Intro- राजनीति में रिश्तोंदारों का कुनबा खड़ा करने में करुणानिधि तो मुलायम सिंह यादव से भी ज्यादा मजबूत रहे हैं। लेकिन यूपी में पिता और पुत्र के बिगड़ते राजनीतिक रिश्तों के अक्स में तमिलनाड़ु से अचानक खबर आई कि करुणानिधि ने चुपचाप अपने बेटे स्टालिन को पार्टी की कमान सौंप दी है। वैसे भी, जयललिता के संसार से चले जाने के बाद करुणानिधि के राजनीतिक जीवन में कोई बहुत आकर्षण नहीं रह गया था।
राजनीति में रिश्तों और रिश्तों की राजनीति का भी अपना एक अलग किस्म का मायाजाल है। रिश्ते संवारने से राजनीति निखरती है। लेकिन राजनीति जाती निखर जाती है, तो रिश्ते अपना अलग रास्ता पकड़ कर बिखरने को बेताब हो उठते हैं। लेकिन फिर भी रिश्तों के निखरने के सुख में राजनेता रिश्तों को महकाते रहते हैं। लेकिन इन रिश्तों के बहुत निखर जाने के बाद उनके बेबाक रूप से बिखरने के दर्द का भी अपना अलग अंदाज हुआ करता है। रिश्तों से निखरती राजनीति, राजनीति से निखरते रिश्ते और उन रिश्तों की वजह से बिखरते राजनीति के संसार में संबंधों की सच्चाई को आज की तारीख में मुलायम सिंह यादव से ज्यादा और कौन समझ सकता है ! उधर, दक्षिण की तरफ देखें, तो तमिलनाड़ु में करुणानिधि ने भले ही बेटे स्टालिन को डीएमके की कमान सौंप दी है, समय सारिणी में भले ही समानता हो, लेकिन न तो यह कोई मुलायम सिंह यादव की हालत को देखकर करुणानिधि ने फैसला लिया है और न ही उनका राजनीति से अभी मोहभंग हुआ है। लेकिन फिर भी अचानक रात को नींद से जागे, बेटे को उठाया और बिना किसी संकोच के पूरी की पूरी डीएमके का ताज स्टालिन को पहना दिया।
वैसे भी, जयललिता के परलोक सिधारने के बाद, 92 साल के हो चुके करुणानिधि का जीवन के प्रति कोई बहुत आकर्षण बचा नहीं था। आधी रात को अपने घर में गहरी नींद में सपने देख रहे करुणानिधि को गिरफ्तार करानेवाली जयललिता अब इस संसार से जा चुकी है और उनसे बदला लेना बाकी रह गया। इन दिनों वैसे भी वे बहुत बीमार रहते हैं, और अत्यंत अक्षम होने के कारण अपने दम पर खडे भी नहीं हो सकते। व्हील चेयर ही वाहन है। पैरों से चलते – फिरते दुनिया ने कई सालों से करुणानिधि को देखा ही नहीं। फिर सत्ता से भी लगातार सात साल से दूर है। अगले चार साल तक फिर से कुर्सी पर आने की कोई आस भी नहीं है। सो, जयललिता जिंदा होती, तो भी अपनी सौगंध पूरी करने के लिए करुणानिधि को 96 की उम्र के पार जाना पड़ता। आधी रात की उस घटना का बदला लेने की सौगंध खानेवाले करुणानिधि को अपनी इस प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए अब उन्हें भी ईश्वर के दरबार में ही जाना पड़ेगा। लेकिन इस सच्चाई से तो करुणानिधि भी वाकिफ है ही कि संसार के सारे लोगों की सारी इच्छाओं की पूर्ति अकसर नहीं हुआ करती। सो, पार्टी की रोजमर्रा की गतिविधियों में सक्रिय हिस्सेदारी से किनारा कर लिया है। मगर, राजनीति से मोहभंग तो उनका 92 साल की उमर और घनघोर शारीरिक दुर्बलता के बावजूद नहीं हुआ है। पर, करें तो क्या करें। सत्ता में तो आ नहीं पाए। हर बार बदल – बदल कर जनादेश देनेवाली तमिलनाड़ु की जनता ने पिछले साल फिर से जयललिता की पार्टी एआइडीएमके को सत्ता सौंपकर करुणानिधि को करारा झटका दे दिया था। अवस्था का आलम यह है कि पार्टी में अपने ही पैदा किए नेताओं की शक्लें और नाम भी करुणानिधि भूल जाते हैं, और अपनी डीएमके पर पकड़ होने के बावजूद करने को उनके पास कुछ बचा नहीं था। उधर, यूपी में मुलायम सिंह यादव के बेटे अखिलेश यादव ने भले ही पिता से पूरी पार्टी छीनकर धोती खींचने का माहौल खड़ा दिया हो, लेकिन तमिलनाड़ु में दूर दूर ऐसी कोई संभावना भी नहीं थी। फिर भी पिता ने बेटे के सर ताज रख दिया।
वैसे, देखा जाए तो रिश्तों की राजनीति करने और राजनीति के जरिए रिश्तों को सत्ता में सजाने के लिए मुलायम सिंह के मुकाबले करुणानिधि कई गुना ज्यादा मजबूत हैं। पूरे कुनबे के कई सारे लोग राजनीति में अहम पदों पर रहे हैं। इसीलिए कहा जा सकता है कि तमिलनाडु के विधानसभा चुनावों में लगातार दूसरी बार डीएमके की कब्र नहीं खुद गई होती तो रिश्तों की रोशनी में राजनीति करनेवाले करुणानिधि की आज की कहानी कुछ अलग होती। साथ ही उनके रिश्तेदारों की राजनीति के मायाजाल की महिमा भी और मुखरित हो रही होती। राजनीति के दंगल में धोबीपछाड़ के लिए मुलायम की तरह ही करुणानिधि भी बहुत कुख्यात किस्म तक लोकप्रिय रहे हैं। पर, जयललिता के जयकारे की ज्वाला में झुलसे करुणानिधि की कुछ दिन पहले की कहानी देखे, तो वे रिश्तेदारों को बचाने की गुहार लगाते फिर रहे थे। ज्यादा सही कहें, तो अपनी जेल जा चुकी केंद्रीय मंत्री रही बेटी कनीमोई को बचाने के लिए दया की भीख मांगते करुणानिधि को देश ने कई दरवाजों पर देखा है। आप तो ऐसे ना थे अन्ना…। मगर क्या करें, रिश्तों की रवायत में मजबूरियों का मायाजाल भी बहुत मजबूत हुआ करता है। इसीलिए, तमिलनाडु में मुख्य विपक्षी पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम यानी डीएमके के अध्यक्ष एम करुणानिधि ने बेटे एमके स्टालिन को अपना कार्यकारी अध्यक्ष घोषित किया है। वैसे, करुणानिधि बहुत साल पहले ही उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित कर चुके थे। लेकिन औपचारिक नियुक्ति अब जाकर हुई है। स्टालिन 63 के हो गए हैं और उन्होंने बहुत भारी मन से यह जिम्मेदारी स्वीकार करने की बात कही है।
वैसे, बरानवे साल की ऊम्र कम नहीं होती। शरीर थक जाता है। चार कदम चलने में भी दम निकल जाता है। लेकिन बेहद बूढ़ा होने के बावजूद दक्षिण की राजनीति के इस सबसे मजबूत मनुष्य का राजनीतिक प्रभामंडल कुछ दिन पहले तक उनसे भी कई गुना ज्यादा मजबूत था। इतना मजबूत कि उनके सामने किसी की जुबान नहीं खुलती थी और लोग हाथ जोड़कर चरण छूने से पहले भी सौ बार सोचते थे। व्हील चेयर पर तो खैर वे तब भी चलते थे, जब सर्वशक्तिमान थे।। मगर, इतनी महान किस्म की मजबूती के अचानक मजबूरी में तब्दील हो जाने की इससे मजबूत मिसाल और क्या हो सकती है कि बेटी कनीमोई के जेल जाने से बेहद आहत करुणानिधि मोम की तरह पिघलने लगे थे। तिहाड़ की दीवारों के बीच बेटी से मिलकर धार धार रोते देश ने उन्हें देखा है। और यह सब देख आपको भले ही इस बूढ़ी आत्मा पर तरस आया हो, पर यकीन मानिए, जयललिता इन दिनों बड़ी सुकून में थीं। कभी सिनेमा में करुणानिधि की लिखी कथाओं और पटकथाओं पर वे बहुत शानदार अभिनय किया करती थीं और करुणानिधि के लिखे गानों की ताल पर पग- पग थिरकती थीं। सिनेमा के परदे पर जयललिता के जवलेदार अंदाज पर दर्शक खूब तालियां – सीटियां बजाते थे। पर, बाद के दिनों में परदे की पटकथा के बजाय असल जिंदगी के राजनीतिक मैदान में जयललिता की लिखी पटकथा पर करुणानिधि को थिरकता देख जयललिता को बहुत मजा आ रहा था। संस्कार और संस्कृति तो यही कहती है कि जो इस दुनिया से चला गया, उसके बारे में ऐसा कुछ भी ऐसा नहीं कहना – लिखना चाहिए, जिससे उसकी मृत्यु का अपमान हो। लेकिन क्या तो राजनीति की जिंदगी और क्या राजनेताओं की मौत ! जिनके लिए मौत भी सिर्फ और सिर्फ वोट बटोरने के एक महापर्व के अलावा कुछ भी नहीं होता हो, उनके बारे में सच कहने पर काहे की तकलीफ। राजनीति करनेवालों को भी ऐसी तकलीफें देने में ही सुकून मिला करता है। और जयललिता तो ऐसे ही सूकून के शौक से सराबोर थी, और इसी तरह के सुकूनों से अतिरिक्त ताकत भी अर्जित किया करती थी। जयललिता की यह ताकत को देश ने अकसर कंटीली और शरारती मुस्कान के रूप में कभी उनके होठों से तो कभी आंखों से मंद मंद टपकते इस देश ने देखा है। खासकर तब, जब आधी रात को नींद में सोए करुणानिधि को घसीटते हुए खींचकर दरवाजे तक लाकर पुलिस से उन्होंने गिरफ्तार करवाया था। पूरे देश ने एक बूढ़े आदमी की इस बेइज्जती को सांस थामकर देखा था। लेकिन, राजनीति वैसे भी, सतत सांस थामकर देखे जानेवाले खेल के अलावा है ही क्या।
कुछ साल पहले के इतिहास में झांके, तो उन दिनों करुणानिधि देख रहे थे कि उनकी माननीय सांसद बेटी कनीमोई टूजी घोटाले में लगातार तीन तीन बार जमानत खारिज होने के बाद तिहाड़ जेल की हवा खा रही थीं। कसूर यह था कि उन्होंने एक कंपनी को सेलूलर फोन के टूजी स्पेक्ट्रम लाइसेंस दिलाने के बदले उस टीवी चैनल में दो सौ करोड़ रुपए का निवेश करवाया, जिसका नाम कलंगार टीवी है। रिश्वत लेने का यह एक कॉरपोरेट तरीका रहा है। कनीमोई पहले दिन से ही इंकार कर रही थी कि उनका इस चैनल से कोई रिश्ता नहीं है। मगर, असल में रिश्ता है। बहुत गहरा भी और पुराना भी। कई सालों से व्हील चेयर से रिश्ता रखनेवाले करुणानिधि का एक नाम कलंगार भी है। बाद के दिनों में भले ही रिश्वत की वजह से रिश्तों की रंगत बदलनेवाला कलंगार टीवी बहुत कुख्यात हो गया हो। मगर, तमिलनाडु में चौबीसों घंटे करुणानिधि और उनके कुनबे के भोंपू के रूप में यह टीवी चैनल बहुत कुख्यात रहा है। और, यह कोई सहज संयोग नहीं, परम सत्य है कि कलंगार नाम से ही तमिलनाड़ु में करुणानिधि को एक जमाने में खूब ख्याति भी मिली। पर, अब यह नाम बदनाम है। उस कनीमोई का, अपने जिस बड़े भाई से हमेशा टकराव रहा है, उसे पिता सत्ता तो सौंप नहीं पाए, लेकिन अब पार्टी का ताज सौंपकर बहन भाई के रिश्तों में फिर से बवाल जरूर ला दिया है।
बात रिश्तों से चली थी, सो रिश्तों पर ही खत्म भी करते हैं। करुणानिधि रिश्तों की रोशन राजनीति के रसिया रहे हैं। लेकिन रिश्तों का रिसाव ही उनकी राजनीतिक रोशनी को ही छीन लेगा, यह किसी को पता नहीं था। और पता तो यह भी नहीं था, कि रिश्ते ही खुद उनकी राजनीति को इतना ध्वस्त कर देंगे कि सत्ता दूसरी बार भी हाथ से निकल जाएगी। पर, राजनीति में ऐसा हो ही जाता है। राजनीति में रिश्तेदारों पर मेहरबानी, और रिश्तों की राजनीति करनेवाले राजनेताओं को इससे सबक लेना चाहिए। अपना मानना है कि अभागे पिता मुलायम सिंह यादव की 75 की उमर में अपने बेटे के हाथों सद्गति या दुर्गति जो भी हो रही है, उसे देखकर ही करुणानिधि ने भी करवट ली हैं। आप भी यही मानते होंगे !
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं)