भारतीय पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन के तीन विशेषज्ञों द्वारा किए गए अध्ययन के मुताबिक करीब 5.5 करोड़ भारतीय प्रति वर्ष अपने स्वास्थ्य देखभाल पर होने वाले खर्च के कारण गरीब होते जा रहे हैं। इसमें से 3.8 करोड़ लोग ऐसे हैं जो केवल दवाईयों पर आने वाले खर्च के कारण गरीबी रेखा से नीचे आ गए हैं।
ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक स्वास्थ्य पर किए जाने वाले खर्चे का सबसे बड़ा हिस्सा गैर-संक्रमणीय बीमारी जैसे कैंसर, हृदय रोग और मधुमेह पर खर्च होता है। इनमें कैंसर ऐसी बीमारी है जिस पर इतना खर्च आ जाता है कि आर्थिक रूप से सक्षम परिवार भी गरीबी की स्थिति में आ जाता है।
यह माना जाता है कि यदि घर पर होने वाले कुल खर्चे में स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च 10 फीसदी या उससे अधिक हो जाए तो यह इंसान के लिए विनाशकारी हो जाता है। यानि ये बीमारियां और उसपर होने वाले खर्चे अच्छे खासे परिवारों को गरीबी की ओर धकेल रही हैं। वहीं यदि कोई सड़क यातायात पर घायल होने वाले और इसके अलावा किसी और कारणों से दुर्घटना के शिकार हुए लोगों पर किए गए शोद से पता चला है कि इनमें भी सबसे अधिक खर्चा करने वाले लोग आर्थिक रूप से कमजोर हैं जो कम से कम सात दिनों तक अस्पताल में ठहरते हैं।
इस अध्ययन के लिए अध्ययनकर्ताओं ने 1993-94 से 2011-12 तक के देशव्यापी उपभोक्ता सर्वेक्षणों का डाटा और साल 2014 में नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन द्वारा किए गए सामाजिक उपभोग: स्वास्थ्य सर्वेक्षण का विश्लेषण किया।
अध्ययन के दौरान जब साल 2011-12 के आंकड़ों का विश्लेषण किया गया तो उससे पता चला कि सरकार ने दवाईयों और स्वास्थ्य पर होने वाले खर्चे को कम करने के लिए कई उपाय किए थे। इस अध्ययन से यह भी पता चला कि ड्रग कीमत नियंत्रण ऑर्डर 2013 ने महत्वपूर्ण दवाओं को मूल्य नियंत्रण के तहत आवश्यक दवाओं की सूची में डाला। सरकार द्वारा कई स्वास्थ्य बीमा योजनाओं को शुरू करने के बावजूद भी देश की अधिकांश आबादी ने अस्पतालों में इलाज और दवाओं की खरीद पर अत्यधिक व्यय करना जारी रखा।
वहीं सरकार ने लोगों को कम कीमत पर दवाएं उपलब्ध कराने हेतु जन औषधि स्टोर्स की शुरुआत की। इसके तहत करीब 3,000 स्टोर खोलने का लक्ष्य रखा गया था जो पूरा भी हो गया लेकिन ये पहल भी लोगों के लिए उतनी सहायक नहीं हो पाई जितना सोचा गया था। या तो यहां अधिकतर दवाइयों का स्टॉक नहीं होता है या फिर जो दवाइयां मिलती हैं उनकी गुणवत्ता अच्छी नहीं होती।
अधिकांश जन औषधि स्टोर्स में 100-150 तरह की दवाइयां ही मौजूद होती हैं जबकि कहा गया था कि यहां 600 से अधिक दवाईयां उपलब्ध होंगी। भारत में मौजूद 5.5 लाख से अधिक फार्मेसी की तुलना में इनकी संख्या बेहद ही कम है।