मोदी सरकार सरकारी कर्मचारियों की उस बात पर गंभीरता से विचार कर रही है जिसमें देश के सरकारी विभागों मे कार्यरत कर्मचरियों ने उन्हें ओलंपिक पदक देने की माँग की है। देश के कई राज्यों के कर्मचारियों और केंद्र सरकार से लेकर दिल्ली की केजरीवाल सरकार के सरकारी कर्मचारियों ने मोदीजी के मन की बात कार्यक्रम से उत्साहित होकर मोदीजी को सुझाव दिया था कि ओलंपिक मैडल मिलने के बाद खिलाड़ियों को सरकारी नौकरी देने की घोषणा करना इस बात का प्रमाण है कि आज के जमाने में सरकारी नौकरी पाना ओलंपिक पदक जीतने से भी ज्यादा मुश्किल काम है।
देश भर के कर्मचारियों ने भारत सरकार की वेब साईट पर जिस तरह से इस सुझाव को लेकर बमबारी की है उससे सरकार की पूरी वेब साईट ही जाम हो गई। जब दो तीन-दिन तक मायगोव.इन को मोदीजी के मन की बात को लेकर कोई सुझाव नहीं मिला तो पीएमओ के अधिकारियों को चिंता हुई कि कहीं हमारी साईट किसी पाकिस्तानी ने तो हैक नहीं कर ली। जब पीएमओं में तैनात कई खाँटी दिग्गज मन की बात की ब्लॉक हुई वेबसाईट को नहीं खोल सके तो एक पुराने घाघ बाबू ने सुझाव दिया कि मेरे मोहल्ले का साईकिल सुधारने वाला इस मामले में कुछ मदद कर सकता है। लेकिन आईएएस अधिकारियों ने उसकी बात को हवा में उड़ा दिया। इधर वह इस पर डटा रहा कि साइकिल सुधारने वाले सुलेमान को एक बार पीएमओ का कंप्यूटर दिखाना चाहिए। जब सुलेमान को मन की बात का कंप्यूटर दिखाया गया तो उसने कंप्यूटर को आड़ा किया और पेंचकस से खोलने लगा तो देखा कि एक जैसी मन की बात की वजह से कंप्यूटर का गला चौक हो गया था उसने जैसे ही पेंचकस से मन की बात बाहर निकाली तो पीएमओ के अधिकारियों के होश उड़ गए।
देश भर से हजारों नहीं बल्कि लाखों की संख्या में सरकारी बाबुओं, चपरासियों और यहाँ तक कि रिटायर हो चुके बाबुओं ने भी ओलंपिक के स्वर्ण, रजत, कांस्य या सरकारी नीति के तहत जो भी उचित हो ऐसे पदक की माँग की थी। इन सरकारी बाबुओं का कहना था सरकारी नौकरी पाना और इस पर टिके रहना किसी ओलंपिक मुकाबले में भाग लेने से कहीं ज्यादा मुश्किल है। ओलंपिक में तो खिलाड़ियों को मेडिकल टीम, काउंसलर, हवाई जहाज का टिकट, टीवी कवरेज सब मिलता है जबकि सरकारी बाबू की जिंदगी खुशामद, जी हुजुरी, बड़े साहब की बीबी को गाय का असली घी लाने, किटी पार्टी की व्यवस्था करने, सिनेमा और क्रिकेट मैंच के टिकट लाने की व्यवस्था करने में ही गुजर जाती है, और ये सब काम नौकरी करते हुए ही करना पड़ता है। इसके लिए हमें न तो कोई काउंसलर मिलता है न मेडिकल टीम। हमें हर काम अपना ही दिमाग और सोर्स लगाकर करना पड़ता है। जबकि ओलंपिक खिलाड़ियों को तो कोच भी मिलते हैं।
इनका कहना था कि जब सरकार ने नीतिगत रूप से ये मान ही लिया है कि ओलंपिक में पदक जीतने वाले को सरकारी नौकरी दी जानी चाहिए तो फिर जिन्होंने सरकारी नौकरी हासिल की है उनको भी ओलंपिक पदक दिया जाना चाहिए। इससे देश के कामचोर, मक्कार, बेईमान और चापलूस किस्म के बाबुओं के मन में काम के प्रति लगन पैदा होगी और उनका हौसला भी बढ़ेगा और भ्रष्टाचार भी कम होगा।
प्रधान मंत्री मोदी को समझ में ही नहीं आ रहा है कि मन की बात से पैदा हुई इस मुसीबत से कैसे निपटें? इस मामले में जब उन्होंने पीएमओ को घाघ बाबुओं से सलाह मशविरा किया तो उन्होंने सुझाव दिया कि इस मामले पर पहले राज्य सरकारों की सलाह ले लेते हैं। फिर सलाह आने के बाद एक कमेटी का गठन करेंगे। इस कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद एक और कमेटी बनाएंगे जो इस कमेटी की रिपोर्ट के किस हिस्से को लागू करना है और किस हिस्से को लागू नहीं करना है, उस पर विचार करेगी। इसके बाद ये जो कमेटी सुझाव देगी उस पर मंत्रिमंडल की बैठक में विचार किया जाएगा। फिर ये मुद्दा जब मीडिया में और विपक्ष में विवाद का विषय बनेगा तो इस मामले पर एक सर्वदलीय बैठक बुलाकर सभी दलों की राय ली जाएगी। तब तक तो ओलंपिक पदक की माँग करने वाले सब बाबू रिटायर हो जाएंगे या खुदा के प्यारे हो जाएँगे। एक अधिकारी ने मोदीजी को ऐसी कई पुरानी मामलों की फाईलें दिखाई जो किसी जमाने में संसद से लेकर अखबारों तक में विवाद का मुद्दा बने थे मगर आज उनके बारे में किसी को कुछ पता ही नहीं है।