मैं पिछले दो दिन इंदौर और रतलाम में रहा। रतलाम में विश्व जैन महासंघ और चेतन्य काश्यप प्रतिष्ठान की ओर से एक राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की गई थी। इस मौके पर आयोजित जैन धर्म संसद ने सर्वसम्मति से जो घोषणा-पत्र जारी किया, वह पूरे देश के लिए काबिले-गौर है। इस कार्यक्रम में सभी संप्रदायों के हजारों लोग शामिल हुए। जैन संत जयंतसेन सूरीश्वरजी के मार्गदर्शन में यह विशाल कार्यक्रम संपन्न हुआ।
यह कार्यक्रम इसीलिए आज के लेख का विषय बना कि यह अपने आप में अनूठा था। धार्मिक समारोहों में साधु-संत लोग प्रायः उपदेश दे देते हैं और श्रोतागण उसे सुनकर या भाव-विभोर होकर अपने घर चले जाते हैं लेकिन इस समारोह में उपस्थित हजारों लोगों और देश के करोड़ों लोगों से आग्रह किया गया है कि वे देश में एक बड़े सांस्कृतिक और नैतिक आंदोलन का सूत्रपात करें। हजारों लोगों के हाथ उठवाकर मैंने संकल्प करवाया कि वे अपने हस्ताक्षर अंग्रेजी से बदलकर अब सदा हिंदी में करेंगे। देश के सार्वजनिक काम-काज में स्वभाषा के चलन को बढ़ावा देंगे। हर व्यक्ति कम से कम एक मांसाहारी व्यक्ति को शाकाहारी बनाने की भरपूर कोशिश करेगा ताकि जीव-दया को अमली जामा पहनाया जा सके। हर व्यक्ति कम से कम एक पेड़ लगाएगा और उसकी देखभाल भी करेगा। हर व्यक्ति स्वयं नशामुक्त रहेगा और कम से कम एक व्यक्ति को नशा-मुक्ति के लिए प्रेरित करेगा। मेरी जानकारी में ऐसे शुभ-संकल्प आज तक किसी अन्य समारोह में नहीं हुए। इसी प्रकार इस सभा ने परमाणु-शस्त्र मुक्त विश्व की मांग भी की। विश्व के विनाश का यही सबसे बड़ा खतरा है। अहिंसा का इससे बड़ा मुद्दा कौनसा हो सकता है? इसी प्रकार उपभोक्तावाद त्यागने और पर्यावरण की रक्षा के भी आग्रह किए गए। इस घोषणा-पत्र पर बोलते हुए अपने भाषण में मैंने देश के सभी जैन-संतों से प्रार्थना की कि वे एक बड़ा सम्मेलन बुलाएं, पहल करें, सभी संप्रदायों के धर्मगुरुओं से आग्रह करें कि वे उक्त संकल्पों के आधार पर विराट जन-आंदोलन खड़ा करें। आज देश में दलों के नेता तो अनेक हैं लेकिन जनता का नेता कोई नहीं है।