किसानों के हक में है कौन, यह सवाल चाहे अनचाहे भूमि अधिग्रहण अध्यादेश ने राजनीतिक दलों की सियासत तले खड़ा तो कर ही दिया है। लेकिन देश में किसान और खेती का जो सच है उस दायरे में सिर्फ किसानों को सोचना ही नहीं बल्कि किसानी छोड़ मजदूर बनना है और दो जून की रोटी के संघर्ष में जीवन खपाते हुए कभी खुदकुशी तो कभी यूं ही मर जाना है। यह सच ना तो भूमि अधिग्रहण अध्यादेश में कहीं लिखा हुआ है और ना ही संसद में चर्चा के दौरान कोई कहने की हिम्मत दिखा रहा है। और इसकी बड़ी वजह है कि 1991 के आर्थिक सुधार के बाद से कोई भी राजनीतिक दल सत्ता में आई हो किसी ने भी कभी ग्रामीण अर्थव्यवस्था को लेकर कोई समझ दिखायी नहीं और हर सत्ताधारी विकास की चकाचौंध की उस धारा के साथ बह गया जहां खेती खत्म होनी ही है। फिर संयोग ऐसा है कि 91 के बाद से देश में कोई राजनीतिक दल बचा भी नहीं है, जिसने केन्द्र में सत्ता की मलाई ना खायी हो।
वाजपेयी के दौर में चौबीस राजनीतिक दल थे तो मनमोहन सिंह के दौर में डेढ़ दर्जन राजनीतिक दलों के एक साथ आने के बाद यूपीए की सरकार बनीं। लेकिन पहली बार कोई गैर कांग्रेस पार्टी अपने बूते सत्ता में आई तो वह भी विकास के उसी दलदल में चकाचौंध देखने समझने लगी जिसकी लकीर आवारा पूंजी के आसरे कभी मनमोहन सिंह ने खींची थी।
खेती को लेकर देश देश की अर्थव्यवस्था के पन्नों को अगर आजादी के बाद से ही पलटे तो 1947 में भारत कृषिप्रधान देश था। उस वक्त देश में 141 मिलियन हेक्टर जमीन पर खेती होती थी। देश में ग्यारह करोड़ किसान थे। साढ़े सात करोड़ खेत मजदूर। 1991 में खेती 143 मिलियन हेक्टेयर जमीन पर होने लगी। लेकिन किसानों की तादाद ग्यारह करोड़ से घटकर दस करोड़ हो गई और खेत मजदूर की तादाद बढ़कर साढ़े नौ करोड़ पहुंच गई। 1991 में आर्थिक सुधार की हवा बही और उसके बाद ट्रैक वन, ट्रैक टू और ट्रैक थ्री करते हुए हर राजनीतिक दल ने सर्विस सेक्टर और इन्फ्रास्ट्रक्चर से लेकर उघोगों के लिए खेती की जमीन हथियाने के जो नायाब प्रयोग शुरु हुए उसका असर 2014 तक पहुंचते पहुंचते यह हो गया कि खेती की जमीन घटकर 139 मिलियन हेक्टेयर पर आ गई और किसान घटकर 9 करोड़ पर आ गए। जबकि खेत मजदूर की तादाद बढ़कर 11 करोड़ हो गई । यह वह किसान और मजदूर है, जो सीधे खेती से जुड़े हैं।
इसके अलावा करीब आठ करोड़ किसान मजदूर परिवार ऐसे है, जिनके पास जमीन भी नहीं है और वह मजदूरी किसानों के लिए भी नहीं करते है बल्कि खेती की जमीन पर जो ठेकेदार खेती करवाता है इनके मातहत ये 8 करोड़ परिवार काम करते है और जिंदगी चलाते हैं। इनकी तादाद आजादी के वक्त करीब 75 लाख थी। अब यहां से आगे का बड़ा सवाल यही पैदा होता है कि हर राज्य में औघोगिक विकास निगम बनाया गया। हर राज्य में औद्योगिक क्षेत्र की जमीन पर उघोग लगाने के लिए बैको से कर्ज लिए गए । इनमें से सिर्फ बीस फीसदी उद्योग ही उत्पादन दे पाए। बाकि बीमार होकर बैको के कर्ज को चुकाने से भी बच गए। और देश को बीस लाख करोड़ रुपए से ज्यादा का नुकसान हो गया। लेकिन किसी सरकार के कभी सवाल नहीं उठाया। जबकि इसी दौर में उन्हीं उद्योगों की जमीन पर रियल स्टेट का धंधा पनपना शुरु हुआ। जो उघोग बीमार हो चुके थे।
रियल स्टेट के धंधे में पचास लाख करोड़ से ज्यादा की रकम सफेद और काले को मिलाकर लगी। लेकिन उसे रोकने के लिए कोई रास्ता किसी सरकार ने नहीं उठाया। ध्यान दें तो जिस सोशल इंडेक्स का जिक्र समाजवादी और वामपंथी हमेशा से करते रहे उनके सामने भी कोई दृष्टि है ही नहीं कि आखिर कैसे बाजार में बदल रहे भारत में उपभोक्ताओं की जेब देखकर विकास की बिसात ना बिछायी जाये या फिर उपभोक्ताओ की कमाई ज्यादा से ज्यादा कैसे हो इसकी चिंता में कल्याणकारी राज्य को स्वाहा होने से रोका जाए। यानी सुप्रीम कोर्ट का वकील एक पेशी के लिए 20 से पचास लाख रुपए ले तो भी सरकार को फर्क नहीं पड़ता और बिना इंश्योरेन्स इलाज कराने कोई निजी अस्पताल में जाए तो औसतन दो लाख से 10 लाख देने पड़ जाएं तो भी फर्क नहीं पड़ता और शिक्षा के नाम पर कुकुरमुत्ते की तरफ खुल रहे संस्थानों की ट्यूशन फीस औसतन 6 लाख रुपए सालाना हो तो भी फर्क नहीं पड़ता। यानी कोई शाइनिंग इंडिया में खोये। कोई एसआईजेड के नाम पर औघोगिक विकास का नारा लगाने लगे। कोई किसानों की सब्सिडी खत्म कर किसानो को मुख्यधारा से जोड़ने की थ्योरी दे दें। तो कोई कॉरपोरेट को टैक्स में राहत देकर अंतरराष्ट्रीय कॉरपोरेट टैक्स के बराबर होने का नारा लगाए। तो कोई उद्योगों को कई तरीके से टैक्स में राहत देकर किसानों की सब्सिडी से तीन गुना ज्यादा सब्सिडी की लकीर खींच दे। तो कोई यह कहने से ना चुके की भारत के बाजार में निवेश कराने के लिए मेक-इन इंडिया जरुरी है और उससे निकले पैसे को आखिर में किसान-मजदूर-गरीबों में ही तो बांटना है। कोई इन सबका विरोध करते हुए सत्ता में आए और फिर वह भी उसी रास्ते पर चल पड़े तो जनता करेगी क्या।
यह सवाल संयोग से कांग्रेस विरोधी हर सत्ता के दौर में उभरा है और हर सत्ता की दिशा भी ट्रैक टू के जरिए कांग्रेस के पीछे ही चल पड़ी है, इनकार इससे भी नहीं किया जा सकता। मनमोहन सिंह के दौर में सेज के लाइसेंस का बंदर बांट किसे याद नहीं होगा लेकिन जितनी जमीन सेज के नाम पर ली गई उसका साठ फीसदी हिस्सा बिना उपयोग आज भी जस का तस है लेकिन सरकार उस जमीन को मेक-इन इंडिया के लिए उपयोग में नहीं लाती है। बंजर जमीन का उपयोग कैसे हो कोई ब्लू प्रिंट किसी सरकार के पास नहीं है। खेती की जमीन पर दिए जाने वाले चार गुना मुआवजा के बाद भी किसान की हालत औसतन आठ से दस बरस बाद मजदूर से भी बदतर क्यों हो जाती है। यह सवाल ऐसे है जिसके जबाब में कोई सरकार नहीं फंसती। जबकि 1947 के बाद से खेती की जमीन पर तीन गुना बोझ बढ़ चुका है लेकिन किसानी छोड़ किसी दूसरे रास्ते किसानों के बच्चे कैसे जाएं इसके लिए कोई ब्लू प्रिंट कभी किसी सरकार ने नहीं दिया। मौजूदा वक्त में भी किसानों के खातों तक सरकारी पैसा सीधे बिना बिचौलिए के कैसे पहुंच जाए इसे ही उपलब्धि मान कर हर कोई अपनी पीठ ठोंकने से नहीं चूक रहा जबकि सच यह है कि संसद के भीतर ही नोबल से सम्मानित बांग्लादेश के मोम्मद युनुस ने ग्रामीण बैंक का पूरा पाठ हर सांसद को समझाया। और बांग्लादेश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पटरी पर भी ले आए। मोम्मद युनुस ने भारत के संसद में जब यह जानकारी दी कि अनुदान के जरिए गरीबी से नहीं निपटा जा सकता। दान से निर्भरता बढ़ती है और गरीबी का दुष्चक्र चलता रहता है। कर्ज से लोगों को आय प्राप्ति के नए जरिए मिलते हैं और खासकर गरीब,अशिक्षित और महिलाओं को माइक्रोफाइनेंस के जरिए मुख्यधारा में लाया जा सकता है। तो हर किसी ने तालिया पीटी थी।
लेकिन अब यह जानते हुए भी राजनेताओ की आंख नहीं खुल रही है कि बांग्लादेश ने इन्हीं उपायों से बीते बीस बरस में बीपीएल परिवारों की तादाद बीस फीसदी तक कम कर दी। 91-92 में 60 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे थी वह अब 40 फीसदी तक आ गई। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट कहती है कि बांग्लादेश में 1990-91 में 3 करोड़ 60 लाख लोग भूख की मार झेलते थे, जो अब 2.62 करोड़ रह गए हैं। लेकिन भारत तो विकास के नाम पर चकाचौंध की बेफ्रिक्री में कुछ ऐसा खोया है कि उसे किसानों की खुदकुशी या फसल बर्बाद होने पर कोई राहत या मुआवजा दिया जाना चाहिए इस पर ठोस नीति बनाने के बदले चार दिन पहले संसद ने हवाई यात्रा करने वालों के लिए नीतिगत फैसला ले लिया कि अब हवाई यात्रा के दौरान मरने वालों को 75 लाख की जगह 90 लाख रुपए मिलेंगे।
(साभार : prasunbajpai.itzmyblog.com)