुछ प्रमुख फिल्मों का उल्लेख करते हुए हिंदी सिनेमा ने स्त्री विमर्श की पड़ताल कर दी है !
हिंदी सिनेमा के हर दशक में कुछ ऐसी फिल्में बनी जिसमें महिलाओं के मन में झांकने की पहल की गयी है ! वी.शांताराम, अय्यूब खान, बिमल राय, गुरुदत्त राज , ऋषिकेश मुखर्जी , केतन मेहता एवं वेनेगल समेत कई निर्देशकों ने महिला पात्रों को दर्शाया है!
महिला पात्रों को इस तरह से गढ़ने को लेकर श्याम वेनेगल ने एक साक्षात्कार में कहा था कि ‘महिला को मां, पत्नी, बहन के पारंपरिक अंदाज में सिनेमा में देवी बनाकर दिखाया जाता रहा है! लोगों ने उसे आसानी से अपना भी लिया था पर चुनौती तब महसूस हुई जब उस धारणा को तोड़ने का प्रयास किया गया! फिल्म ‘कुत्ते’ और ‘खुफिया’ में तब्बू ने जो रोल निभाए वह पहले अभिनेताओं के लिए लिखे गए थे बाद में उन्हें स्त्री पात्रों में बदल दिया गया ! इसके पीछे विशाल की अपनी सोच है ! वह कहते हैं कि -‘पुरुष शारीरिक तौर पर मजबूत लग सकते हैं लेकिन वास्तव में महिलाएं भावनात्मक तौर पर बेहद सशक्त होती हैं! हां यह जरूरी नहीं की महिला निर्देशक ही सिर्फ महिलाओं पर अच्छी फिल्में बनाती हैं! पुरुष फिल्मकारों में भी संवेदनशीलता से महिलाओं के मुद्दे उठाने की इच्छा शक्ति दिखती है! विमल राय से लेकर ऋषिकेश मुखर्जी, पिता गुलजार और संजय लीला भंसाली तक में ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं!
राजकुमार संतोषी ने वर्ष 2000 में प्रदर्शित फिल्म ‘लज्जा’ की टैगलाइन बनाई -‘जब आंसू रुकते हैं तब क्रांति होती है !’ फिल्म में समानांतर चलती चार कहानियों में सभी स्त्री पात्र सशक्त हैं ,जो दहेज, कन्या भ्रूण हत्या एवं स्वयं के साथ अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाना जानती हैं! लज्जा स्त्री का गुण है पर इसे उसकी कमजोरी समझाना गलत होगा !जब स्त्री मुखर हो उठती है तो पूरा समाज मौन रहकर उसकी बात को सुनने पर विवश हो जाता है!
— डॉ सुनीता त्रिपाठी ‘जागृति’ स्वतंत्र लेखिका, अखिल भारतीय राष्ट्रवादी लेखक संघ (नई दिल्ली)